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पंडित रामदयाल तिवारी: छत्तीसगढ़ के भूले-बिसरे साहित्यिक नायक

स्वराज करुण 
(ब्लॉगर एवं पत्रकार )

छत्तीसगढ़ की धरती पर अनेक ऐसी विभूतियों ने जन्म लिया, और देश तथा समाज के हित में काम करते हुए हमेशा के लिए यादगार बनकर दुनिया से चले गए। लेकिन उन्हीं विभूतियों के महत्वपूर्ण कार्यों की यादगार निशानियाँ आज धुंधली होती जा रही हैं। तेज रफ़्तार आधुनिकता के इस दौर में समाज उन्हें भूलता जा रहा है। पंडित रामदयाल तिवारी भी ऐसी यादगार विभूतियों में से एक थे, लेकिन सवाल यह है कि हमारी पीढ़ी के कितने लोग आज पण्डित रामदयाल तिवारी को जानते हैं? वही रामदयाल तिवारी, जो छत्तीसगढ़ के माटी पुत्र थे, और जिन्होंने महात्मा गांधी के जीते जी, उनके जीवन दर्शन की बेबाक समीक्षा करते हुए हिन्दी में ‘गांधी मीमांसा’ और अंग्रेजी में ‘गांधीज्म एक्सरेड’ शीर्षक से दो विशाल ग्रंथों की रचना की। लगभग 850 पेज के महाग्रंथ ‘गांधी मीमांसा’ की रचना उन्होंने एक सड़क दुर्घटना में घायल होने के बाद भी बिस्तर पर बैठकर की थी। वह स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे। लेकिन अफ़सोस कि देश और समाज के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन लगा देने वाले ऐसे महान तपस्वियों को हम लोग, पता नहीं क्यों, अक्सर भूल जाते हैं। वक़्त भी उनसे जुड़ी स्मृतियों पर धूल की परतें चढ़ा देता है। लेकिन आइए, आज हम धूल की इन परतों को हटाकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कर्मठ सिपाही और साहित्यकार पंडित रामदयाल तिवारी को याद करें, जिनकी आज 133वीं जयंती है।

साहित्य राष्ट्र के दिल का खज़ाना

“राष्ट्र अपना मुख साहित्य के दर्पण में ही देखता है। साहित्य राष्ट्र के दिल का खजाना है।” ये पंक्तियां छत्तीसगढ़ के महान लेखक और चिन्तक स्वर्गीय पंडित रामदयाल तिवारी की हैं, जो उन्होंने वर्ष 1930 में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में नागपुर में आयोजित अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन में प्रमुख वक्ता की आसंदी से व्यक्त की थीं। महात्मा गांधी के जीवनकाल में उनके सम्पूर्ण जीवन-दर्शन की गहन समीक्षा करके हिन्दी में ‘गांधी मीमांसा’ और अंग्रेजी में ‘गांधीज्म एक्सरेड’ जैसे विशाल ग्रंथों की रचना करने वाले तिवारीजी का जन्म 23 जुलाई 1892 को छत्तीसगढ़ की वर्तमान राजधानी रायपुर में हुआ था, और निधन भी अपने गृहनगर रायपुर में हुआ। यहाँ के दाऊ कल्याण सिंह अस्पताल में 21 अगस्त 1942 को जब उनका देहावसान हुआ, उस समय वह सिर्फ़ 50 वर्ष के थे। लेकिन इतनी अल्पायु में ही वह देश के हिन्दी जगत को अपनी प्रकाशित, अप्रकाशित रचनाओं की विशाल और अनमोल धरोहर सौंप गए। उन्हें हिन्दी साहित्य के ‘समर्थ समालोचक’ जैसी अघोषित उपाधि उस जमाने की लोकप्रिय पत्रिका ‘माधुरी’ से मिली थी।

अब एक भूले-बिसरे लेखक का नाम है रामदयाल तिवारी

उनके सुपुत्र लखनलाल तिवारी वर्ष 1973 में रायपुर छोड़कर मुम्बई चले गए। अब रायपुर में उनके परिवार का कोई नहीं रहता। रामदयाल तिवारी अब सिर्फ एक भूले-बिसरे लेखक का नाम है। हरि ठाकुर और उनके सुपुत्र आशीष सिंह के अलावा, शायद विगत कई दशकों में उन्हें किसी ने शिद्दत से याद किया हो, मुझे याद नहीं! हरि ठाकुर तो 3 दिसम्बर 2001 को दुनिया छोड़ गए, लेकिन उन्होंने अपने विशाल ग्रंथ ‘छत्तीसगढ़ गौरव गाथा’ में छत्तीसगढ़ की महान विभूतियों पर अपनी लेखमाला में रामदयाल तिवारी पर भी एक विस्तृत लेख लिखा है। यह विशाल ग्रंथ (छत्तीसगढ़ गौरव गाथा) ठाकुर साहब के मरणोपरांत उनके सुपुत्र आशीष सिंह की मेहनत से वर्ष 2003 में प्रकाशित हुआ। इसके अलावा आशीष सिंह ने बड़ी मेहनत से वर्ष 2012 में तिवारीजी के चर्चित महाग्रंथ ‘गांधी मीमांसा’ का एक संक्षिप्त संस्करण प्रकाशित करवाया, और 2017 में उनकी 125वीं जयंती पर स्मारिका प्रकाशित की।

लैम्प पोस्ट की रौशनी में की पढ़ाई, बने साहित्य का लैम्प पोस्ट

हरि ठाकुर लिखते हैं, “तिवारीजी के पिता रामबगस तिवारी प्राथमिक स्कूल के अध्यापक थे। रामदयाल तिवारी का बाल्यकाल अत्यंत गरीबी में बीता। ट्यूशन करके वे अपनी फीस और किताबों के लिए पैसे जुटा पाते थे। गरीबी का यह आलम था कि उन्हें रात्रि में घर के पास लगे म्युनिसिपल के लैम्प पोस्ट के नीचे बैठकर उसके उजाले में अध्ययन करना पड़ता था। तब कौन जानता था कि म्युनिसिपल के लैम्प पोस्ट के उजाले में पढ़ने वाला बालक एक दिन हिन्दी साहित्य में समालोचना का अत्यंत प्रकाशवान लैम्प पोस्ट बन जाएगा?”

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अध्यापन से वकालत और लेखन

पण्डित रामदयाल तिवारी ने वर्ष 1911 में बी.ए. की परीक्षा पास की। वह वकालत की पढ़ाई करना चाहते थे, लेकिन उसी वर्ष उनके पिता का निधन हो जाने पर परिवार का दायित्व उनके कंधों पर आ गया। उन्होंने रायगढ़ के स्टेट हाई स्कूल में अध्यापन किया। वेतन से थोड़ी-थोड़ी राशि बचाकर उन्होंने वकालत की पढ़ाई पूरी की, और वर्ष 1915 से रायपुर में वक़ालत का अपना व्यवसाय शुरू किया। यहाँ उन्हें पण्डित माधवराव सप्रे, ठाकुर प्यारेलाल सिंह, और मावली प्रसाद श्रीवास्तव जैसे विद्वान साहित्यिकों का सानिध्य मिला। उनके लेख हितवाद, मॉडर्न रिव्यू, और हिन्दू आदि पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे। हरि ठाकुर के अनुसार हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, ओड़िया, बांग्ला, मराठी, और उर्दू भाषाओं पर तिवारीजी का समान अधिकार था। वे मूलतः अंग्रेजी के लेखक थे। हिन्दी में लिखना उन्होंने बहुत बाद में आरंभ किया था। वर्ष 1930 के बाद उन्होंने अपना सारा ध्यान हिन्दी लेखन पर केन्द्रित किया।

राष्ट्रीय आंदोलनों में सक्रिय भूमिका

वक़ालत के साथ-साथ तिवारीजी रायपुर के सावर्जनिक जीवन में भी सक्रिय रहते थे। स्वतन्त्रता संग्राम के उस दौर में यहाँ वर्ष 1930 से 1932 के बीच राष्ट्रीय आंदोलनों में भी तिवारीजी काफी सक्रिय थे। जून 1930 के अंतिम सप्ताह में आंदोलन के दौरान ठाकुर प्यारेलाल सिंह और कई अन्य नेताओं को गिरफ़्तार किया गया। इन गिरफ्तारियों के विरोध में हजारों की संख्या में लोगों ने प्रदर्शन किया। शाम को धारा 144 के बावजूद आम सभा हुई, जहाँ तिवारीजी ने जनता को सम्बोधित करते हुए अंग्रेज हुकूमत की दमनात्मक कार्रवाई की कड़े शब्दों में निन्दा की। वर्ष 1930 में ही बंदी सत्याग्रहियों के स्वागत के लिए रायपुर रेल्वे स्टेशन पर इकट्ठा हुए हजारों लोगों पर पुलिस ने बेरहमी से लाठीचार्ज किया, जिसकी जांच के लिए गठित नागरिकों की समिति में तिवारीजी प्रमुख सदस्य थे। उन्होंने नगर में घूम-घूमकर घायलों के बयान लिए, उनके इलाज का इंतज़ाम किया, और समिति को अपनी विस्तृत रिपोर्ट सौंपी। रायपुर में 15 अप्रैल 1930 को आयोजित प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में पण्डित रामदयाल तिवारी ने स्वागताध्यक्ष का दायित्व बखूबी निभाया।

सड़क दुर्घटना में घायल, फिर भी बिस्तर पर बैठकर लिखा महाग्रंथ

पण्डित रामदयाल तिवारी ने सड़क दुर्घटना में घायल होने के बावज़ूद बिस्तर पर बैठकर महात्मा गाँधी के जीवन-दर्शन की समीक्षा करते हुए वर्ष 1935 में लगभग 850 पन्नों के विशाल ग्रन्थ ‘गांधी-मीमांसा’ की रचना की थी। आज भले ही वर्तमान पीढ़ी के स्मृति पटल पर उनकी यादें धुँधली पड़ गयी हों, लेकिन वर्ष 1941 में 36 अध्यायों के इस महाग्रंथ के प्रकाशित होते ही छत्तीसगढ़ के ये लगभग अल्पज्ञात लेखक देश भर के विद्वानों के बीच चर्चा का केंद्र बन गए थे, क्योंकि हरि ठाकुर के शब्दों में, “इस ग्रंथ की रचना के समय गाँधीजी अपनी ख्याति के चरम शिखर पर थे। उनको लेकर लोक-जीवन में अनेक दंतकथाएँ प्रचलित थीं। उस समय जो भी लिखा जा रहा था, अधिकांश रचनाएँ स्तुति परक थीं। उनके विचारों को लेकर तर्क-वितर्क करने का साहस किसी नेता या लेखक में नहीं था। ऐसे समय में तिवारीजी ने ‘गांधी-मीमांसा’ की रचना इस दावे के साथ की कि अंध श्रद्धा और अनुदारता, दोनों से परे होकर विचार करने वाले गांधी साहित्य का निर्माण होने को है। प्रस्तुत ग्रन्थ इस दिशा में किया गया पहला प्रयास है।”

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महात्मा गांधी के आदर्शों का विवेचन: गांधी मीमांसा

तिवारीजी की 125वीं जयंती पर 23 जुलाई 2017 को हरि ठाकुर स्मारक संस्थान रायपुर द्वारा आशीष सिंह के सम्पादन में उन पर केन्द्रित स्मारिका प्रकाशित की गयी थी। स्मारिका के प्रकाशकीय वक्तव्य में आशीष सिंह ने लिखा है, “गांधी मीमांसा महात्मा गांधी के सिद्धांतों, आदर्शों, और कार्यक्रमों का ऐसा विवेचन है, जिसमें पण्डित रामदयाल तिवारी ने जहाँ एक ओर गांधीजी की दिल खोलकर प्रशंसा की है, वहीं वे जहाँ कहीं महात्मा जी से असहमत हुए, बिना भय के अपनी बेबाक राय रखी। गांधी मीमांसा में कुछ स्थानों पर पूरी श्रद्धा और शालीनता के साथ महात्मा गांधी की कटु आलोचना भी है।” आशीष आगे लिखते हैं, “राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को भला कौन नहीं जानता? पर उन्हें जानने योग्य जिस पण्डित रामदयाल तिवारी ने बनाया, वे आज अनजान हैं। गुप्तजी की ‘साकेत’ और ‘यशोधरा’ की समालोचना तिवारीजी ने की थी, जो ‘माधुरी’ में प्रकाशित हुई थी। उस समीक्षा ने ही हिन्दी साहित्य जगत का ध्यान गुप्तजी की ओर आकृष्ट किया था।”

स्मारिका के अपने प्रकाशकीय आलेख में आशीष ने बहुत व्यथित होकर लिखा है, “सच में पण्डित रामदयाल तिवारी का समुचित मूल्यांकन आज तक नहीं हो पाया है। इसमें दुर्भाग्य उनका नहीं है। दुर्भाग्य हमारा है। हमने उनके लिए ऐसा कुछ भी नहीं किया कि उनकी ख्याति देशव्यापी हो सके। अपने समय के दिग्गज अख़बार ‘मॉडर्न रिव्यू’ के सम्पादक ने तिवारीजी की अनमोल कृति ‘गांधीज्म एक्सरेड’ (अब लुप्त) की पांडुलिपि को पढ़कर पत्र लिखा था कि यदि यह छप जाए, तो इंग्लैंड और अमेरिका का दृष्टिकोण बदल जाएगा। अर्थात् वो मानते थे कि तिवारीजी की लेखनी में वो दम-खम है, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित होने की क्षमता रखती है। कैसा दुर्भाग्य है कि ऐसे सामर्थ्यवान विद्वान को आज छत्तीसगढ़ नहीं जानता!”

समर्थ समालोचक के नाम से हुए प्रसिद्ध

तिवारीजी को समर्थ समालोचक के नाम से प्रसिद्धि क्यों मिली, इस बारे में हरि ठाकुर ने अपने एक आलेख में लिखा है, “सन 1932-33 और 1934 में उनके अनेक समालोचनात्मक निबन्ध ‘माधुरी’ में प्रकाशित हुए। उनमें से एक निबन्ध का शीर्षक ‘समर्थ समालोचक’ था। उनका यह निबन्ध ‘माधुरी’ के दो अंकों में 15 पृष्ठों में प्रकाशित हुआ था। इसके पूर्व समालोचना विधा पर इतनी गंभीरता और विस्तार से कभी चर्चा नहीं हुई थी। यह सच है कि पण्डित माधवराव सप्रे ने ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ में हिन्दी समालोचना की बुनियाद रखी, किन्तु उनके पास समालोचना के मानदंडों पर विस्तारपूर्वक विचार करने का अवसर न था। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए कार्य को पूरा करने का कार्य पण्डित रामदयाल तिवारी ने किया। प्रेमचंद और निराला जैसे शीर्षस्थ साहित्यकार जिनकी समालोचना का लोहा मानते थे, उन्हें यदि ‘माधुरी’ जैसी उत्कृष्ट पत्रिका ने ‘समर्थ समालोचक’ की उपाधि से विभूषित किया, तो यह अत्यंत स्वाभाविक ही था।”

पण्डित रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ के अनुसार तिवारीजी का यह लेख आदर्श साहित्य समालोचना धर्म का दस्तावेज है। माधुरी ने उन्हें समर्थ समालोचक की उपाधि दे ही दी थी। निराला भी पण्डित रामदयाल तिवारी के उन लेखों की विवेचनात्मक पकड़ के प्रशंसक थे। प्रेमचंद ने बनारसीदास चतुर्वेदी को अपने एक इंटरव्यू में ‘भविष्य किनका है’ प्रश्न के उत्तर में भविष्यवान समालोचक के रूप में तिवारीजी की बड़ी प्रशंसा की थी। यह इंटरव्यू अंग्रेजी दैनिक ‘लीडर’ में प्रकाशित हुआ था।

तिवारीजी का अंग्रेजी महाग्रंथ: गांधीज्म एक्सरेड

तिवारीजी ने हिन्दी में ‘गांधी मीमांसा’ के बाद अंग्रेजी में एक महाग्रन्थ ‘गांधीज्म एक्सरेड’ लिखा, जो 6 खण्डों, 35 अध्यायों, और 80 शीर्षकों में था। हरि ठाकुर के अनुसार गांधी मीमांसा का लेखन समाप्त कर तिवारीजी को संतोष नहीं हुआ। गांधीजी और उनके विचारों को लेकर वे अधिक व्यापक धरातल पर उन्हें प्रतिष्ठित करना चाहते थे। अतः उन्होंने अंग्रेजी में गांधीज्म एक्सरेड नामक अति विशाल ग्रंथ का निर्माण किया, जो ‘गांधी मीमांसा’ का अंग्रेजी अनुवाद नहीं, बल्कि उसका स्वतंत्र रूप से किया गया विकसित रूप है। यह विशाल ग्रंथ तिवारीजी के निधन के बाद दुर्भाग्यवश प्रकाशित नहीं हो पाया। हरि ठाकुर का मत है कि छपने पर ‘गांधीज्म एक्सरेड’ एक हज़ार पृष्ठों से भी अधिक आकार ग्रहण करता, किन्तु तिवारीजी के असमय निधन के कारण यह महत्वपूर्ण ग्रंथ प्रकाश में नहीं आ सका।

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विद्वानों की सम्मतियाँ

लेकिन इस पुस्तक की पांडुलिपि पर दादा धर्माधिकारी, आचार्य काका कालेलकर, आचार्य पी.सी.राय, पण्डित जवाहरलाल नेहरू, और बाबू राजेन्द्र प्रसाद जैसी महान विभूतियों ने जो सकारात्मक टिप्पणियाँ भेजी थीं, वे बहुत महत्वपूर्ण हैं। नेहरूजी ने लिखा था, “यह पुस्तक गांधीजी के विभिन्न रुचिपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डालती है। ऐसी पुस्तकों का हम स्वागत करते हैं। यह पुस्तक यदि मैं लिखता, तो सर्वथा भिन्न ढंग से लिखी जाती। मैं यह मानता हूँ कि गांधीजी पर विभिन्न दृष्टिकोणों से लिखा जाना चाहिए। यह पुस्तक हमारे विचारों को उत्तेजित करती है।”

दादा धर्माधिकारी ने लिखा, “गांधीजी के मूल्यांकन को लेकर अनेक स्थलों पर मेरी आपसे मतभिन्नता हो सकती है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि गांधीजी के प्रति आपके हृदय में कोई दूषण या पूर्वाग्रह है। आपके गांधीजी के साथ जो मतभेद हैं, वे सैद्धांतिक हैं। आश्चर्य इस तथ्य में नहीं कि आपने गांधीजी के दृष्टिकोण का निर्भयता के साथ विश्लेषण और आलोचना की है, बल्कि इसमें है कि आपने गांधीजी के प्रति अगाध प्रेम व्यक्त करते हुए उन्हें इस युग का सबसे बड़ा मसीहा माना है। इन सुन्दर पृष्ठों को पढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति आपकी स्पष्टवादिता, निष्पक्षता, और शालीनता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इस भावना से की गयी आलोचना का मैं न केवल स्वागत करता हूँ, बल्कि उसमें सहयोग भी देने को तैयार हूँ। कुल मिलाकर गांधीजी के विचारों तथा कार्यक्रमों को लेकर उनके सैद्धांतिक आधारों की आपकी उदारतापूर्ण आलोचना अपने प्रकार का अकेला प्रयास है।”

काका कालेलकर का अभिमत था, “‘गांधीज्म एक्सरेड’ की पांडुलिपि पढ़कर लगा कि यह एक शानदार प्रस्तुति है। एक समाजशास्त्री की दृष्टि से आपने विषय का प्रतिपादन किया है। यदि आलोचना मैत्रीपूर्ण हो और मित्र आलोचक हों, तो गांधीजी भारत की बेहतर सेवा कर सकते हैं।” बाबू राजेन्द्र प्रसाद की टिप्पणी थी, “लेख अत्यंत सुंदर और वैज्ञानिक ढंग से लिखे गये हैं। आपने बहुत ही ध्यानाकर्षक और विचारोत्तेजक पुस्तक लिखी है।”

वर्ष 1936-37 में तिवारीजी ने विद्यार्थियों के लिए ‘हमारे नेता’ और ‘स्वराज्य प्रश्नोत्तरी’ शीर्षक से दो किताबें लिखीं। इनका प्रकाशन तो हुआ, लेकिन उन्होंने ‘कांग्रेस का इतिहास’ नामक ग्रंथ भी लिखा था, जो छपने के लिए इलाहाबाद के एक प्रेस में दिया गया था, लेकिन उनके देहावसान के बाद वह ग्रंथ भी लापता हो गया।

तिवारीजी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए हरि ठाकुर लिखते हैं, “गांधीजी और उनके कार्यक्रमों पर उन्हें अटूट श्रद्धा थी। कोहनी पर लटकती आस्तीन वाली कमीज या कुरता और खादी की धोती, यही उनकी वेशभूषा थी। श्यामल किन्तु पानीदार चेहरे से गंभीरता टपकती थी। घनी मूंछों ने उनके चेहरे को रुआबदार बना दिया था। सब मिलाकर उनका व्यक्तित्व सरल, किन्तु आकर्षक था। उनके व्यक्तित्व से मोहित होकर सुप्रसिद्ध चित्रकार पण्डित गणेशराम मिश्र ने उनका एक जीवंत चित्र बनाया था। वही एकमात्र चित्र है, जो उपलब्ध है। तिवारीजी को कभी फोटो खिंचवाने की न फिक्र थी, न फ़ुरसत।”

आलेख: स्वराज करुण

(यह आलेख स्वर्गीय हरि ठाकुर की पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ गौरव गाथा’ और ‘समर्थ समालोचक रामदयाल तिवारी 125वीं जयंती स्मारिका’ के तथ्यों और आलेखों पर आधारित है।)