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मालवा और निमाड़ का प्रमुख उत्सव संजा

उत्सवों का मानव जीवन से आदिकाल से गहरा नाता रहा है। यह केवल सामूहिक उल्लास और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं हैं, बल्कि रचनाधर्मिता, सामाजिक एकजुटता, और प्रकृति के साथ सामंजस्य का प्रतीक भी हैं। उत्सवों की यह परंपरा हमारी सभ्यता की प्राचीनता को दर्शाती है, जिसके प्रमाण शैल चित्रों और भित्ति चित्रों में देखे जा सकते हैं। भारत में मनाए जाने वाले विभिन्न पर्वों में भित्ति चित्रकला और मांडणों का विशेष महत्व है। मांडणे, जिन्हें विशिष्ट अवसरों पर बनाए जाते हैं, हमारी सांस्कृतिक धरोहर की जीवंत अभिव्यक्ति हैं। इन चित्रों के माध्यम से हम प्रकृति, देवी-देवताओं और पारिवारिक मूल्यों के प्रति अपनी आस्था और श्रद्धा को व्यक्त करते हैं।

संजा बाई पर्व इसका एक अनूठा उदाहरण है, जो मालवा और निमाड़ अंचल में मुख्य रूप से कुँवारी बालाओं द्वारा मनाया जाता है। लोक मान्यता के अनुसार, संजाबाई माँ पार्वती का ही एक रूप हैं और श्राद्ध पक्ष के सोलह दिनों तक उनकी पूजा की जाती है। इस उत्सव में पारंपरिक भित्ति चित्रकला का विशेष स्थान होता है, जहाँ प्रत्येक दिन गोबर से बनाए गए मांडणों के माध्यम से संजा की पूजा की जाती है।

संजा पर्व का सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व

संजा पर्व भारत के विभिन्न राज्यों में विभिन्न रूपों में मनाया जाता है। मालवा और निमाड़ अंचल में यह पर्व विशेष रूप से प्रसिद्ध है, जबकि महाराष्ट्र में इसे ‘गुलाबाई’ या ‘फूलाबाई’ के रूप में जाना जाता है। राजस्थान में इसे ‘संजाया’ के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व का प्रमुख उद्देश्य कुँवारी बालाओं के लिए अच्छे वर की प्राप्ति के लिए पूजा करना होता है, और इसके माध्यम से सामाजिक और पारिवारिक जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं को व्यक्त किया जाता है।

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भाद्रपद माह की शुक्ल पूर्णिमा से पितृमोक्ष अमावस्या तक चलने वाले इस पर्व में पितृ पक्ष का भी विशेष महत्व है। जहाँ श्राद्ध पक्ष में पितरों का तर्पण किया जाता है, वहीं संजा उत्सव इन सोलह दिनों में पितरों की याद की उदासी को उल्लास में बदलने का कार्य करता है। पितरों को याद करते हुए, इस पर्व के माध्यम से उनके प्रति आभार व्यक्त किया जाता है, और समाज में उनकी यादों को जीवित रखा जाता है।

मांडणों का महत्व

संजा पर्व के दौरान गोबर से बनाए जाने वाले मांडणों का विशेष महत्व है। प्रत्येक दिन एक नया मांडणा बनाया जाता है और उसके साथ संबंधित गीत गाए जाते हैं। मांडणों की यह परंपरा न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह कला और रचनात्मकता का भी अद्भुत नमूना है। यह प्रक्रिया लड़कियों को न केवल पारंपरिक मूल्यों से जोड़ती है, बल्कि उनमें रचनात्मकता और समूह में काम करने की भावना भी विकसित करती है।

मालवा क्षेत्र में संजा पर्व की शुरुआत पाँच पाचे या पूनम पाटला से होती है। इसके बाद, प्रत्येक दिन मांडणे बनाए जाते हैं, जिनमें बिजौर, घेवर, चौपड़, और पाँच कुँवारे जैसी आकृतियाँ शामिल हैं। यह लोक परंपरा न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह जीवन के विविध पहलुओं का भी प्रतिनिधित्व करती है। जैसे सप्तम दिन सप्तऋषि, नवें दिन वृद्धातिथि और दसवें दिन वंदनवार का निर्माण किया जाता है, ये सभी जीवन और प्रकृति के साथ गहरे संबंध को दर्शाते हैं।

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संजा पर्व और भित्ति चित्रकला का संरक्षण

संजा पर्व न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि यह हमारे पुरातन भित्ति चित्रकला को भी जीवित रखने का माध्यम है। गोबर से बनाई जाने वाली आकृतियाँ, जो दीवारों पर उकेरी जाती हैं, हमारे पूर्वजों की आदिम कला का प्रतीक हैं। यह कला हमें हमारी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़े रखती है और हमें प्रकृति और उसकी रचनात्मक शक्तियों के प्रति जागरूक करती है। वर्तमान समय में जब कई लोक परंपराएँ लुप्त होती जा रही हैं, संजा उत्सव ने इस प्राचीन कला को बचाए रखा है। यह पर्व हमें सिखाता है कि हमारी सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण कितना महत्वपूर्ण है।

संजा पर्व का सामाजिक संदेश

संजा पर्व केवल धार्मिक अनुष्ठान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज में स्त्री जीवन की महत्ता और उसके विभिन्न रूपों को भी उजागर करता है। इस पर्व के माध्यम से कुँवारी बालाएँ अपने भविष्य के सुखमय जीवन की कामना करती हैं और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों और दायित्वों को समझती हैं। संजा बाई की पूजा के माध्यम से लड़कियाँ अपने जीवन में सृजनशीलता, धैर्य, और साहस का विकास करती हैं। यह पर्व समाज में महिलाओं की भूमिका और उनके अधिकारों के प्रति भी जागरूकता फैलाता है।

इन सोलह दिनों पितृ तर्पण के साथ संजा का उत्सव पितरों की याद की उदासी को उत्सव में बदल देता है। भित्ति पर मांडी गई संजा की पूजा करने के बाद प्रसाद बांटा जाता है। बालिकाएँ इस उत्सव को मनाकर प्रसन्नता प्रकट करती हैं तथा संजा उत्सव के नाम पर आज भी प्राचीन परम्परा को अक्षुण्ण रखना ही बड़ी बात है, वरना लोक परम्पराओं का लोपन गोपन हो जाना कोई बड़ी बात नहीं हैं, इसे जनमानस में जीवित रखना बड़ा काम है। इसके साथ ही गोबर से बनाई जाने वाली भित्ति चित्रकला भी उत्सव के माध्यम से बची हुई है जो पुर्वजों की आदिम कला से हमें जोड़ती है।

संजा पर्व, उसके मांडणे और भित्ति चित्रकला के माध्यम से हम न केवल अपनी पुरातन परंपराओं को जीवित रख सकते हैं, बल्कि आधुनिक समाज में भी उनके महत्व को समझ सकते हैं। यह पर्व हमें सिखाता है कि हमारी सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण और संवर्धन कितना आवश्यक है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी उनसे प्रेरणा ले सकें और उन्हें अपने जीवन में उतार सकें।

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लेखक न्यूज एक्सप्रेस के प्रधान संपादक एवं लोक संस्कृति के जानकार हैं।

One thought on “मालवा और निमाड़ का प्रमुख उत्सव संजा

  • B k Prasad

    अदभुत अनोखा और जानकारी बढ़ाने वाला पोस्ट है लोक जीवन पर।
    अभी तक सुनने में नहीं आया था मेरे ।
    पितर पक्ष में भावी जीवन को संभालने हेतु कुंवारी बाला इस तरह से पर्व करती हैं ।
    जीवन के रंग
    संजा पर्व के संग
    लोक कथाओं के प्रसंग

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