राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सौ वर्षीय यात्रा : विजयादशमी विशेष

भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में अनेक संगठन और आंदोलन उभरे, जिन्होंने समय-समय पर राष्ट्र की दिशा तय करने में भूमिका निभाई। लेकिन कुछ ही संस्थाएँ ऐसी हैं, जिन्होंने केवल संगठन का दायित्व निभाने के बजाय पूरे समाज की सोच और दृष्टिकोण को प्रभावित किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सौ वर्ष की यात्रा इसी बात का प्रमाण है।
सन 1925, भारत अब भी अंग्रेज़ी शासन के अधीन था। राजनीतिक आंदोलन ज़ोर पकड़ रहे थे, परंतु समाज अब भी जातीय विभाजन, हीन भावना और असंगठित स्थिति से ग्रस्त था। नागपुर के एक डॉक्टर, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, ने यह अनुभव किया कि यदि समाज बिखरा रहेगा, तो स्वतंत्रता का सपना अधूरा रहेगा। उनके मन में यह विचार अंकुरित हुआ कि केवल राजनीति नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक पुनरुत्थान भी आवश्यक है।
यही वह क्षण था जब विजयादशमी के दिन पाँच स्वयंसेवकों के साथ एक नई परंपरा की नींव पड़ी। तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यह कोई विशाल संगठन नहीं था, न ही इसमें बड़े संसाधन थे। थी तो केवल एक दृष्टि, एक संगठित, संस्कारित और आत्मगौरव से भरा समाज बनाने की।
संघ की सबसे बड़ी पहचान उसकी शाखा है। साधारण दिखने वाले खेल, व्यायाम, गीत और अनुशासन के माध्यम से यह केवल शारीरिक प्रशिक्षण ही नहीं देता, बल्कि जीवन के संस्कार भी गढ़ता है। शाखा में सूर्योदय से पहले का अनुशासन, समूह में खेलते समय सहयोग की भावना, गीतों में राष्ट्रभक्ति का ज्वार और बौद्धिक चर्चाओं में सामाजिक मुद्दों की समझ, ये सब मिलकर एक नई पीढ़ी तैयार करते हैं।
बहुतों को लगता है कि शाखा केवल व्यायाम का स्थान है, परंतु सच्चाई यह है कि यह एक ऐसा विद्यालय है जहाँ अनुशासन, नेतृत्व और सामूहिकता के बीज बोए जाते हैं। यही कारण है कि आज लाखों स्वयंसेवक अपने जीवन में समाज और राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना को आत्मसात किए हुए हैं।
संघ की यात्रा कभी आसान नहीं रही। स्वतंत्रता के आंदोलन के समय भी इसे संदेह और विरोध का सामना करना पड़ा। कई बार प्रतिबंध लगे, आलोचनाएँ हुईं, कठिनाइयाँ आईं। आपातकाल जैसे दौर में संगठन को दबाने की कोशिशें हुईं। किंतु हर बार संघ और सशक्त होकर उभरा।
इन संघर्षों ने संगठन को तोड़ा नहीं, बल्कि गढ़ा। यह विश्वास और भी दृढ़ हुआ कि जो कार्य समाज की भलाई के लिए किया जाता है, उसे कोई भी विपरीत परिस्थिति रोक नहीं सकती।
आज जब भी कहीं भूकंप, बाढ़, चक्रवात या महामारी जैसी आपदा आती है तो सबसे पहले स्वयंसेवकों की टोली वहाँ पहुँचती है। कोविड-19 काल इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जब संघ और उससे जुड़े संगठनों ने लाखों लोगों तक भोजन, दवाइयाँ और आवश्यक सामग्री पहुँचाई।
संघ का एक प्रमुख सूत्र है “नर सेवा ही नारायण सेवा।” यह केवल नारा नहीं, बल्कि हर स्वयंसेवक के जीवन का मंत्र है। शिक्षा के क्षेत्र में विद्या भारती के विद्यालय, स्वास्थ्य और ग्राम विकास के कार्यक्रम, वनवासी क्षेत्रों में सेवा भारती की पहल आदि संघ के सेवा विस्तार की झलक हैं।
भारत का समाज विविधताओं से भरा है। जाति, भाषा, परंपरा और आचार-व्यवहार में भिन्नता के बावजूद, यह एक सभ्यता का हिस्सा है। संघ का एक बड़ा कार्य रहा है सामाजिक समरसता को बढ़ावा देना।
महात्मा गांधी जब वर्धा में संघ के शिविर में आए, तो उन्होंने स्वयं देखा कि सभी स्वयंसेवक बिना किसी भेदभाव के साथ भोजन करते हैं। यह दृश्य उन्हें गहराई तक प्रभावित कर गया। यही भावना आज भी शाखाओं और सेवा कार्यों में जीवित है।
“एक मंदिर, एक शमशान, एक जलस्रोत” संघ का यह संदेश स्पष्ट करता है कि समाज तभी सशक्त होगा, जब उसमें कोई ऊँच-नीच या भेदभाव न रहे।
1936 में लक्ष्मीबाई केलकर ने “राष्ट्र सेविका समिति” की स्थापना की। यह संघ के समानांतर महिलाओं के लिए एक मंच है। सेविकाएँ आज शिक्षा, आत्मरक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक जागरूकता जैसे क्षेत्रों में सक्रिय हैं।
आज यह समिति लाखों महिलाओं को जोड़ चुकी है। महिलाओं की भागीदारी ने यह सिद्ध किया है कि राष्ट्र निर्माण केवल पुरुषों का कार्य नहीं, बल्कि नारी शक्ति के बिना अधूरा है।
भारत की संस्कृति अब केवल भारत की सीमाओं तक सीमित नहीं। हिंदू स्वयंसेवक संघ (HSS) के माध्यम से यह संगठन 80 से अधिक देशों में सक्रिय है। विदेशों में रहने वाले भारतीय मूल के लोग शाखाओं में भाग लेकर अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़े रहते हैं और “वसुधैव कुटुंबकम्” का संदेश फैलाते हैं।
2022 में अमेरिका में आयोजित हिंदू संस्कृति उत्सव में हज़ारों लोग शामिल हुए। यह इस बात का संकेत है कि भारतीय संस्कृति विश्व मंच पर सम्मान पा रही है और संघ इस सेतु का कार्य कर रहा है।
संघ ने आने वाले समय के लिए पाँच प्रमुख लक्ष्यों को सामने रखा है—
- परिवार प्रबोधन – परिवार भारतीय संस्कृति की धुरी है।
- पर्यावरण संरक्षण – प्रकृति ही जीवन का आधार है।
- सामाजिक समरसता – जाति-भेद से ऊपर उठकर समाज को जोड़ना।
- स्वदेशी और आत्मनिर्भरता – आर्थिक स्वतंत्रता की दिशा में कदम।
- नागरिक कर्तव्यों का पालन – राष्ट्र की शक्ति का आधार।
ये केवल नारे नहीं, बल्कि गहरे सामाजिक परिवर्तन के संकल्प हैं।
आज का समय आसान नहीं है। तकनीकी विकास ने जहाँ सुविधाएँ दी हैं, वहीं मूल्य-संरक्षण कठिन कर दिया है। उपभोक्तावाद और प्रतिस्पर्धा ने जीवन को भौतिकता की ओर मोड़ा है। वैश्वीकरण ने अवसर दिए हैं, परंतु सांस्कृतिक पहचान पर प्रश्न भी खड़े किए हैं।
इन परिस्थितियों में संघ की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। समाज को दिशा देना, युवाओं को जागरूक करना और संस्कृति को जीवित रखना यही सबसे बड़ी चुनौती है।
संघ का संकल्प है कि एक ऐसा भारत जो आत्मनिर्भर हो, संस्कारवान हो और विश्व को शांति का संदेश दे। हर स्वयंसेवक का जीवन इस बात का प्रमाण है कि छोटे-छोटे प्रयास भी बड़ा बदलाव ला सकते हैं। कोई आपदा में सहायता करता है, कोई शिक्षा का दीपक जलाता है, कोई ग्राम विकास में योगदान देता है, संघ का हर कदम राष्ट्र निर्माण की दिशा में है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 100 वर्ष की यात्रा केवल इतिहास की दास्तान नहीं है। यह आने वाले सौ वर्षों की प्रस्तावना है। यह एक ऐसा आंदोलन है जिसने समाज को आत्मगौरव का भाव दिया, सेवा और संगठन का मार्ग दिखाया और भविष्य की दिशा में संकल्प दिया।
यदि समाज संगठित रहे, परिवार संस्कारित हों और सेवा जीवन का आधार बने, तो कोई भी शक्ति भारत को विश्वगुरु बनने से नहीं रोक सकती। शताब्दी वर्ष का यह अवसर इस विश्वास को और प्रबल करता है। सभी को विजयादशी की हार्दिक शुभकामनाएं।