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वीर संभाजी महाराज का बलिदान: धर्म और स्वाभिमान की अद्वितीय मिसाल

पिछले दो हजार वर्षों में पूरे संसार का स्वरूप बदल गया है । किसी का साँस्कृतिक गौरव जीवन्त नहीं। सबका अतीत इतिहास के पन्नों में सिमट गया है । लेकिन भारत अपवाद है । भारतीय संस्कृति और परंपराओं पर असंख्य आघात हुये । भारत का इतिहास, साँस्कृतिक, धार्मिक स्वरूप, जीवन शैली और प्रतीक परंपाएँ ही देश का नाम तक बदला गया फिर भी भारत सजीव है तो इसका कारण वे असंख्य बलिदानी हैं जिन्होंने कठोरतम प्रताड़ना सहकर भी अपने स्वत्व की रक्षा की है । किसी को आरे से चीरा गया, किसी को कोल्हू में पीसा गया किसी को रुई में बांधकर आग लगाई गई तो किसी कड़ाही में डालकर उबाला गया किंतु वे संकल्प से न डिगे ।
छत्रपति सम्भाजी महाराज ऐसे ही महान बलिदानी हैं । उन्हें इतनी क्रूरतम प्रताड़ना दी गयी जिसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती । उन्हें पढ़कर आज भी रोंगटे खड़े होते हैं । ऐसी प्रताड़ना का दौर एक माह तक चला था । पहले आँखे निकाली गई, अगले दिन जिव्हा काटी गई, शरीर पर चीरा लगाकर नमक मिर्ची भरी गई, फिर एक एक अंग काटा गया । उनपर दबाब था कि वे मतान्तरण स्वीकार कर लें । सनातन धर्म छोड़कर इस्लाम अपना लें । लेकिन वे न डिगे । और इस तरह की भीषण प्रताड़ना के साथ अंग अंग काटकर कचरे की तरह नदी में फेक दिया गया ।
ऐसे अमर बलिदानी वीर छत्रपति सम्भाजी राजे महाराज का जन्म 14 मई 1657 में हुआ था । वे कुल लगभग बत्तीस वर्ष इस संसार में रहे । उनकी शासन अवधि भले नौ वर्ष रही है । पर उनका अधिकांश युद्ध करते बीता । उनके जीवन का संघर्ष नौ वर्ष की आयु से आरंभ हुआ । तब वे नौ वर्ष के ही तो थे जब अपने पिता शिवाजी महाराज के साथ औरंगजेब की आगरा जेल में रहे थे । जेल से निकलने के साथ ही शिवाजी महाराज ने सुरक्षा कारणों से अपने इस नन्हें पुत्र को अपने से अलग कर दिया था । इस प्रकार वे संघर्ष के बीच ही बड़े हुये । उन्होंने अपने जीवन काल में 210 युद्ध किये और सभी युद्घ जीते । दक्षिण भारत से यदि मुगलों को खदेड़ा गया तो इसमे सम्भाजी राजे का शौर्य और कौशल ही रहा है । यह अलग बात है कि मराठों के बीच कुछ आतंरिक मतभेद हुये जिसमेँ आगे चलकर निजाम और अंग्रेज कुछ बलवती हुये थे । यह उनके शौर्य और पराक्रम की विशेषता थी कि औरंगजेब ने उनके राज्यारोहण के बाद सबसे ज्यादा ध्यान दक्षिण में दिया । मुगल सेना की चार चार टुकड़ियाँ दक्षिण में रहीं । और चार सरदारों से तब तक लौटकर न आने को कहा जब तक संभाजी महाराज का अंत न कर दिया जाये । मुगलों के इस अभियान से पूरा मराठा क्षेत्र मानों युद्ध स्थल बन गया था । फिर भी मुगलों को सफलता न मिली थी । और जब मिली तो वह एक ग़द्दार के कारण ।
संभाजी राजे ने बचपन से युद्ध कौशल और संघर्ष सीखा था । शत्रु को कैसे धता बताया जाता है वे अच्छी तरह जानते थे । यह सब उन्होंने अपने पिता से सीखे थे । वे उन विरले बालकों में से एक थे जिन्होंने केवल आठ वर्ष की आयु में शत्रु से युद्ध करना सीख लिया था । यद्यपि शिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद औरंगजेब ने उन्हें पंच हजारी मनसब देकर आधीनता स्वीकार करने का प्रस्ताव दिया था । औरंगाबाद में इसकी विधिवत घोषणा भी करदी गई थी । पर यशस्वी पिता के पुत्र सम्भाजी ने इसे अस्वीकार कर दिया था । वे भारत राष्ट्र की संस्कृति की रक्षा केलिये संकल्प बद्ध थे । और हिन्दवी स्वराज्य स्थापना के संघर्ष को आगे बढ़ाने के काम में लग गये ।
छत्रपति शिवाजी महाराज का निधन 3 अप्रैल 1680 को हुआ था । तब कुछ समय तक शिवाजीे महाराज के अनुज राजाराम को हिन्दु पदपादशाही पर सत्तारूढ़ कर दिया था । और अंत में 16 जनवरी 1681 को सम्भाजी महाराज का विधिवत्‌ राज्याभिषेक हुआ । इसी वर्ष औरंगजेब का एक विद्रोही पुत्र अकबर ने दक्षिण भारत भाग आया था । और संभाजी महाराज से शरण की याचना की । छात्रपति श्री सम्भाजी महाराज जितने वीर और पराक्रमी थे उतने भावुक भी उन्होंने शहजादे अकबर को अपने यहाँ शरण और सुरक्षा प्रदान की । इससे औरंगजेब और बौखलाया । यह वही शहजादा अकबर था जो संभाजी महाराज के बलिदान के बाद अपने परिवार के साथ राजस्थान चला गया था ।और वहाँ वीर दुर्गादास राठौर के संरक्षण में रहा । सम्भाजी महाराज ने चारों ओर मोर्चा लिया था । एक ओर मुग़लों से तो दूसरी ओर पोर्तगीज एवं अंग्रेज़ों से भी । इसके साथ अन्य आंतरिक शत्रु थे सो अलग । इतने संघर्ष के बीच उन्होंने मराठा साम्राज्य को विस्तार दिया ।
1689 पुर्तगालियों को पराजित करने के बाद वे से संगमेश्वर में वे व्यवस्था बनाने लगे । यहाँ से वे रायगढ़ जाने वाले थे । तभी कुछ ग्रामों से लोग आकर उनसे मिले और क्षेत्र में उनका सम्मान करने की इच्छा व्यक्त की । उनका आग्रह कुछ ऐसा था कि सम्भा जी टाल न सके । इसके लिये सम्भाजी महाराज अपने 200 सैनिक के साथ उस क्षेत्र की ओर चल दिये । उन्होंने शेष सेना रायगढ़ भेज दी । आमंत्रण की यह योजना एक षडयंत्र था । इसे एक गद्दार गणोजी शिर्के ने तैयार की थी । जब संभाजी महाराज ने सहमति दे दी तो उसने यह सूचना मुगल सरदार को भेज दी और रास्ता भी समझा दिया । मुग़ल सरदार मुकरब खान के साथ गुप्त रास्ते से 5,000 के फ़ौज के साथ वहां जा पहुंचा उसने पहले से सारी जमावट कर ली थी । यह वह रास्ता था जो सिर्फ मराठों को पता था। इसलिए सम्भाजी महाराज को कभी नहीं लगा था के शत्रु इस और से आ सकेगा । मार्ग सकरा था । उससे एक साथ नहीँ निकला जा सकता था । जमावट भी तगड़ी थी । इतनी बड़ी फौज के सामने 200 सैनिकों का प्रतिकार नहीं हो पाया और अपने मित्र कवि कलश के साथ 1 फरबरी 1689 को बंदी बना लिये गये ।
औरंगजेब ने दोनों की जुबान कटवा दी, आँखें निकाल दी । 11 मार्च 1689 को दोनों के शरीर के टुकडे कर के हत्या कर दी । उनको पीडा देने का काम एक महिने तक चला । उनको महिने भर तक तड़पाते रहे और अंत में उनके शरीर के सैकड़ो खंड करके प्राण ले लिये । इससे पहले औरंगज़ेब ने उन्हें अपना हिन्दुधर्म त्याग कर इस्लाम अपनाने की माँग रखी थी । लेकिन वह शिवाजी महाराज का बेटा था । अपने धर्मपर पुरी निष्ठा से डटे रहे । और सम्भा जी ने इस्लाम स्वीकार करने इंकार कर दिया । जब मुगल सैनिक यातनाएं देकर थक गए तब शरीर के टुकड़े टुकड़े कर दिये ।
कोटिशः नमन ऐसे बलिदानी वीर सम्भाजी महाराज को