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पुरुषोत्तम दास टंडन का भारत विभाजन का विरोध और राजभाषा हिन्दी के लिए संघर्ष

सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन एक ऐसे राजनेता थे जिन्होंने राजनैतिक सक्रियता के साथ भारत राष्ट्र के सामाजिक जीवन में नयी चेतना जगाने का काम किया। वे भारत विभाजन के विरोधी थे और राजकाज की भाषा हिन्दी बनाने के पक्षधर थे। स्वतंत्रता के बाद उनका अधिकांश जीवन हिन्दी सेवा के लिये समर्पित रहा। 1948 में देवहरा बाबा ने उन्हें राजर्षि की उपाधि प्रदान की और 1961 में भारतरत्न से सम्मानित किया।

वे एक ऐसे राजनेता थे जिनकी प्राथमिकता भारत राष्ट्र के सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप राजव्यवस्था के पक्षधर थे। वे अंग्रेजी, हिन्दी  और संस्कृत के साथ तेरह भारतीय भाषाओं के जानकार थे। वे दोनों हाथों से एक साथ एक गति से लिख सकते थे। वे भारतीय समाज से अंध विश्वास से मुक्ति के पक्षधर थे। इसके लिये उन्होंने देश व्यापी यात्राएँ कीं, सभा सम्मेलन किये। उनकी दिनचर्या और आहार बहुत संयमित थी।

वे आदर्श समाजसेवी, उत्कृष्ट लेखक, प्रभावी वक्ता और सफल पत्रकार थे। वे अपनी स्वभाषा के प्रति कितने समर्पित थे इसके लिये एक ही उदाहरण पर्याप्त है कि जब 1950 में वे कांग्रेस के सभापति चुने गए तो उन्होंने अपना अभिभाषण हिन्दी में दिया। कांग्रेस के इतिहास में वे पहले सभापति थे जिन्होंने हिन्दी में अपना वक्तव्य दिया। जिसका अनुवाद सम्पूर्णानन्द जी ने किया था।

ऐसे उद्भट विद्वान पुरुषोत्तम दास जी टंडन का जन्म 1 अगस्त 1882 को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में हुआ। पिता शालिगराम जी टंडन शासकीय सेवा में थे। माता जानकी देवी भारतीय परंपराओं के लिये समर्पित और भगवान श्रीकृष्ण की भक्त थीं। परिवार सामान्य था पर उच्च शिक्षा और साँस्कृतिक मूल्यों का समर्थक था। पुरुषोत्तम दास से एक बहन बड़ी तुलसा बाई और छै वर्ष छोटे भाई राधानाथ टंडन थे। पुरुषोत्तम दासजी ने 1894 में प्रयागराज के सिटी एंग्लो वर्नाक्यूलर विद्यालय से मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की।

बचपन से उनके भीतर स्वत्व के संस्कार कितने प्रबल थे इसका अनुमान एक घटना से स्पष्ट होता है। तब वे बमुश्किल दस वर्ष के होंगे। एक बार घूमते समय एक अंग्रेज लड़के से कुछ कहा सुनी हो गयी। उन्होंने आव देखा न ताव उस अंग्रेज लड़के को पीट दिया। उस लड़के के समर्थन में कुछ अंग्रेज लड़कों का झुण्ड आ गया। लेकिन पुरुषोत्तम दास बिल्कुल न घबराये उन्होंने अपने स्कूल और मोहल्ले के सभी लड़कों को एकत्र कर लिया जिससे उन सभी अंग्रेज लड़कों को भागना पड़ा।

वैदिक साहित्य के पुर्नप्रवर्तक श्रीपाद दामोदर सातवलेकर

1897 में उन्होंने मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और इसी उनका विवाह चन्द्रमुखी देवी से हुआ। 1899 में उन्होंने इण्टरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण की और इसी के साथ वे कांग्रेस से जुड़े। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने म्योर सेण्ट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया। कालेज में क्रिकेट टीम के कप्तान भी बने। किंतु स्‍वाधीनता आँदोलन में सक्रियता के कारण उन्हें कालेज से निष्कासित कर दिया गया। 1903 पिता का निधन हुआ तो परिवार चलाने का दायित्व भी आया।

तब स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रियता कम कर कुछ जीविकोपार्जन और बीए की पढ़ाई पूरी करने करने का निर्णय लिया। वे स्वाधीनता आँदोलन से सक्रिय सहभागिता से भले दूर हुये पर स्वाधीनता का संकल्प कम न हुआ। उन्होंने 1905 में बीए किया और इसी वर्ष न केवल स्वयं स्वदेशी वस्तुएँ अपनाने का संकल्प लिया अपितु युवाओं के बीच स्वदेशी का प्रचार आरंभ किया। वे काँग्रेस के आयोजनों से तो 1899 में ही जुड़ गये थे पर विधिवत सक्रियता 1906 से शुरु हुई और वे पहली बार कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में शामिल हुये। इस बीच उन्होंने लेखन कार्य भी प्रारम्भ  किया और विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित होने लगीं। 1907 में वकालत पास की और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे ।

अपनी सक्रियता से उनका समाज और कांग्रेस दोनों में महत्व बढ़ता रहा और 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकाँड हुआ तो काँग्रेस पार्टी द्वारा गठित अध्ययन समिति में उन्हें सदस्य बनाकर भेजा गया। 1920 में गाँधी जी के आव्हान पर आरंभ हुये असहयोग आन्दोलन में टंडन जी बहुत सक्रियता से सहभागी बने, बंदी बनाये गये पर चेतावनी देकर छोड़ दिये गये। 1930 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन में गिरफ्तार हुए और कारावास मिला।  उनके साथ गिरफ्तार होने वालों में पं जवाहरलाल नेहरू भी थे।

1934 में वे बिहार किसान सभा के अध्यक्ष बने। 1937 में उत्तर प्रदेश विधान सभा के प्रवक्ता बने। इस पद पर वे 1950 तक रहे। 1937 में धारा सभाओं के चुनाव हुए।  इन चुनावों में उत्तर प्रदेश सहित सात में प्राँतों में कांग्रेस को बहुमत मिला। पार्टी ने इसका श्रेय टण्डन जी को दिया। इस चुनाव में टंडन जी प्रयाग से खड़े हुये और निर्विरोध विजयी हुये। और धारा सभा के सर्वसम्मत से अध्यक्ष चुने गए।

अगस्त 1942 में अंग्रेजो भारत छोड़ो आँदोलन आरंभ हुआ। टंडन जी पुनः गिरफ्तार हुए और दो वर्ष जेल में रहे। यह उनकी सातवीं जेल यात्रा थी। 1946 में संविधान सभा के सदस्य बने। 1952 में लोकसभा के तथा 1957 में राज्य सभा के सदस्य निर्वाचित हुए।

भारत विभाजन और हिन्दी पर मतभेद

निसंदेह वे काँग्रेस के एक कर्मठ और समर्पित कार्यकर्ता थे। पर उनके लिये राष्ट्र संस्कृति और स्वाभिमान सर्वोपरी था। 1946 के बाद उनके कांग्रेस में मतभेद आरंभ हुये। पहले मतभेद का कारण काँग्रेस द्वारा भारत विभाजन का प्रस्ताव स्वीकार कर लेना था। दूसरा टंडन जी स्वतंत्र भारत के संविधान से वे सभी प्रावधान हटा देना चाहते थे जो अंग्रेजों ने बनाये थे। किन्तु यह संभव न हो सका और जब काँग्रेस कार्य समिति में भारत विभाजन का प्रस्ताव आया तो उन्होंने खुलकर विरोध किया और तीसरा विषय राष्ट्रगान का था। वे वंदेमातरम को राष्ट्रगान बनाना चाहते थे और चौथा विषय हिन्दी का था।

टंडन जी हिन्दी को स्वत्व और स्वाभिमान का माध्यम मानते थे। वे हिन्दी को स्वतंत्र भारत की संपर्क भाषा बनाना चाहते थे और कहते थे कि हिन्दी स्वतंत्रता प्राप्त करने का साधन है और बाद में स्वतंत्रता बनाये रखने का आधार। टंडन जी ने ग्वालियर के विक्टोरिया महाविद्यालय में हिंदी के व्याख्याता भी रहे। तब श्री अटल बिहारी वाजपेई इसी महाविद्यालय के छात्र थे।

भारतीय शिक्षा और समाज सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर

होश संभालने के साथ हिन्दी के प्रति उनका समर्पण गहरा होता गया। 10 अक्टूवर 1910 को काशी हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना हुई तो महामना मदनमोहन मालवीय अध्यक्ष बने और टण्डन मंत्री नियुक्त हुए।  बाद में यह संस्था देश व्यापी बनी और टण्डन जी ने हिन्दी विद्यापीठ प्रयाग की स्थापना की।  इस पीठ का उद्देश्य हिन्दी शिक्षा का प्रसार और अंग्रेजी के वर्चस्व को समाप्त करना था। सम्मेलन हिन्दी की अनेक परीक्षाएँ आयोजित करता था। इस संस्था ने दक्षिण भारत में भी हिन्दी का प्रचार प्रसार किया।

सम्मेलन के कार्यों का प्रभाव महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में भी पड़ा, अनेक शिक्षण संस्थाओं ने हिन्दी पाठ्यक्रम आरंभ किये। संविधान सभा में जब राजभाषा का प्रश्न आया तो उस समय एक विचित्र स्थिति थी।  टंडन जी ने बहुत प्रभावशाली ढंग से हिन्दी का पक्ष रखा पर पं० नेहरू और डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद तथा अन्य अनेक नेता हिन्दुस्तानी अर्थात मिली जुली भाषा के पक्षधर थे, पर टण्डन जी अपनी बात पर दृढ़ रहे, झुके नहीं।

संविधान सभा में चार दिन बहस के बाद हिन्दी और हिन्दुस्तानी को लेकर मतदान हुआ,  हिन्दी को 63 और हिन्दुस्तानी को 32 मत मिले। अन्तत: हिन्दी राष्ट्रभाषा और देवनागरी राजलिपि घोषित हुई। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के साथ राष्ट्र गान पर भी उनके मतभेद हुये। टंडन जी ने ‘वन्देमातरम्’ गीत को राष्ट्रगीत स्वीकृत कराने के लिए देश व्यापी अभियान चलाया। करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर लिये। हजारों प्रमुख लोगों के समर्थन पत्र एकत्र किए थे। पर वे सफल न हो सके।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं।

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