आने वाली पीढ़ी को संकट से बचाने के लिये समाज में सकारात्मक पर जोर : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संवाद सत्र द्वितीय दिवस

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना के सौ वर्ष पूरे करने जा रहा है। अपने शताब्दी समागम के अंतर्गत संघ ने दिल्ली के विज्ञान भवन में तीन दिवसीय संवाद कार्यक्रम का आयोजन किया है। इस संवाद समागम में दूसरे दिन सरसंघचालक डाॅक्टर मोहन जी भागवत ने दूसरे दिन पूरे संसार में आने वाले उपभोक्तावाद के संकट से सचेत किया। उनका कहना था कि परिवार, समाज और देश ही नहीं पूरे संसार में भोगवाद की स्पर्धा बढ़ रही है। बढ़ता हुआ भोगवाद स्पर्धा को जन्म देता है और स्पर्धा नये संघर्ष को जन्म देती है।
भागवत जी की यह चेतावनी उस मानवीय मनोविज्ञान पर आधारित है जिसमें भोगवाद की प्रवृत्ति मनुष्य को अहंकारी बनाती है। और अहंकार ही परिवार समाज एवं दुनियाँ में संघर्ष का कारण बनता है। यदि इतिहास के पुराने महायुद्ध की घटनाओं को छोड़ दें तो भी बीसवीं शताब्दी के दोनों विश्व युद्ध केवल अपने अहंकार के विस्तार का प्रयास करने के कारण ही हुये। सरसंघचालक जी ने अपने संबोधन में इन दोनों महायुद्धों का उल्लेख करके सचेत किया कि जिस अहंकार से वे दोनों युद्ध हुये वह अहंकार समाप्त नहीं हुआ। इन दिनों भले विश्व युद्ध न चल रहा हो लेकिन संसार में युद्ध जैसी स्थिति है। जो आने वाली पीढ़ी के लिये ही नहीं पूरे विश्व की मानवता केलिये नया संकट है। इस संकट से बचने के एक मात्र उपाय धर्म आधारित
सकारात्मक सोच है। निसंदेह सरसंघचालक जी का यह कथन वर्तमान परिस्थिति में मानवता की रक्षा का सबसे सुगम उपाय है। लेकिन धर्म का अर्थ वह नहीं पश्चिमी जगत की अवधारणा है अथवा मध्य एशिया में जो स्वरूप उभरा। प्रकृति विविधता से भरी है। एक उपवन जितनी वनस्पति होती हैं सबके रंग रूप अलग होते हैं। एक वन में सभी प्राणियों के आकार प्रकार, भोजन रहने की शैली सब अलग होती है। वन और उपवन का सौन्दर्य उनकी विविधता में है तब कैसे सारे संसार के सभी मनुष्यों को एक रंग, भाषा भूषा में ढाला जा सकता है।
भारतीय दर्शन की यही विशेषता है। इसमें न एकसी पूजा पद्धति पर जोर है और न भाषा, भूषा, भोजन, भजन पर जोर है। सब अपनी पसंद के देव को अपना ईष्ट बनायें। केवल इतनी मर्यादा आवश्यक है कि हम अपने ईष्ट अपने आराध्य की पूजा उपासना तो करें लेकिन किसी अन्य की आस्था को ठेस न पहुँचे। सरसंघचालक जी ने अपने द्वितीय दिवस के संवाद में इस विविधता को संघर्ष का नहीं समन्वय की शक्ति बनाने का आव्हान किया और संकेत किया कि आज विश्व को इसी भारतीय दर्शन की आवश्यकता है। जिसमें धर्म केवल पूजा उपासना की कर्म क्रिया तक सीमित नहीं है। प्रकृति और मानवता केलिये जितने आदर्श कर्त्तव्य हैं, जितने धारणीय कर्त्तव्य हैं वे सब धर्म की परिभाषा में आते हैं। सरसंघचालक जी ने धर्म की यही शास्त्रोक्त व्याख्या अपने संवाद में की।
उन्होंने स्पष्ट किया कि धर्म सार्वभौमिक है। यह सृष्टि के आरम्भ से ही अस्तित्व में है और सृष्टि के रहने तक चलेगा। यह मनुष्य की बुद्धि पर निर्भर करता है कि वह उसे कितना मानता है, अथवा कितना जानता है। सरसंघचालक जी की यह बात अत्यंत सटीक है। व्यक्ति के जानने या मानने से सत्य पर कोई अंतर नहीं आता। कुछ शताब्दी पहले तक मनुष्य गुरुत्वाकर्षण शक्ति से अनभिज्ञ था। लेकिन यह शक्ति तो तब भी थी और प्रकृति के अस्तित्व बनाये रखने में उसकी भूमिका भी थी और आज भी है। मनुष्य को उसका ज्ञान हुआ तो उसका उपयोग करके जीवन को अधिक सुगम बनाने लगा। ठीक इसी प्रकार धर्म का विषय है। धर्म का वास्तविक अर्थ भारतीय चिंतन में है, इसके केन्द्र में संपूर्ण प्रकृति और प्राणी मात्र है। जड़ और चेतन का धारणीय कर्तव्य को धर्म माना है।
धरती, आकाश, पवन, वायु और अग्नि द्वारा जीवन संचालन उनका धर्म है। धर्म के इस वास्तविक दर्शन से ही संसार में शांति रहेगी, मानवता का विकास होगा। भागवत जी स्पष्ट किया कि पूरे विश्व को शांति और मानवता का विश्व धर्म समझाने के लिए हिंदू समाज का संगठित होना होगा। विश्व शांति केलिये धर्म सब जगह जाना चाहिए। लेकिन इसका अर्थ धर्मांतरण या “कनवर्सन” कतई नहीं है। धर्म में कनवर्सन होता भी नहीं है। धर्म तो शाश्वत है, मौलिक है, सत्य का तत्व है, जिसके आधार पर जीवन चलता है। पूजा उपासना जिसको जैसी करना हो, वह करे। लेकिन मानवीय और प्राकृतिक गुणों को सर्वोपरि रखकर ही करना चाहिए।
सरसंघचालक जी ने वैश्विक शांति और मानवता की रक्षा केलिये पाँच आधारभूत विन्दुओ॔ पर जोर दिया। इसमें पर्यावरण सुरक्षा, सामाजिक समरसता, कुटुम्ब परंपरा की रक्षा, दायित्व वोध और आत्म अनुशासन है। उन्होंने चेतावनी दी कि आर्थिक उन्नति की लालसा मानवीय मूल्यों और पर्यावरण दोनों की क्षरण कर रही है। भागवतजी की यह चेतावनी आज के संदर्भ में अति उपयुक्त है। व्यक्ति को प्रगति करना चाहिये, आर्थिक उन्नति भी करना चाहिए लेकिन इस प्रगति और आर्थिक उन्नति आधार क्या हो, आर्थिक प्रगति की अंधी रफ्तार न हो, इसमें अहंकार का भाव न हो, किसी अन्य के हितों का शोषण न हो। यदि ऐसा होगा तो यह मानवता के बीच असमानता पैदा करती है, द्वेष पैदा करती है, गरीब और अमीर का अंतर बढ़ाती है।
यह अंतर मानवीय मूल्यों के विरुद्ध होगा। इसलिये आर्थिक उन्नति में भी मानवता और पर्यावरण दोनों का संतुलन आवश्यक है। इसी बात पर भागवत जी ने जोर दिया। उन्होंने इस अंतर को स्पष्ट करते हुये पश्चिम और दक्षिण के देशों का उदाहरण भी दिया। दक्षिण के देशों की शिकायतों का उल्लेख भी किया। उन्होंने दो टूक शब्दों कहा कि इसपर चर्चा तो होती है लेकिन समाधान नहीं निकलता। इसका समाधान आत्म चिंतन से होगा। यही विशेषता भारतीय चितन की है। भारत संसार को तभी समाधान दे सकता है जब हिन्दु समाज जागरुक हो और संगठित हो। विश्व शांति केलिये सरसंघचालक जी ने हिन्दु समाज की जागरुकता और संगठन पर जोर दिया।
मोहन भागवत जी ने भारतीय समाज जीवन में उदारता और क्षमाशीलता की भी चर्चा की और कहा कि संसार मे शांति केलिये उदारता का यही भाव आना चाहिए, दूसरे के अस्तित्व, और सम्मान दोनों का ध्यान रखा जाना चाहिए। आज विश्व में अशांति और तनाव का जो वातावरण बढ़ रहा है वह असहिष्णुता के कारण है। इससे मुक्ति का मार्ग मानवता और विश्व बंधुत्व के भाव में है। यही भाव भारतीय चिंतन के मूल में। पूरे विश्व के कल्याण की इच्छा रखने का ऐसा दर्शन संसार में कहीं नहीं है। यह मानवीय और प्राकृतिक सिद्धांत के धर्म का ही अनुपालन है कि भारत ने किसी पर अपनी बात मानने का दबाव कभी नहीं बनाया, और न अपने मतानुसार जीवन जीने के लिये किसी को बाध्य किया।
भारत ने तो शत्रुओं को भी क्षमा किया है, आक्रमणकारियों को भी क्षमा किया है। क्षमाशीलता के इस भारतीय गुण का उल्लेख करते हुये भागवतजी स्पष्ट किया कि भारत ने हमेशा अपने नुकसान की अनदेखी करते हुए संयम बरता है। जिन्होंने भारत का नुकसान किया है, उनके साथ भी उदारता का व्यवहार किया, उनकी भी सहायता की है। व्यक्ति के अहंकार और देशों के अहंकार के कारण दुश्मनी होती है लेकिन भारत उस अहंकार के परे है।
मोहन भागवत जी ने प्रत्येक व्यक्ति के दृष्टिकोण में सकारात्मकता रखने का आव्हान किया। सकारात्मकता का यह चिन्तन ही समाज एवं संस्कृति को दीर्घजीवी बनाता है। हमारे दृष्टिकोण में भी सकारात्मकता और मौलिकता होनी चाहिए। देखकर और सुनकर राय बनाना हितकारी नहीं है। भागवत जी ने उदाहरण दिया कि भारतीय समाज जीवन में जितनी बुराई दिखती है। समाज में उससे 40 गुना ज्यादा अच्छाई हैं। लेकिन योजनापूर्वक कुछ लोग और कुछ मीडिया समूह केवल बुराइयों पर ही अपनी बात केन्द्रित करते हैं। यदि केवल मीडिया रिपोर्टों के आधार पर भारतीय का आकलन होगा तो यह अनुचित होगा। सुनकर राय बनाना और समझ कर राय बनाना दोनों में अंतर होता है। सुनकर केवल बुराइयों की चर्चा करने से आत्मविश्वास कम होता है जो प्रगति में बाधक है।
उन्होनें कहा कि हिन्दु विचार वसुधैव कुटुम्बकम वाला है। वह हर रास्ते को अच्छा मानता है। दुनियाँ धर्म के आधार पर जो दूरियाँ बढ़ रही हैं उन्हें दूर करने के लिए सभी ओर से प्रयास करने की जरूरत है। अपने संवाद में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विरोध का विन्दु भी लिया और कहा कि जितना विरोध संघ का हुआ, उतना विरोध किसी अन्य संगठन का नहीं हुआ, फिर भी यदि संघ बढ़ रहा है, संघ का समर्थन बढ़ रहा है तो इसके पीछे स्वयंसेवकों के मन में भारत राष्ट्र और समाज के प्रति प्रेम है। और अब समय के साथ विरोध की धार कम हुई है। उन्होंने सभी समाज जनों से यह भी आव्हान किया कि अच्छे लोगों से दोस्ती करें, उन लोगों को नजरअंदाज करें जो अच्छा काम नहीं करते। अच्छे कामों की सराहना करें, भले ही वे विरोधियों द्वारा किए गए हों। गलत काम करने वालों के प्रति क्रूरता नहीं, बल्कि करुणा दिखाए। उन्होंने समाज की निस्वार्थ सेवा करने पर जोर दिया और कहा कि निस्वार्थ सेवा में जो सार्थकता है उसका आनंद अलग होता है।
सरसंघचालक जी ने अपने समाज में संवादशीलता पर बहुत जोर दिया। और कहा कि समस्याओं का जैसा समाधान संवाद से मिलता है वैसा संघर्ष से नहीं मिलता। उन्होंने सामाजिक समरसता पर बहुत जोर दिया और कहा कि यह काम कठिन है लेकिन करना है। निसंदेश समाज विभाजन न तो भारतीय संस्कृति के मूल में है और न यह भारत राष्ट्र के हित में है। जो संस्कृति संपूर्ण वसुन्धरा के निवासियों को एक कुटुम्ब मानती है, सभी प्राणियों सद्भाव की प्रार्थना करती है भला उसमें सामाजिक विभाजन की रेखाएँ। अतीत के अनुभव और भविष्य की आवश्यकता को ध्यान में रखकर ही मोहन भागवत जी ने सामाजिक समरसता का आव्हान किया। सरसंघचालक जी के इस संवाद संबोधन में भारत के साँस्कृतिक गौरव, ज्ञान विज्ञान की विरासत और भविष्य में आने वाली सभी समस्याओं के समाधान की झलक है। उन्होंने किसी के प्रति किसी आलोचना अथवा नकारात्मक बात नहीं कही। सबको साथ लेकर चलने और सबसे संवाद की ही महत्ता समझाई जो आज परिवार, समाज और राष्ट्र सबको लिये आवश्यक है।