जगन्नाथ यात्रा का विशेष सांस्कृतिक महत्व
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प्रत्येक वर्ष आषाढ़ माह शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को सम्पूर्ण भारत में निकाली जाने वाली जगन्नाथ रथ यात्रा की परम्परा लगभग बारह सौ वर्ष पुरानी है । उड़िसा के पुरी में स्थित प्रसिद्ध मंदिर के संबध में मान्यता है कि राजा इंद्रद्युम्न ने शबर राजा से भगवान विष्णु के अवतार जगन्नाथ महाप्रभु की प्रतिमा प्राप्त कर 7वीं शताब्दी के लगभग मूल मंदिर में स्थापित किया, जिसका पुनरूद्धार 12वीं शताब्दी में गंगावंश के राजा अनंतवर्मन चोड़गंगदेव ने करवाया।
उन्हीं के शासनकाल में प्रथम रथयात्रा का आयोजन हुआ। स्कंदपुराण और पुरूषोत्तम महात्म्य में भी इसका वर्णन मिलता है । 7 जुलाई 2014 को प्रमुख तौर पर पुरी के साथ-साथ देशभर में और विदेशों में भी धार्मिक व सांस्कृतिक महत्व की रथयात्रा का आयोजन धूमधाम से किया जा रहा है । पुरी में यह यात्रा श्रीजगन्नाथ मंदिर से गुंडिचा मंदिर तक जाती है।
दस दिन चलने वाले यात्रा उत्सव में स्नान यात्रा, नेत्र उत्सव, बहुड़ा यात्रा, सुना बेशा आदि प्रमुख रीति-रिवाजों का निर्वहन होता है । प्रथम दिन जगन्नाथ महाप्रभु के साथ भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की पवित्र लकड़ी से बनी प्रतिमाओं को भव्य हस्तनिर्मित रथों पर विराजमान कर यह यात्रा निकाली जाती है। इन मूर्तियों को प्रत्येक 12 वर्ष में बदला जाता है जिसे नव कलेवर परम्परा कहते हैं। दसवें दिन यात्रा मंदिर में लौटकर पूर्ण होती है |
पौराणिक मान्यता के अनुसार ज्येष्ठ पूर्णिमा पर जगन्नाथ प्रभु का जन्मदिन होता है। इस दिन भगवान को बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ शाही स्नान कराया जाता है। स्नान से प्रभु को ज्वर हो जाता है इसलिए वे 15 दिन तक ओसरघर कहे जाने वाले विशेष कक्ष में एकांत विश्राम करते हैं । फिर प्रभु बाहर आते हैं और भाई-बहन के साथ नगर भ्रमण हेतु रथ पर सवार होकर निकलते हैं ।
पद्मपुराण के अनुसार प्रभु जगन्नाथ अपनी बहन और भाई के साथ अपनी मौसी के यहाँ गुडिचा में जाते हैं, वहाँ बीमार होने पर कुछ दिन विश्राम के उपरान्त रथों पर सवार होकर प्रजा से मिलने जाते हैं । एक किंवदन्ती यह भी है कि श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा जब मायके आती है तो नगर भ्रमण की इच्छा व्यक्त करती है, तब बलराम और श्रीकृष्ण उन्हें रथ पर लेकर जाते हैं।
श्रीजगन्नाथ पुरी में रथ यात्रा की तैयारियां अक्षय तृतीया से आरंभ हो जाती है, हर वर्ष अलग सज्जा से नए बनाए जाने वाले तीनों रथ में प्रभु का रथ नंदीघोष या कपिलध्वज, बलभद्र का रथ तालध्वज और सुभद्रा का रथ पद्मध्वज कहलाता है। तीनों रथों का रंगविन्यास क्रमशः लाल-पीला, लाल-हरा और लाल-नीला होता है। रथ पवित्र नीम और हांसी वृक्ष की लकड़ी से बनाए जाते हैं, किसी कील या धातु का उपयोग नहीं होता। इन रथों के निर्माण और इनके कारीगरों के लिए भी विशिष्ट विधान निर्धारित हैं । रथों को हजारों भक्त हाथों से रस्सी के माध्यम से खींचते हैं। कहा जाता है कि रथ खींचने से हजार यज्ञ का पुण्यलाभ मिलता है ।
लेखक साहित्यकार एवं संस्कृतिकर्मी हैं।