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क्या मनबढ़ ट्रम्प के निर्णयों से दुनिया एक और शीत युद्ध की ओर बढ़ रही है?

आचार्य ललित मुनि

भारत और अमेरिका के बीच चल रही टैरिफ़ तनातनी के बीच 4 अगस्त 2025 को रूस ने औपचारिक रूप से घोषणा कर दी कि वह अब अंतर्मध्यम दूरी की परमाणु बलों (INF) संधि से बंधा नहीं रहेगा। यह संधि वर्ष 1987 में संयुक्त राज्य अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ के बीच हुई थी, जिसका उद्देश्य यूरोप में परमाणु हथियारों की होड़ पर अंकुश लगाना था।

इस संधि के अनुसार 500 से 5,500 किलोमीटर तक की दूरी की ज़मीन से दागी जाने वाली बैलिस्टिक और क्रूज़ मिसाइलों पर रोक लगा दी गई थी। इसके तहत दोनों देशों ने अपने-अपने मिसाइलों को नष्ट भी किया। लेकिन आज तीन दशक बाद, इस संधि का पूरी तरह से अंत हो चुका है। यह ट्रंप की हरकतों का सीधा-सीधा परिणाम दिखाई दे रहा है।

2019 में अमेरिका ने सबसे पहले इस संधि से हटने का निर्णय लिया था। अमेरिका ने रूस पर आरोप लगाया था कि वह इस संधि का उल्लंघन कर रहा है, विशेष रूप से 9M729 नामक मिसाइल के परीक्षण के माध्यम से। रूस ने इन आरोपों को खारिज किया, पर अब 2025 में उसने भी इस संधि को पूरी तरह छोड़ने की घोषणा कर दी है।

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इस फैसले का सीधा मतलब है कि अब रूस को किसी प्रकार की सीमाओं या प्रतिबंधों की परवाह किए बिना मध्यम दूरी की मिसाइलें विकसित और तैनात करने की छूट मिल गई है। ये मिसाइलें पारंपरिक और परमाणु दोनों तरह के वारहेड्स से लैस हो सकती हैं। विशेष रूप से ‘ओरेशनिक’ मिसाइलें, जिनकी गति और क्षमता इतनी अधिक है कि वे यूरोप की राजधानी शहरों को महज़ 15 मिनट में निशाना बना सकती हैं।

रूस ने यह कदम अमेरिका और नाटो द्वारा यूरोप व एशिया-प्रशांत क्षेत्र में मिसाइल तैनात करने की योजना के जवाब में उठाया है। अमेरिका ने हाल ही में घोषणा की है कि वह 2026 से जर्मनी में मध्यम दूरी की मिसाइलें तैनात करेगा, जिसे रूस अपने लिए एक बड़ा खतरा मानता है।

रूस के इस निर्णय का असर केवल यूरोप या अमेरिका तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह पूरे विश्व की सुरक्षा व्यवस्था और सामरिक संतुलन को प्रभावित करेगा। इस निर्णय से विश्व में परमाणु युद्ध का खतरा बढ़ गया है। रूस अब बेलारूस और कालिनिनग्राद जैसे क्षेत्रों में मिसाइलें तैनात कर सकता है, जो सीधे नाटो देशों को निशाने पर लेंगी। यूरोप के अमेरिकी सैन्य ठिकानों पर खतरा बढ़ जाएगा।

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अमेरिका और रूस के बीच एक बार फिर शीत युद्ध जैसी स्थिति बन सकती है। दोनों देश एक-दूसरे को पछाड़ने के लिए नई मिसाइल प्रणालियों के विकास में जुट सकते हैं। INF संधि का समाप्त होना एशिया-प्रशांत क्षेत्र के लिए भी चिंता का विषय है। ताइवान जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में अमेरिका को मिसाइलें तैनात करनी पड़ सकती हैं, जिससे चीन की प्रतिक्रिया और आक्रामक हो सकती है।

पश्चिम और रूस के बीच पहले से ही बिगड़े रिश्ते और अधिक तनावपूर्ण हो सकते हैं। रूस के पूर्व राष्ट्रपति डिमिट्री मेदवेदेव की चेतावनी—“आगे के कदम उठाए जाएंगे”—एक गंभीर संकेत है। INF संधि के बाद अब केवल न्यू START संधि बची है, जिसकी मियाद अगले वर्ष खत्म हो रही है। रूस पहले ही इसमें अपनी भागीदारी समाप्त कर चुका है, जिससे वैश्विक परमाणु हथियार नियंत्रण प्रणाली कमजोर होती जा रही है।

रूस और अमेरिका के इस रवैये से अन्य देश भी प्रेरित होकर अपने परमाणु कार्यक्रमों को गति दे सकते हैं। चीन पहले से ही इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है, और अब एक त्रिपक्षीय हथियार दौड़ (रूस, अमेरिका और चीन) की आशंका प्रबल हो गई है।

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भारत जैसे देशों के लिए यह स्थिति किसी सतर्कता की घंटी से कम नहीं है। भारत, जो परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र है, अब ऐसी अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में खुद को संतुलित रखना चाहेगा। शांति और स्थिरता भारत की प्राथमिकता है, लेकिन यदि दुनिया एक बार फिर हथियारों की होड़ में फंसती है, तो यह पूरे दक्षिण एशिया क्षेत्र के लिए चिंता का विषय होगा।

रूस का INF संधि से हटना केवल एक संधि से पीछे हटने की बात नहीं है, यह विश्व शांति व्यवस्था के लिए एक खतरे की घंटी है। यह कदम उस संतुलन को तोड़ सकता है जिसे दशकों की कूटनीतिक कोशिशों से बनाया गया था। रूस और अमेरिका के बीच अब एक बार फिर शीत युद्ध जैसी स्थिति बनने लगी है, जो कि विश्व के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं है।