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श्रद्धा, संयम और ईश्वर-भक्ति का पावन पर्व : रमा एकादशी

आचार्य ललित मुनि

रमा एकादशी का पर्व भारतीय संस्कृति में श्रद्धा, संयम और भक्ति का अनुपम प्रतीक है। यह केवल एक व्रत नहीं, बल्कि आत्मा की साधना और ईश्वर से मिलन का अवसर है। इस दिन भक्त भगवान विष्णु तथा माता लक्ष्मी की आराधना में लीन हो जाते हैं। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को मनाया जाने वाला यह व्रत अत्यंत पुण्यदायी माना गया है। ‘रमा’ शब्द स्वयं लक्ष्मी का रूप है, इसलिए यह तिथि विष्णु–लक्ष्मी दोनों की संयुक्त उपासना का दिन भी कही जाती है।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार रमा एकादशी के व्रत से व्यक्ति के बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। चातुर्मास की यह अंतिम एकादशी होती है, इसलिए इसे विशेष रूप से पवित्र और शुभ माना गया है। इस वर्ष अर्थात 2025 में रमा एकादशी का व्रत 17 अक्टूबर को रखा गया है। पंचांग के अनुसार एकादशी तिथि 16 अक्टूबर की सुबह 10 बजकर 35 मिनट पर आरंभ होकर 17 अक्टूबर की सुबह 11 बजकर 12 मिनट पर समाप्त हुई। उदय तिथि के अनुसार इसका व्रत 17 अक्टूबर को ही मान्य रहा।

इस एकादशी की कथा का उल्लेख अनेक पुराणों में मिलता है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में राजा मुचुकुंद नामक एक धर्मनिष्ठ शासक थे। वे सत्यप्रिय, दयालु और विष्णुभक्त थे। उनकी एक पुत्री थी चंद्रभागा। उसका विवाह शोभन नामक राजकुमार से हुआ था। मुचुकुंद के राज्य में यह नियम था कि कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी को राज्य का कोई भी व्यक्ति अन्न और जल ग्रहण नहीं करेगा। जब यह दिन आया तो शोभन ने देखा कि सब लोग निर्जला उपवास कर रहे हैं। वे स्वभाव से दुर्बल थे, अतः इस व्रत का पालन कर पाना उनके लिए कठिन था। उन्होंने अपनी पत्नी चंद्रभागा से कहा कि उनका शरीर इतना दुर्बल है कि वे बिना अन्न-जल के रह नहीं सकते।

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चंद्रभागा ने उन्हें समझाया कि पिता के राज्य में इस नियम का उल्लंघन नहीं किया जा सकता, और यह व्रत परम पुण्यदायी है। शोभन ने अंततः निश्चय किया कि वे भी व्रत करेंगे, चाहे कुछ भी हो जाए। उन्होंने पूरे श्रद्धा और विश्वास के साथ व्रत आरंभ किया, परंतु दुर्बल शरीर उपवास सह नहीं सका। रात्रि में जागरण और उपासना के पश्चात द्वादशी के आरंभ होने से पहले ही उनका देहांत हो गया। चंद्रभागा अत्यंत दुखी हुई, किंतु उसने व्रत की मर्यादा निभाई।

भगवान विष्णु शोभन की भक्ति और निष्ठा से प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे मोक्ष का वरदान दिया और मंदराचल पर्वत पर एक दिव्य राज्य प्रदान किया। बाद में राजा मुचुकुंद जब उस पर्वत पर गए, तो उन्होंने शोभन को वहाँ एक दिव्य स्वरूप में राज्य करते हुए देखा। लौटकर उन्होंने यह बात अपनी पुत्री को बताई। चंद्रभागा ने पुनः उसी व्रत का पालन किया और भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि उसे अपने पति के पास जाने का अवसर मिले। उसकी प्रार्थना स्वीकृत हुई और वह भी मंदराचल पहुँचकर शोभन के साथ दिव्य जीवन का आनंद लेने लगी। यह कथा यह सिखाती है कि श्रद्धा और विश्वास से किया गया व्रत कभी व्यर्थ नहीं जाता। भले ही शरीर दुर्बल हो, यदि मन दृढ़ और निष्ठावान है, तो परमात्मा उसकी भावना को स्वीकार करते हैं।

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रमा एकादशी का आध्यात्मिक अर्थ बहुत गहरा है। यह केवल उपवास का दिन नहीं, बल्कि आत्म-शुद्धि का अवसर है। जब मनुष्य इस दिन भोजन, क्रोध, लोभ, और वासनाओं से स्वयं को संयमित करता है, तो भीतर की चेतना निर्मल हो उठती है। यह संयम जीवन के हर क्षेत्र में संतुलन और शांति का संदेश देता है। व्रत का मूल उद्देश्य केवल शरीर को कष्ट देना नहीं, बल्कि आत्मा को बल देना है।

इस दिन भक्त प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान करते हैं, पीले या सफेद वस्त्र धारण करते हैं और विष्णु-लक्ष्मी की प्रतिमाओं का पंचामृत से अभिषेक करते हैं। तुलसीदल, चंदन, अक्षत, पुष्प और दीप से पूजा की जाती है। “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” तथा “ॐ लक्ष्म्यै नमः” जैसे मंत्रों का जप किया जाता है। रात्रि में भजन-कीर्तन, कथा श्रवण और आरती से वातावरण भक्तिमय बनता है। अगले दिन द्वादशी को पारण किया जाता है, अर्थात व्रत का समापन। उस समय ब्राह्मणों या जरूरतमंदों को भोजन कराना और वस्त्र, अन्न या धन का दान देना शुभ माना जाता है।

जो व्यक्ति इस दिन किसी कारणवश उपवास नहीं कर पाता, वह दान या सेवा के माध्यम से भी व्रत का फल प्राप्त कर सकता है। कहा गया है कि रमा एकादशी के दिन तुलसी, अन्न, वस्त्र या दीपदान करना अत्यंत पुण्यदायी होता है। इस व्रत को करने से घर में सुख-समृद्धि आती है और माता लक्ष्मी की कृपा सदैव बनी रहती है।

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धार्मिक दृष्टि से रमा एकादशी की एक और विशेषता है, यह दिवाली से पहले आने वाली एकादशी है। इस प्रकार यह कालखंड पवित्रता और तैयारी का समय भी होता है। जब दीपोत्सव का पर्व निकट होता है, तो यह व्रत मन, शरीर और गृह को शुद्ध करने का मार्ग प्रदान करता है।

रमा एकादशी हमें संयम, श्रद्धा और सेवा की भावना सिखाती है। यह बताती है कि सच्चा उपवास केवल भोजन का त्याग नहीं, बल्कि नकारात्मक विचारों, द्वेष और अहंकार का त्याग है। जब मनुष्य अपने भीतर की आसक्तियों को नियंत्रित करता है, तभी वह ईश्वर की कृपा के योग्य बनता है। यह व्रत आत्म-अनुशासन और मानसिक संतुलन की परीक्षा भी है।

आज जब भौतिकता और असंयम हमारे जीवन का हिस्सा बन चुके हैं, तब रमा एकादशी का यह व्रत हमें स्मरण कराता है कि सच्चा सुख बाहरी वस्तुओं से नहीं, भीतर की शांति और श्रद्धा से प्राप्त होता है। लक्ष्मी का वास्तविक स्वरूप केवल धन नहीं, बल्कि स्थिरता, संतोष और समृद्धि की वह भावना है, जो जीवन को पूर्ण बनाती है।

अंततः रमा एकादशी केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि आत्मा की यात्रा का चरण है। यह हमें बताती है कि संयम में सौंदर्य है, श्रद्धा में शक्ति है और सेवा में मोक्ष है। जिस प्रकार चंद्रभागा और शोभन की कथा में भक्ति ने मृत्यु को अमरत्व में बदल दिया, उसी प्रकार यह व्रत भी हमें अज्ञान से ज्ञान की ओर, असंतोष से संतोष की ओर, और मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाने की प्रेरणा देता है।