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तैलिक से साहू तक विकास यात्रा : राजिम जयंती विशेष

घनाराम साहू

भारतीय परम्परा में जिस प्रकार व्यक्ति को सर्वगुण सम्पन्न बनाने और उसे सर्वथा तृप्त करने के लिए, आश्रम व्यवस्था का और समाज को सर्वथा समृद्व बनाने के लिए वर्ण-व्यवस्था का गठन हुआ, ठीक उसी प्रकार उसकी आर्थिक-व्यवस्था को समृद्वि और बहुविध विस्तार के लिए भिन्न-भिन्न व्यावसायिक वर्गों एवं श्रेणी में सम्बद्व लोगों के संगठन की आवश्यकता हुई और उनका गठन भी हुआ, जिन्हे प्राचीन भारतीय परम्परा में श्रेणी संगठन के नाम से अभिहित किया गया। इन श्रेणी संगठनों का भारत की आर्थिक समृद्वि में अत्यधिक योगदान रहा। इन संगठनों में तैलिक श्रेणी का अपना विशिष्ट स्थान है।

प्राचीनता की दृष्टि से विभिन्न व्यावसायिक समुदायों का उद्भव एवं विकास सैन्धव सभ्यता से माना जा सकता है। तत्कालीन आंतरिक एवं बाह्य व्यापार-वाणिज्य की विकसित स्थिति तथा पुरातात्विक साक्ष्यों से प्राप्त तिलहन फसलों के आधार पर इन संगठनों में तैलिक समुदाय के विद्यमान होने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। वैदिक काल में श्रेणी, गण, पूग तथा ब्रात इत्यादि व्यवसायिक संगठनों की जानकारी प्राप्त होती है। लेकिन इनमें तैलिक श्रेणी का पृथक से कहीं उल्लेख नहीं मिलता । अथर्ववेद  (1.7.2, 2.1.36, वै.इ.पृ. 362) में तेल (तिल का तेल) और तेल को कुम्भों में रखने का संदर्भ मिलता है।

 ईसा पूर्व छठी शताब्दी में विभिन्न श्रेणी संगठनों के साथ तैलिक समुदाय का समुचित विकास हो गया था। श्रेणी प्रमुखों को जेट्टक, प्रमुख, सेट्टि कहा गया है। जातक ग्रन्थों में  तिलपिषक शब्द आया है, जो तैलिक श्रेणी संगठन का प्रतीक है। पाचित्तिय (पृष्ठ 366) में तेल बेचने वाले एक व्यापारी का उल्लेख है। बौध्द साहित्य में तो एक तिलमुट्टि जातक (सं.255) कथा है, जिसमें वर्णन है कि तेल निकालने के पूर्व एक बुढ़िया (तक्षशिला निवासी) तिलों की रखवारी करती है। (सं.252) शंखायन आरण्य (11.4) में भी तेल व्यवसाय का उल्लेख है। इससे स्पष्ट होता है कि इस काल में अन्य श्रेणी संगठनों की भांति तैलिक श्रेणी संगठन समुन्नत होते चले गए।

कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र (पृ.199) में तैलघटिका का उल्लेख किया है, जिससे तैलिक व्यवसायियों द्वारा तेल मापा जाता था। इस प्रकार के संदर्भो से मौर्यकाल में तैलिक श्रेणी की सार्थक उपस्थिति प्रमाणित होता है। बौध्द साहित्य की भांति जैन सूत्रों से भी तैलिक श्रेणी पर प्रकाश पड़ता है। जिसमें तैलिक व्यवसायियों द्वारा तेल मापा जाता था। इस प्रकार के संदर्भो में मौर्यकाल में तैलिक श्रेणी के अस्तित्व का अनुमान किया जा सकता है।

जम्बूद्वीप पण्णत्ति (3.193) में तेल पेरने वाले यंत्रपीलनक (तेली) का उल्लेख है। निशिथा सूत्र (8.5.9) और चूर्णी में चम्पा नगरी की चक्रिकाशाला का उल्लेख है, जहां तेली व्यवसायियों द्वारा तेल पिरोया जाता था। जम्बूद्वीप पण्णत्ति (3.193) के एक अन्य स्थान पर राजा भरत द्वारा श्रेणी-प्रश्रेणी को बुलवाने का उल्लेख है। संभव है कि ये तैलिक श्रेणियां ही रही होगी। (पिण्डनिनज्जुत्ति मूलसूत्र 89.317-319) में एक तेली व्यापारी की रोचक कहानी प्राप्त होती है कि कोशल देश के सम्मत कुटंबी जैन साधु की विधवा बहिन ने बनिये से दो पली तेल उधार लिया था, जो चुका न पाने के कारण एक घट प्रमाण तेल हो गया, अन्त में वह कर्ज न चुकाने के कारण लाचार होकर उसे गुलामी स्वीकार करनी पड़ी।

सातवाहन, शक एवं कुषाणकाल में आंतरिक एवं विदेशी वाणिज्य-व्यापार को व्यापक प्रोत्साहन मिला, फलस्वरूप व्यावसायिक संगठनों द्वारा बड़ी संख्या में सिक्के जारी हुए। सिक्कों के व्यापक प्रयोग ने बैकिंग व्यवस्था के उदय एवं विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। जिसमें तैलिक श्रेणी संगठन अग्रणी रहा है। तीसरी शताब्दी इसवी के आभीर नृप ईश्वरसेन के नासिक अभिलेख  (गुप्त, पृ. 209) में उल्लेख है कि उपासिका विष्णुदत्ता ने तैलिकों की एक श्रेणी के पास कुछ सिक्के जमा किए थे, यद्यपि कुछ अक्षर मिट जाने का कारण यह ज्ञात नहीं कि वह राशि कितनी थी।

राजकोश द्वारा दिए गए धन पर श्रेणियां चुंकि ब्याज देती थी, इसलिए वे अवश्य इस धन को व्यापारियों या अन्य लोगों को अधिक ब्याज पर ऋण के रूप में देती रही होगी अथवा इसे अपने व्यवसाय में लगाकर लाभ कमातीं रही होंगी। इस निमित्त वे अन्य उत्पादकों से अदला-बदला भी करती थीं वेरीगजा तथा दिमिरिका (तमिलनाडु) के बन्दरगाहों में तैलिक व्यापारी तिल के तेल से अरबिया के उत्पाद लोबान से बदलते थे, का उल्लेख (मिश्र,पृत्र 303) मिलता है।

गुप्त काल में तैलिक श्रेणी संगठन के प्रधान पूर्ववर्ती कालों की अपेक्षा अधिक विकसित एवं समृध्द हो गए थे, जिन्हे राज्य के अंगो में शामिल  कर लिया गया था। इनके लिए वराह मिहिर ( वृहत्संहिता 32/8, 29/10, 33/25, 8/10) ने गणप, श्रेष्ठी, श्रेणी श्रेष्ठि शब्दों का प्रयोग किया है। ईसवी सन् 465 के स्कन्दगुप्त के इन्दौर (तत्कालिन इन्द्रपुर) ताम्रपत्र ( गुप्त, सं. 16) में तैलिक श्रेणी के प्रमुख जीवन्ता श्रेणिक, जिसने सूर्यमंदिर में एक दीपक हेतु तेल की स्थायी व्यवस्था की थीं। अभिलेख में श्रेणी प्रमुख के नाम से पुकारने की प्रथा के अतिरिक्त यह संगठन की गतिशीलता का प्रमाण है। एक अन्य अभिलेख में इन्द्रपुर के तैलिक श्रेणी के पास ब्राम्हणदेव बिष्णु ने वहां के सूर्यमंदिर में प्रतिदिन दीपक जलाने के लिए दो पल तेल उपलब्ध कराने के लिए एक धनराशि अक्षय नीवी धर्म के अंतर्गत जमा की थी। (सेले.इं.-1,पृ.309-12) जीवितगुप्त द्वितीय के देव वरर्णाक अभिलेख की पंक्ति पांच में श्तलावटकों का उल्लेख आया है, जिसे फ्लीट महोदय राजकीय उपाधि मानते हैं और डॉ. भगवानलाल इन्द्रजी इसे गांव का लेखाकार। अधिक संभावना है कि तैलिक श्रेणी प्रमुख की ही यह राजकीय उपाधि रही होगी। (फ्लीट, भाग-3 पृ.269) प्रो. श्याम मनोहर मिश्र ने विभिन्न श्रेणी संगठनों में तैलिकों की श्रेणियों का उल्लेख किया है। जिनकी सहायतार्थ कर्त्तव्यपरायण कार्यचिंतिकों (समूह हितवादिन) की एक समिति होती थी। अभिलेखों में इनकी संख्या 2,4,7 तथा 12 उल्लेखित की गई है। इनका अपना कार्यालय होता था तथा ये स्वतंत्र एवं स्वायत्त होने से दोशी अधिकारियों को दण्ड भी दे सकती थी। (मिश्र, पृ. 231) नालंदा के प्रवेश द्वार के निर्माता बालादित्य गुप्त तेलाधक श्रेणिक था इनके द्वारा गौतम बुध्द का विशाल प्रतिमा स्थापित किया गया (पटना डिस्ट्रिक्ट गजेटियर 1907)। श्रध्दालु इस प्रतिमा को तेल स्नान कराते है और स्थान को तेलिया भंडार कहते है।

पांचवी शताब्दी ई. में जहां श्रेणियों की साख में और वृध्दि हुई थी, वहीं उनके द्वारा अधिक लार्भाजन के उदाहरण भी प्राप्त होते है। वराहमिहिर (41/5-6) ने इसी तरह के तैलिक व्यपारियों का उल्लेख किया है, लार्भाजन के लिए सामर्थानुसार एक माह से दो वर्ष तक अपने पास तेल सुरक्षित रखे रहते थे, जिससे कभी-कभी इन्हें घाटा भी हो जाता था। इसी कारण डॉ. रामशरण शर्मा ने इस काल में श्रेणी संगठनों को पतन का कारण माना है। अतएव गुप्तोत्तर काल में तैलिकों के संगठनों के स्वरूप में कुछ परिवर्तन आया और वे गुप्त युग की भांति प्रभावशाली नहीं रहे।

पूर्व मध्यकाल में विकसित बहुसंख्यक श्रेणियों के प्रमुखों की प्रतिष्ठा में वृध्दि हुई, जिनके लिए प्रधान, मुख्य, महर, महत्तक, श्रेष्ठि (सेट्टि), महाश्रेष्ठि, महागणस्य, राणक तथा राज शब्द प्रयुक्त हुए हैं। ( मिश्र, पृ. 237) सामंतवाद के प्रभाव के कारण इन्हे राज्य की ओर से राणक, राज, और महागणस्य जैसी उपाधियों से विभूषित किया जाने लगा था। एक उल्लेख में तेलियों के श्रेणी प्रमुख को तैलिकराज और वरेन्द्र शिल्पि के श्रेणी प्रमुख को श्राणक की उपाधियां दी गई थी।     ( ए.इं.-1, पृ. 307)  ई. संवत् 877 ग्वालियर के वैल्लभट्ट स्वामि के मंदिर अभिलेख ( ए. इण्डि.-1, पृ. 159 ) में श्री सर्वेश्वरपुर के तैलिकों के चार प्रमुखों का, श्रीवत्स स्वामिपुर के तैलिकों के दो प्रमुखों का तथा दो अन्य स्थानों के तैलिकों के चार प्रमुखों का सनाम् उल्लेख किया गया है। एक अन्य अभिलेख में ग्वालियर की बीस श्रेणियों का उल्लेख किया है। आन्ध्र राज्य मे तैलिकों की एक श्रेणी को चालुक्य राज्य की सुरक्षा करने वाला स्तम्भ कहा गया है।

विवेच्यकाल में तैलिक श्रेणी संगठनों द्वारा सामाजिक, धार्मिक एवं जनकल्याण संबंधी कार्य किये जाने के विवरण मिलते है। जैसे कि – इन्द्रपुर के सूर्यमंदिर में प्रतिदिन दीपक हेतु तैलिक श्रेणी संगठन ने दो पल तेल देने के निमित्त एक धन राशि दी थी। (गुप्त, अ.सं.-12) ईसवी संवत् 877 के ग्वालियर अभिलेख में तैलिक श्रेणा के सदस्यों द्वारा मंदिर एवं तालाब आदि के निर्माण कराने का वर्णन है। (मिश्र, पृ. 241) ग्वालियर दुर्ग में स्थित तेली के मंदिर का निर्माण भी वहां के तैलिकों की श्रेणियों द्वारा ही कराया गया होगा क्योंकि तत्कालीन समय में वहां तेलियों के बीस समृध्द श्रेणी संगठन विद्यमान थे। (मिश्र, पृ. 241)

त्रिभुवन चक्रवर्ती राजाधिराज देव के तमिल लेख से ज्ञात होता है कि कांची के एक मंदिर में एकत्र होकर यह निर्णय लिया कि तिरूक्कच्चूर के तैलिकों को उस ग्राम के एक मंदिर में बलि और दीपकों की व्यवस्था करनी चाहिए। जाति धर्म के नाते इस निर्णय का वहां के तेलियों ने पालन भी निश्चित किया – (ए.एपि.रि.पृ.94) राजेन्द्र चोल के शासकीय अभिलेख में उल्लेख है कि तेलियों की श्रेणी के एक सदस्य ने संगठन की ओर से तंजोर के शिव मंदिर को निरंतर तेल उपलब्ध कराते रहने के लिए अनुबन्ध किया था। (लो.ग.,पृ.95) वैजनाथ प्रशस्ति में उल्लेख है कि तैलियों की एक श्रेणी द्वारा एक शिव मंदिर तथा मण्डप का निर्माण किया गया था । (से.इ.,पृ.116-18) बस्तर के नागवंशी राजा सोमेश्वर देव के कुरूसपाल अभिलेख में उनके राज्य में तेलीवाड़ा होने का उल्लेख मिलता है जो संगठित एवं समुध्द व्यवस्था का प्रमाण है।

जैन साहित्य एवं इतिहास-नाथूराम प्रेमी द्वारा चालुक्य वंश की एक ताम्रपत्र जिसकी लिपि कन्नड़ एवं भाषा संस्कृत है के पंक्ति 3 का विवेचना करते हुए उद्घृत किया गया है कि वेंगी नगर में चालुक्य (सोंलकी) वंश में युध्दमल्ल नामक राजा हुआ जो सवा लाख प्रदेश का स्वामी था और जिसने तेल से भरी हुई वापी में मस्त हाथिंयों को स्नान कराने का उत्सव किया। तैलिक समाज राजा युध्दमल्ल से संबंध जोड़कर चालुक्य वंश को तैलिक जाति होना मानता है विशेष उल्लेखनीय यह भी है कि चालुक्य वंश में तैलप नामक राजा हुआ जो कलचुरी राजा गांगेय देव के साथ मिलकर मालवा के धार राजा वाक्पति भोज से युध्द किया था। उस युघ्द में राजा भोज की विजय हुई थी तब भाट-चारणों द्वारा राजा भोज की प्रशस्ति में, कहाँ राजा भोज और कहाँ गांगेय तैलप, कहा गया, चारणों का यही कथन कालांतर में अपभ्रंश होकर “कहाँ राजा भोज और कहाँ” गंगू तेली कहलाया।  अबूल फजल के अकबर नामा में मुंगेर के तेलियागढ़ी में तेली राजा होने का उल्लेख है। (ब्रेवरिड्ज वाल्यूम 3)।

साहू समाज दर्पण-पन्ना लाल गुप्ता (1971) में कृष्ण भक्त कर्मा बाई की जीवनी है जिसके अनुसार झांसी में चैत्र कृष्ण पक्ष एकादशी संवत् 1073 में जन्म, नरवर में विवाह, नरवर नरेश से संघर्ष, पुरी यात्रा, भगवान जगन्नाथ को खिचड़ी भोग का संमर्पण एवं स्वर्गारोहण का वर्णन है। कल्याण (गीता प्रेस गोरखपुर) भाग 96 में एक कृष्ण भक्त कर्मा बाई का वर्णन है जिसका जन्म राजस्थान के नागौर राज्य के कलवा ग्राम में 20 जनवरी सन् 1615 में होना उल्लेखित है। कर्मा बाई पुरी की यात्रा कर जगन्नाथ का दर्शन कर खिचड़ी भोग समर्पित करती है। नवापारा-राजिम के सहिस समाज के लोग मानते है कि कर्माबाई पुरी यात्रा करते समय राजिम में महानदी के तट पर उनके पूर्वजों के बीच रही थी । सहीस समाज द्वारा नवापारा (गोबरा) में भक्त माता कर्मा बाई का मंदिर निर्माण कराया गया है जिसमें प्रतिवर्ष भाद्रपक्ष मास में 11 दिवसीय कर्मा महोत्सव का आयोजन किया जाता है। इनका यह भी दावा है कि उनके पूर्वजों के द्वारा पुरी के स्वर्ग द्वार स्थान में भक्त माता का मंदिर बनाया गया है।

छत्तीसगढ़ के प्रमुख तीर्थ राजिम लेचन मंदिर परिसर में तेलिन मंदिर है जो मूलतः शिवालय है और इसकी भित्ती में एक सती स्तंभ जड़ा हुआ है। इस सती स्तंभ में दो परिचारकों या एक स्त्री एवं पुरूष के मध्य पद्मासनस्थ एक दपंति का उत्कीर्णनन किया गया है। स्तंभ के निचले भाग में कोल्हू  (घानी) का उत्कीर्णनन है इस सती स्तंभ को राजिम नामक तेली व्यवसायी एवं भगवत भक्त से जोड़ा  जाता है। लोककथा में स्थापित राजिम तैलिन भक्तिन के नाम को लेकर विद्वानों में मतैक्य नहीं है फिर भी देवनाम राजिम लोचन एवं स्थान नाम राजिम  के महात्मय से राजिम भक्तिन की सुदृढ़ उपस्थिति प्रमाणित होता है (राजिम-विष्णुसिंह ठाकुर)।

तेलिन मंदिर के निर्माण काल का निर्धारण  कलचुरी काल से की जाती है तथा राजिम तेलीन को रतनपुर के कलचुरी राजा का सामंत जगपाल देव से जोड़ा गया है। राजिम लोचन मंदिर की भित्ती से प्राप्त शिलालेख के अनुसार जगपाल देव द्वारा राम मंदिर का निर्माण करा कर 3 जनवरी इं. सन् 1145, दिन बुधवार माघमास शुक्ल पक्ष अष्टमी तिथि को लोकार्पित किया गया था। (जेनकिंस एवं कनिंघम रिपोर्ट) कतिपय इतिहासकार सांमत जगपाल देव के शिलालेख का संबंध बस्ती के भीतर स्थित राम जानकी मंदिर से होना मानते है। प्रचलित जनश्रुति के अनुसार राजिम तेलिन का संबंध चौथी-पाँचवी सदी के हैहय वंशी राजा जगतपाल से है, जिनका मुख्यालय दुर्ग में था। श्रीमद्राजीवलोचनमहात्मय में राजा जगतपाल का उल्लेख है जिनकी उदारता एवं धार्मिक सहिष्णुता के कारण इस वंश को धर्मसेतु कहा गया है। उल्लेखनीय है कि श्री संगम राजिम में शिव एवं विष्णु के प्राचीन मंदिर है।

लोककथा के अनुसार राजिम तेलिन भक्तिन का जन्म माघ पूर्णिमा और निर्वाण बसंत पंचमी को हुआ था। राजिम में प्राचीन काल से मेला भरता है जिसकी अवधि पूर्व काल में लगभग 3 माह (महा संक्राति से होली तक) होती थी। जो क्रमश घटकर 15 दिनों (माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि) की हो गयी है। राजिम में मिले सती स्तंभ की तरह भोरमदेव, कोड़ेगांव एवं बालोद में मिलने की सूचना है। पूरातत्वविदों के अनुसार से सभी सती स्तंभ 12वीं से 14वी सदी के है, इससे संकेत मिलता है कि छत्तीसगढ़ के बडे भू-भाग में तेली समाज की समृध्दि वैभवित थी। धमतरी नगर के निकट लगभग 300 वर्ष पूर्व एक तेलीन द्वारा सती होने के स्मरण में तेलीनसत्ती नामक गांव बसा हुआ है, तथा बलौदाबाजार जिला में तेलासी गांव है जिसे लगभग 250 साल पूर्व तेली मालगुजार ने बसाया था। रायपुर शहर में तेलीपारा तथा तेलीबांधा नामक विशाल तालाब है जिसका निर्माण व्यवसायी दीनानाथ साव ने 17 वीं शताब्दी में कराया था इनके पुत्र शोभाराम महाजन द्वारा तेलघानी नाका आने वाले व्यापारियों की सुविधा के लिए अम्बा तालाब बनवाया था (रायपुर डिस्ट्रिक गजेट्रियर 1909) जिसे अब आमा तालाब कहते है। इस काल में वर्तमान रायपुर रेल्वे स्टेशन के क्षेत्र में तेलघानी उद्योग संचालित था, इसी तरह रायपुर से 20 किलोमीटर दूर अभनपुर रोड में तेलीबांधा, महासमुंद-पिथौरा मार्ग में झलप के पास तथा महासमुंद-खल्लारी मार्ग में तेलीबांधा बस्ती बसी हुई है। दुर्ग जिला के पाटन के निकट तेलीगुड़रा गांव बसा हुआ है, वर्तमान छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की सीमा में तेलनदी है जिसका प्राचीन नाम उत्पलावती/उत्पलिनी/तेलवाह है, इस नदी से तेल का परिवहन होता था। इसी तरह छत्तीसगढ़ के सभी इलाको में बस्ती एवं तालाबों के रूप में तेली व्यापारियों की विरासत सुरक्षित है। पुराने बस्तर के केशकाल घाटी में तेलीन सती मंदिर है, जिसे लगभग 200 वर्ष पूर्व का बताया जाता है।

पूर्वमध्यकाल की अंतिम राजनीतिक, सामाजिक एवं अिर्थक परिस्थितियां तैलिक श्रेणी संगठनों की प्रगति के लिए अनुकूल नहीं रही। प्रशासन व्यवस्था में श्रेणी संगठनों के प्रतिनिधियों का स्थान सामंतों ने ले लिया था। सामंत अपने आदेश-निर्देश श्रेणी संगठनों पर थोपने लगे और शिल्पियों, वणिकों एवं व्यापारियों से मनमाने ढंग से कर तथा भेंट वसूल करने लगे। परिणामस्वरूप श्रेणियों की न केवल स्वतंत्रता में कमी आई, अपितु उनकी आर्थिक स्थिति भी बिगड़ने लगी थी। इस काल के साक्ष्यों में उल्लिखित व्यापार-कारण्य एवं श्रेणीकरण संज्ञक अधिकारी श्रेणियों के कार्यो पर निगरानी एवं नियंत्रण रखने के लिए नियुक्त किए गये थे (से.इं.-1,पृ. 354)। उदाहरणार्थ-राज्यपाल के दो सामंत पुत्रों ने 1132 ई. में तेल पेरने वाले प्रत्येक कोल्हू से एक पालिकर तेल लिए जाने का आदेश जारी किया था और इस तिथि के कुछ ही वर्षो के बाद राज्यपाल के दूसरे सामंत ने तेल की मात्रा बढ़ाकर दुगुनी कर दी थी ( ए. इं. – 18, पृ. 99 )। राज्य द्वार तेल – घी तथा नमक पर आठ गुना ब्याज निर्धारित भी कर दिया गया।

उक्त वर्णन से तेली व्यवसायों का व्यवसाय पतन की ओर उन्मुख दिखाई देता है। साहित्य साक्ष्यों में थोक विक्रेता, फेरीवाले तथा फुटकर विक्रेता व्यावसायियों का उल्लेख है, तेली व्यवसायी तीनों प्रकार के व्यापार द्वारा ऐसे ही तेली व्यवसायी से तेल-घी तथा खाद्य सामग्री खरीदे जाने की कथा मिलती है (पाचित्य-वृ. 338)। दुकानदार के लिए बौध्द साहित्य में आपणिकश् शब्द का प्रयोग हआ है। कहीं-कहीं श्रेणियां सामूहिक रूप से भी विनियोग करती दिखाई देती है। ई. सं. 973 के सियादोनी प्रस्तर अभिलेख में तेलियों के साथ पानवाली, पत्थर काटने वाली तथा सुराजीवी के साथ मिलकर 1350 द्रव्यों के विनियोग का वर्णन है ( ए.इ.-2, पृ.116 ओर आगे)

पूर्व मध्यकाल के उत्तरार्ध्द में श्रेणियों का मौलिक स्वरूप में बदलाव हुआ और वे अधिकांशतः जातियों में बदल गई। भट्टोत्पल ने श्रेणियों को किसी एक जाति के लोगों का संगठन बताया है (वृहत्सं.34/19)। पूर्ववर्ती कालों की अपेक्षा तैलिक श्रेणी संगठन के सामाजिक स्तर में भी गिरावट आई। पूर्व में जहां उन्हें वैश्य वर्ण के अंतर्गत सम्मानजनक स्थान प्राप्त था, वही इस काल में धर्मशास्त्रकारों ने यत्र-तत्र शूद्रों के वर्ण में रखकर उसे अन्त्यज भी माना । हेमाद्रि ने तेलियों, नाइयों, लौहकारों तथा चर्मकारों को अन्त्यज बताया (चतुवर्ग चिंतामणि, प्रायश्चित खंड,पृ. 998)। स्कन्धपुराण के ब्रहाखंड (2/39-291/2) की भविष्यवाणी भी सफल होती दिखाई देती है, जहां कहा गया है कि कलियुग में वणिकों का पतन होगा, उनमें से कुछ लोग तेली और कुछ धान ओसाने वाले (तंडुलकारिणः) बन जायेंगे।

वृहत्पाराशर एवं औशनस ( जा.भा.,पृ.426) में तेली (चक्री) को पिता शूद्र और  माता व्याभिचारीणी से उत्पन्न माना गया है। विष्णु धर्मसूत्र, (51/15), शंख एवं समुन्तु में भी इसका उल्लेख है। जाति भास्कर (पृ.439) में इसके उद्भव का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। उल्लेख है कि उग्रा स्त्री में पारशव पुरूष से मौश्कल उत्पन्न होता है। जो  कोल्हू पेरने का काम करे, शुध्द तेल और खली बेचना इनकी आजीविका है।  जैसा कि स्मृतियों में लिखा है कि गन्ने पेरने के कोलू का ध्वनि जब तक सुनाई आता है, तथा जब तक शूद्र अन्त्यज और पतित समीप हो, तब तक वैदिक कार्यो को आरम्भ न करें। बंगाल में तेली जाति को कालू कहा जाता है जो कोल्हू पैरने का रूपान्तरण है। सियादोनी अभिलेख से भी इसकी पुष्टि होती है, जिसमें तेलियों को शिल्पियों के साथ नगर के एक बाह्य भाग में रहने का उल्लेख है (ए.इं.-,पृ.162-79)। एक अन्य स्थान पर तैलकार को कुंभकार और कोहक जाति की स़्त्री से उत्पन्न बताया, जो पतित होता है ( जा.भा.पृ. 469) । जयद्रथयमल (12-13 वीं) की कृति में उल्लेख है कि तेलियों और कुंभकारों के घर काली (परमेश्वरी) की पूजा होती थी। आर एन. मेहता ( प्रि.बु.इ.पृ. 194-204) ने पेशेवर जाति तैलिक को शूद्र वर्ग के अंतर्गत माना है। 18वीं सदी में पंडित लालदास कृत अवध विलास रामायण में अयोध्यावासी धनिक सुदर्शन साहू को इक्ष्वाकु वंश का होना उल्लेखित है।

तुलसीकृत रामचरितमानस के उत्तरकांड में तेली कुम्हार स्वपच किरात कोल एवं कलार जाति को अधम संज्ञा देते हुए कहा गया है कि ये स्त्री के मरने पर एवं धन संपत्ति के नष्ट होने पर मुंडन कराकर सन्यासी बन जाते है (जे बरनाधम तेली कुम्हारा स्वपच किरात कोल कलवारा।। नारि मुई गृह संपत्ति नासी। मुड़ मुंडाई होहि सन्यासी ।। तें विप्रन्ह सन आपु पुजावही। उभव लोक निज हांथ नसावही।। विप्र निरक्षर लोलुप कामी। निराचार सठ वृषल स्वामी ।। ) । ये विप्रो से स्वयं की पूजा कराकर अपने दोनों लोकां को नष्ट करते है इनकी पूजा करने वाले ब्राम्हणों को अज्ञानी लालची आचारहीन, दुष्ट और दुराचारी बताया गया है।

लार्ड वारेन हेसि्ंटग्स (सन् 1775) के निकट सलाहकार रहे कृष्णकांत नन्दी धनिक तैलिक व्यापारी  थे जिन्होने ईस्ट इंडिया कंपनी से वर्तमान मुर्शिदाबाद जिला के कासिम नगर राज्य को खरीद लिया था जिसे कासिम बाजार के नाम से भी जाना जाता है। जाति अन्वेषण (प्रथम भाग)-श्रोत्रिय पंडित छोटेलाल (संवत् 1971) में उल्लेखित है कि उक्त प्रान्त के फैजाबाद के साहू वैश्व महासभा द्वारा तेली जाति को वैश्व वर्ण में मान्य करने  राजपुताना हिन्दु धर्म वर्ण व्यवस्था मंडल के समक्ष आवेदन प्रस्तुत किया गया था। मंडल द्वारा प्रस्तुत आवेदन पर अन्वेषण उपरांत निष्कर्ष निकालकर तेली जाति को  वैश्य वर्ण मान्य किया गया।

राजनांदगॉव जिला मुख्यालय के निकट सिंघोला गांव में लगभग 100 वर्ष पूर्व तेली जाति की भानेश्वरी देवी नामक सिध्द नारी हुई थी जो अनेक चमत्कारिक प्रदर्शन करती थी। इनके स्मरण में मंदिर एवं अन्य संरचनाये अस्तित्व में है जहां वार्षिक मेला भी लगता है।  इससे स्पष्ट होता है कि तेलियों का जहां पूर्ववर्ती कालों में सम्मान प्राप्त था, वहीं पूर्व मध्यकाल के उत्तरार्ध  में इनके सामाजिक जीवन में गिरावट दिखाई देती है। वास्तव में सामंती परम्परा और विलासितापूर्ण जीवन के कारण अभिजात्यजनों का श्रम के प्रति उपेक्षा भाव बढ़ता गया और इस प्रकार श्रमजीवी जन अथवा जातियां निम्नता को प्राप्त करती गई। संभावना इस बात की और भी इंगित करती है, इन्होने समाज से अधिक लार्भाजन प्रारंभ कर दिया था, यही कारण रहा कि आज भी इस वर्ग को कुछ स्थानों में सम्मान प्राप्त नहीं है, फिर भी प्राचीन भारतीय समाज में तैलिक व्यवसाय की समृद्ध परम्परा ने भारतीय आर्थिक विकास की व्यवस्था को काफी हद तक समुन्नत किया, जिनका सातत्य आज भी दिखाई देता है। उनके द्वारा किए गए लोक कल्याणकारी कार्य आज भी प्रसांगिक हैं। अतः स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि प्राचीन भारतीय समाज में तैलिक श्रेणी संगठनों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस क्षेत्र में और शोध की आवश्यकता है।

विशेष संदर्भ छत्तीसगढ़-

छत्तीसगढ़ में तैलिक जाति की पहचान साहू के नाम से है। राज्य में इसकी 15 से अधिक उपजातियां (शाखाएं) हैं और इनमें से कुछ के जिला एवं प्रांतीय संगठन भी है फिर भी इसके बीच आपसी सांमजस्य और वैवाहिक संबंध है। तेली-साहू जाति केंद्र और राज्य के अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की सूची में शामिल  है तथा राज्य में ओबीसी वर्ग में साहू की आबादी सर्वाधिक है। मेजर पी वांस एग्न्यू रिपोर्ट के अनुसार सन् 1820 में साहू जाति की आबादी 9.15 प्रतिशत (रतनपुर राज्य के कुल 104063 परिवारों में से 9519 परिवार) और सन् 1931 की जनगणना अनुसार छत्तीसगढ़ की आबादी में 9.86 प्रतिशत (6213443 में 582207) थे तथा वर्तमान में लगभग 11 प्रतिशत बताया जाता है जो राज्य की ओबीसी आबादी का लगभग 24 प्रतिशत है (सरकार द्वारा गठित) कांटीफायबल कमीशन के कुछ आंकड़े स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित हुए थे)। साहू समाज की आबादी का विवरण राज्य के अनुसूचित जिलों में 2 से 5 प्रतिशत तथा मैदानी जिलां में 15 से 25 प्रतिशत अनुमानित है और 90 में से 60 विधानसभा क्षेत्रों में प्रभाव रखते है।

विगत 200 वर्षों का आकलन करें तो प्रथम 100 वर्षों में वृध्दि दर 0.25 प्रतिशत लेकिन बाद के 100 वर्षो में 1.6 प्रतिशत दर्ज हुई है। जनसंख्या में वृध्दि का मुख्य कारण आजादी के बाद भूमि सुधार होना है जिसके कारण पड़ोसी राज्यों से आगमन होना है। साहू समाज की 90 प्रतिशत से अधिक आबादी कृषि पर आधारित है जिनमे अधिकांश खेतीहर मजदूर एवं सीमांत कृषक हैं। शिक्षा के प्रति रूझान अधिक होने के कारण साक्षरता दर में अन्य ग्रामीण जातियों की तुलना में अनुपात अधिक है तथा सरकारी एवं निजी क्षेत्र की सेवाओं में प्रतिनिधित्व बढ़ने लगी है। सन् 1909 एवं 1910 में  प्रकाशित गजेटियर के अनुसार रायपुर जिला के 160 और बिलासपुर जिला के 70 गांवों में तेली मालगुजार थे। विधायिका में भी वर्तमान में अनुपातिक प्रतिनिधित्व मिला हुआ है, विगत 2023 में विधानसभा चुनाव में 12 विधायक निर्वाचित हुए जिसमें से एक उप मुख्यमंत्री तथा 2024 के लोकसभा चुनाव में बिलासपुर से निर्वाचित सांसद श्री तोखन साहू केन्द्र सरकार में राज्य मंत्री है। शैक्षिक एवं राजनीतिक जागरूकता के कारण पड़ोसी राज्यो की तुलना में छत्तीसगढ़ के साहू समाज की प्रतिष्ठा सुदृ़ढ़ है।

साहू मुख्यतः सगुण (शिव एवं विष्णु) एवं निर्गुण  (कबीर पंथी) उपासक हैं राज्य के प्रमुख तीर्थ क्षेत्र राजिम धाम का संबंध साहू तेली जाति से है। एतिहासिक श्रोतों के अनुसार राजिम को 18 वीं सदी तक चौथे धाम में गिना जाता था। माघ पूर्णिमा से प्रारंभ होकर महाशिवरात्रि तक चलने वाली अखंण्ड राजिम मेला को छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा कुभ कल्प नामकरण किया गया है। महासमुंद जिला के बागबाहरा तहसील के मुनगासेर ग्राम में 15 मई सन् 1975 (अक्ती त्यौहार) को सामाजिक मंच में प्रथम आदर्श सामूहिक विवाह समारोह का आयोजन किया गया, जिसमें 27 जोडे शामिल हुये थे। इस कायर्क्रम की सफलता उपरांत प्रदेश के अनेक स्थानों में सामूहिक विवाह का आयोजन किया गया। वर्तमान में छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश में कन्या विवाह योजना के नाम पर यह कार्यक्रम सामिल है।

संदर्भ ग्रंथ –

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लेखक वरिष्ठ सह प्राध्यापक एवं छत्तीसगढ़ी लोक संस्कृति के जानकार हैं।

One thought on “तैलिक से साहू तक विकास यात्रा : राजिम जयंती विशेष

  • January 7, 2025 at 09:49
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    बहुत सुंदर जानकारी भईया
    💐💐💐💐💐💐💐

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