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अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित 82 वर्षीया संस्कृत विदुषी आचार्या डा.पुष्पा दीक्षित

“साधना के देश में
मत नाम लो विश्राम का ”

” वेद ने भारत की संस्कृति को विश्ववारा संस्कृति कहा है। संस्कृत ही है ,जो संपूर्ण विश्व को एकता की डोर में बांध सकती है। संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है।”

ये सूत्र वाक्य आचार्या डा.पुष्पा दीक्षित के हैं।जो वे विगत दिनों वे अपने निवास में एक निजी भेंट में व्यक्त कर रहीं थीं।

आज 82 वर्ष के वय में भी आप संस्कृत भाषा बचाने की मुहिम में जुटी हुई हैं। वे विगत ढाई दशकों से पाणिनीय शोध संस्थान के माध्यम से विश्व के अनेक देशों के जिज्ञासुओं को नि: शुक्ल संस्कृत सिखा रही हैं। 2020 से आनलाइन कक्षाएं भी चला रही हैं। इस आनलाइन क्लास में विगत दिनों संस्कृत सीख रही कनाडा की 80 वर्षीया महिला की रुचि देखते ही बनी।

पहली जुलाई 1942 को जाबालि ऋषि की भूमि जबलपुर में आविर्भूत हुईंं ऋषिका डा.पुष्पा तीन स्वर्ण पदकों के साथ प्रथम श्रेणी से जबलपुर विश्वविद्यालय से संस्कृत में स्नातकोत्तर उपाधि हासिल कीं। फिर गहन शोधकर पी-एच.डी. की डिग्री लीं। आपको अटल बिहारी बाजपेयी विश्वविद्यालय बिलासपुर से डी.लिट् की मानद उपाधि से भी विभूषित किया गया।

आपके कुशल मार्गदर्शन में पचास से अधिक शोधार्थियों को पी-एच.डी.की उपाधि मिली चुकी है। आपकी लेखनी से काव्य, व्याकरण आदि की 54 कृतियां सृजित हो चुकी हैं। आप संस्कृत की
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित वैयाकरण, लेखिका और महाकवयित्री हैं।

आपकी झोली में अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार भरे हुए हैं। आपको छत्तीसगढ़ राज्य अलंकरण 2007 के अलावा 2004 में राष्ट्रपति डा.ए पी जे अब्दुल कलाम द्वारा भी सम्मानित किया गया है। लेकिन आत्मश्लाघा के इस विदूषक युग में आपके स्वाभिमानी व्यक्तित्व और कृतित्व को आज पर्यंत पद्म पुरस्कार से नवाजा नहीं आठवां आश्चर्य प्रतीत होता है।

40 वर्षों की कठोर तपस्या के बाद आपके द्वारा सर्वथा ऐसी नवीन गणितीय पद्धति विकसित की गई है, जिसके द्वारा दुर्गम -दुरूह पाणिनीय अष्टाध्यायी को मात्र दस मासों में हृदयंगम कराया जा सकता है। जिसे अनेक वर्षों के अंतराल में भी सीखना संभव नहीं था।

बिलासपुर या छत्तीसगढ़ की ही नहीं पूरे देश की गौरव आचार्या पुष्पा दीक्षित ने अपना संपूर्ण जीवन संस्कृत की समृद्धि के लिए समर्पित कर दिया है ।वे संस्कृत ओढती- बिछाती हैं। संस्कृत को सांस में लेती हैं। संस्कृत को जीती हैं। उनके अध्यवसाय और समर्पण के बारे में कहा जा सकता है……

“तन समर्पित मन समर्पित और यह जीवन समर्पित।
चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं।”

 

डाँ. देवधर महंत

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