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आस्था, परंपरा और सामाजिक समरसता का प्रतीक भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा

आचार्य ललित मुनि

भगवान जगन्नाथ का धाम ओडिशा राज्य के तटवर्ती क्षेत्र में स्थित हिन्दुओं का प्राचीन, पवित्र और विश्व प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। यह मंदिर वैष्णव परम्परा का एक महत्वपूर्ण केंद्र है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण को समर्पित है। हिन्दू धर्म में इस मंदिर का विशेष महत्व है, क्योंकि इसे चार धामों (बद्रीनाथ, द्वारका, रामेश्वरम और पुरी) में से एक माना जाता है। हिन्दुओं की यह धार्मिक आस्था और कामना होती है कि वे जीवन में कम से कम एक बार भगवान जगन्नाथ के दर्शन अवश्य करें। इस मंदिर में तीन मुख्य देवताओं भगवान जगन्नाथ, उनकी बहन सुभद्रा और बड़े भाई बलभद्र (बलराम) की पूजा की जाती है। यह मंदिर न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि भारतीय संस्कृति, स्थापत्य कला और सामाजिक एकता का भी प्रतीक है।

इस मंदिर की सबसे प्रमुख विशेषता जगन्नाथ रथयात्रा है, जो न केवल भारत में बल्कि विश्व भर में प्रसिद्ध है। यह वार्षिक उत्सव आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को आयोजित होता है, जिसे रथदूज कहा जाता है और लाखों श्रद्धालु इसमें भाग लेते हैं। रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के रथों को भक्त खींचते हैं, और ऐसी मान्यता है कि रथ खींचने से सौ यज्ञ के बराबर पुण्य प्राप्त होता है।

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जगन्नाथ मंदिर का निर्माण कलिंग राजा अनंतवर्मन गंगदेव ने करवाया था। इस मंदिर का जगमोहन और विमान भाग उनके शासनकाल (1078-1148 ई.) में निर्मित हुआ था। बाद में, राजा अनंग भीमदेव ने 1147 ई. में मंदिर को इसके वर्तमान स्वरूप में ढाला।

इस मंदिर के निर्माण का उल्लेख ताम्रपत्रों में भी मिलता है, जो इसकी प्राचीनता और ऐतिहासिक महत्व को प्रमाणित करते हैं। मंदिर में जगन्नाथ की पूजा-अर्चना 1558 ई. तक निर्बाध रूप से चलती रही।

हालांकि, 1558 ई. में काला पहाड़ ने ओडिशा पर हमला किया और मंदिर के कुछ हिस्सों को नष्ट कर दिया। इस हमले के दौरान मूर्तियों को भी क्षति पहुंचाई गई और पूजा-अर्चना बंद कर दी गई। मूर्तियों को सुरक्षित रखने के लिए उन्हें चिलिका झील के एक गुप्त द्वीप पर छिपाया गया। बाद में, जब रामचंद्र देब ने खुर्दा में स्वतंत्र राज्य स्थापित किया, तब मंदिर और इसकी मूर्तियों की पुनर्स्थापना की गई। इस प्रकार, मंदिर ने कई ऐतिहासिक उतार-चढ़ाव देखे, फिर भी यह आज भी हिन्दू धर्म का एक प्रमुख केंद्र बना हुआ है।

जगन्नाथ मंदिर कलिंग स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। यह मंदिर लगभग चार लाख वर्ग फुट के विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है और चारदीवारी से घिरा हुआ है। मंदिर का मुख्य ढांचा 214 फुट (65 मीटर) ऊंचे पाषाण चबूतरे पर बना है, जिसके शिखर पर भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र (नीलचक्र) स्थापित है। यह चक्र अष्टधातु से बना है और इसे अत्यंत पवित्र माना जाता है। मंदिर की संरचना वक्ररेखीय (कर्विलिनियर) आकार की है, जो इसे एक विशिष्ट और भव्य रूप प्रदान करती है।

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मंदिर का जगमोहन और विमान भाग प्राचीन प्रस्तर निर्मित हैं, लेकिन काला पहाड़ द्वारा किए गए विध्वंस के चिह्न आज भी देखे जा सकते हैं। विशेष रूप से, मुख्य मंदिर के आमलक और जगमोहन की छत को नष्ट किया गया था, जिसका पुनर्निर्माण चूना-सुर्खी से किया गया। यह पुनर्निर्मित भाग प्रस्तर निर्मित भागों से भिन्न दिखाई देता है। मंदिर की भित्तियों पर अप्सराएं, वादक, भारसाधक, व्याल और मिथुन मूर्तियां स्थापित हैं, जो इसकी शिल्पकला की भव्यता को और बढ़ाती हैं।

मंदिर का मुख्य भवन एक 20 फुट (6.1 मीटर) ऊंची दीवार से घिरा हुआ है, और दूसरी दीवार मुख्य मंदिर को चारों ओर से सुरक्षित करती है। मंदिर के मुख्य द्वार के सामने एक सोलह किनारों वाला एकाश्म स्तंभ (अरुण स्तंभ) स्थित है, जो इसकी स्थापत्य कला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस द्वार की रक्षा दो सिंहों की मूर्तियां करती हैं। मंदिर के शिखर पर लाल ध्वज भगवान जगन्नाथ का प्रतीक माना जाता है, जो निरंतर हवा में लहराता रहता है।

मंदिर का समग्र स्वरूप एक पर्वत को घेरे हुए छोटी पहाड़ियों और टीलों के समूह जैसा प्रतीत होता है। इसके मण्डप और अट्टालिकाएं ऊंचाई में क्रमशः बढ़ती जाती हैं, जो इसे एक पिरामिडाकार संरचना प्रदान करती हैं। यह स्थापत्य शैली न केवल भव्य है, बल्कि यह भारतीय मंदिर वास्तुकला का एक अनुपम उदाहरण भी है।

जगन्नाथ रथयात्रा मंदिर का सबसे महत्वपूर्ण और विश्व प्रसिद्ध उत्सव है। यह यात्रा आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को प्रारंभ होती है और दस दिनों तक चलती है। इस दौरान देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु पुरी पहुंचते हैं। रथयात्रा में तीन रथों का उपयोग होता है—भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के लिए। ये रथ नारियल की लकड़ी से बनाए जाते हैं, जो अन्य लकड़ियों की तुलना में हल्की होती है और इसे आसानी से खींचा जा सकता है।

पुरी की जगन्नाथ रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के तीन भव्य रथ होते हैं, जिनकी बनावट, रंग, प्रतीक और संरचना पारम्परिक होती है। सबसे बड़ा रथ भगवान जगन्नाथ का होता है, जिसे नंदीघोष कहा जाता है। इस रथ का रंग लाल और पीला होता है। इसमें 16 पहिए होते हैं और इसकी ऊंचाई लगभग 13.5 मीटर होती है। इस रथ को 1100 मीटर कपड़े से सजाया जाता है। इसके घोड़ों के नाम शंख, बलाहक, श्वेत और हरिदाश्व हैं, जो सभी सफेद रंग के होते हैं। रथ का सारथी दारुक कहलाता है और इसकी रक्षा पक्षीराज गरुड़ करते हैं। इस रथ पर हनुमानजी और नरसिंह भगवान के प्रतीक अंकित रहते हैं। इसकी ध्वजा त्रिलोक्यवाहिनी कहलाती है और इसे खींचने के लिए प्रयुक्त रस्सी को शंखचूड़ कहा जाता है।

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भगवान बलभद्र का रथ तालध्वज कहलाता है। इसका रंग लाल और हरा होता है। इसमें 14 पहिए होते हैं और इसकी ऊंचाई लगभग 13.2 मीटर होती है। इस रथ को बनाने में 763 लकड़ी के टुकड़ों का उपयोग होता है। इसके घोड़े त्रिब्रा, घोरा, दीर्घशर्मा और स्वर्णनावा नामक होते हैं। रथ का सारथी मताली होता है और रक्षक वासुदेव माने जाते हैं। रथ पर महादेव का प्रतीक स्थापित किया जाता है। इसकी ध्वजा को उनानी कहते हैं।

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रथ यात्रा उत्सव भारतीय संस्कृति की एकता और समन्वय का प्रतीक है। रथयात्रा में सभी जातियों, वर्गों और समुदायों के लोग एक साथ भाग लेते हैं, जो सामाजिक समरसता को दर्शाता है। यह उत्सव भारत के विभिन्न हिस्सों में भी मनाया जाता है, जिससे यह एक राष्ट्रीय पर्व का रूप ले चुका है।

देवी सुभद्रा का रथ देवदलन कहलाता है। यह लाल और काले रंग का होता है। इसमें 12 पहिए होते हैं और इसकी ऊंचाई लगभग 12.9 मीटर होती है। इसे बनाने के लिए 593 लकड़ी के टुकड़ों का प्रयोग किया जाता है। इसके घोड़ों के नाम रोचिक, मोचिक, जिता और अपराजिता हैं। रथ का सारथी अर्जुन होता है और रक्षक जयदुर्गा मानी जाती हैं। इसकी ध्वजा को नदंबिक कहा जाता है और इसे खींचने वाली रस्सी को स्वर्णचूड़ा कहते हैं। इन तीनों रथों की विशेष बनावट और प्रतीकात्मकता इस रथयात्रा को न केवल धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण बनाती है, बल्कि यह शिल्प, स्थापत्य और सांस्कृतिक धरोहर का एक जीवंत रूप भी प्रस्तुत करती है।

रथयात्रा मुख्य मंदिर से शुरू होकर 2 किलोमीटर दूर स्थित गुंडिचा मंदिर तक जाती है। गुंडिचा मंदिर को भगवान जगन्नाथ की मौसी का मंदिर माना जाता है, जहां वे सात दिन तक विश्राम करते हैं। इस दौरान मंदिर की सफाई के लिए इंद्रद्युमन सरोवर से जल लाया जाता है। यात्रा के दौरान सबसे आगे बलभद्र का रथ, मध्य में सुभद्रा का रथ और अंत में अंत में जगन्नाथ का रथ होता है। सात दिन बाद, आषाढ़ शुक्ल दशमी को बहुड़ा यात्रा के रूप में भगवान मुख्य मंदिर में वापस लौटते हैं। इस यात्रा में लाखों भक्त शामिल होते हैं, और रथ खींचने के लिए श्रद्धालुओं का उत्साह देखते ही बनता है।

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स्कंद पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में रथयात्रा का वर्णन मिलता है। धार्मिक मान्यता है कि रथयात्रा में शामिल होने और रथ के शिखर के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है। स्कंद पुराण के अनुसार, आषाढ़ मास में पुरी तीर्थ में स्नान करने से सभी तीर्थों के दर्शन का पुण्य प्राप्त होता है, और भक्त को शिवलोक की प्राप्ति होती है।

जगन्नाथ मंदिर और रथयात्रा न केवल धार्मिक, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण हैं। यह उत्सव भारतीय संस्कृति की एकता और समन्वय का प्रतीक है। रथयात्रा में सभी जातियों, वर्गों और समुदायों के लोग एक साथ भाग लेते हैं, जो सामाजिक समरसता को दर्शाता है। यह उत्सव भारत के विभिन्न हिस्सों में भी मनाया जाता है, जिससे यह एक राष्ट्रीय पर्व का रूप ले चुका है।

मंदिर की स्थापत्य कला और रथयात्रा की परंपराएं भारतीय कला, शिल्प और धार्मिक परंपराओं का अनूठा संगम हैं। रथों का निर्माण, उनकी सजावट और यात्रा की व्यवस्था में स्थानीय कारीगरों और समुदाय की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह उत्सव स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी बढ़ावा देता है, क्योंकि लाखों पर्यटक और श्रद्धालु पुरी पहुंचते हैं।

जगन्नाथ मंदिर का प्रबंधन श्री जगन्नाथ मंदिर प्रशासन द्वारा किया जाता है। मंदिर में कई परंपराएं और अनुष्ठान प्रचलित हैं, जैसे नित्य पूजा, भोग और आरती। मंदिर में भगवान जगन्नाथ को 56 भोग चढ़ाए जाते हैं, जो एक विशेष परंपरा है। इसके अलावा, मंदिर में समय-समय पर विभिन्न उत्सव और मेले आयोजित होते हैं, जो इसे जीवंत बनाए रखते हैं।

जगन्नाथ मंदिर और उसकी रथयात्रा भारतीय संस्कृति और धर्म का एक अनमोल रत्न हैं। यह मंदिर न केवल हिन्दुओं के लिए एक पवित्र तीर्थ है, बल्कि यह विश्व भर में अपनी स्थापत्य कला और सांस्कृतिक महत्व के लिए जाना जाता है। रथयात्रा का उत्साह, भक्ति और सामाजिक एकता का संगम इसे एक अनूठा उत्सव बनाता है। यह मंदिर और उसकी परंपराएं हमें भारतीय संस्कृति की गहराई और समृद्धि का दर्शन कराती हैं।