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प्रकृति, पितृ एवं ऊर्जा का संगम : पितृमोक्ष अमावस्या

पितृमोक्ष अमावस्या शरद ऋतु के समापन और हेमन्त के आरंभ की तिथि है। ऋतुओं के इस मिलन से मौसम परिवर्तन आरंभ होता है। इस ऋतु मिलन से उत्सर्जित अनंत ऊर्जा से समाज जीवन को समृद्ध बनाने की साधना का दिन है पितृमोक्ष अमावस्या। इस वर्ष यह तिथि 21 सितंबर को है।

प्रकृति रहस्यमयी ऊर्जाओं से भरी है। ये ऊर्जाएँ ही धरती के जीवन का आधार हैं। प्रत्येक प्राणी प्रकृति से ऊर्जा ग्रहण करके ही अपनी जीवन यात्रा पूरी करता है। लेकिन मनुष्य ने प्रकृति से अतिरिक्त ऊर्जा ग्रहण करके अपने जीवन को अधिक समृद्ध बनाने के उपाय खोजे। जो जितनी ऊर्जा जाग्रत कर ले, वह उतना ही सफल और समृद्ध होता है।

प्रकृति के रहस्य को समझने और प्राकृतिक ऊर्जा से जीवन समृद्ध बनाने के लिए भारतीय ऋषि-मनीषियों ने सैकड़ों-हजारों वर्षों तक साधना की और प्रकृति की गति के अनुरूप बनाने के लिए जीवन शैली विकसित की। भारत यदि विश्वगुरु और संसार का सबसे समृद्ध राष्ट्र रहा है तो इसके मूल में प्रकृति से संतुलन बनाकर स्वयं को समृद्ध बनाने के सूत्र ही हैं।

इसे हम भारतीय वाड्मय में निर्धारित दिनचर्या, तीज-त्यौहार, उत्सव और उनके आयोजन के विधि-विधान से समझ सकते हैं। समाज जीवन को प्रकृति की ऊर्जा से सशक्त बनाने का यही उद्देश्य अश्विन माह की पितृमोक्ष अमावस्या के आयोजन में है।

अश्विन माह का कृष्णपक्ष “पितृपक्ष” कहलाता है। यह भाद्रपद पूर्णिमा से आरंभ होकर अश्विन माह की अमावस्या तक कुल सोलह दिन रहता है। पितृपक्ष का समापन अमावस्या के दिन होता है। पौराणिक प्रावधानों के अनुसार इस दिन सभी ज्ञात-अज्ञात पूर्वजों का स्मरण करके उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है। इसीलिए इस अमावस्या का नाम “सर्व पितृमोक्ष अमावस्या” है।

इस तिथि के आयोजन विधान में दो महत्वपूर्ण प्राकृतिक रहस्य छिपे हैं—एक, ऋतु संगम से होने वाले प्राकृतिक परिवर्तन से समाज को समृद्ध बनाना, और दूसरा, पितृ स्मरण के माध्यम से सृष्टि की रहस्यमयी अनंत ऊर्जा से अपने जीवन को सशक्त बनाना।

पितरों की महत्ता : ऋग्वेद से रामचरितमानस तक

भारतीय वाड्मय में ऐसा कोई ग्रंथ नहीं जिसमें पितरों की महत्ता का वर्णन न हो। ऋग्वेद, श्रीमद्भागवत, सभी अठारह पुराण, महाभारत, श्रीमद्भगवद्गीता और रामचरितमानस सहित सभी ग्रंथों में पितरों के आव्हान और उन्हें तृप्त करने का विवरण है।

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कहीं कथानक के रूप में वर्तमान पीढ़ी का कोई पात्र अपने पूर्वजों का तर्पण करता है तो किसी ग्रंथ में पितरों को प्रसन्न करने की विधि एवं मंत्रों का विवरण है। पितरों की महत्ता का सबसे विस्तृत विवरण गरुड़ पुराण में है। इसमें पितृपक्ष की प्रत्येक तिथि के अनुसार पितरों का आव्हान और पूजन विधान है।

सबसे पहला विवरण ऋग्वेद में है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में पन्द्रहवें सूक्त को “पितृसूक्त” के नाम से जाना जाता है। इस सूक्त में कुल चौदह ऋचाएँ हैं। इनमें पितरों को विभिन्न देवों के समीप मानकर अग्नि देव के माध्यम से पितरों से प्रार्थना की गई है कि वे अपने परिवार-जन को सुखी और क्लेश-रहित जीवन देने की कृपा करें।

पितरों से यह भी याचना की गई है कि वे देवताओं तक प्रार्थना पहुँचाएँ। एक ऋचा में अपने किए गए अपराध के लिए पितरों से क्षमा-याचना की गई है, एक ऋचा में उनकी संपत्ति का उपयोग करने की अनुमति माँगी गई है। इसी प्रकार सभी ऋचाओं में विभिन्न प्रार्थनाएँ हैं।

भारतीय वाड्मय के लगभग सभी ग्रंथों में ऋग्वेद के ज्ञान का विस्तार है, जो समय के साथ विस्तृत होकर आया। कुछ ग्रंथों में ऋग्वेद के संदेश को समाज को समझाने के लिए कथाओं के रूप में प्रस्तुत किया गया। यही कारण है कि ऋग्वेद के पितृसूक्त और अन्य ग्रंथों के विवरण में कुछ अंतर दिखाई देता है।

बाद के ग्रंथों में प्रार्थना के साथ-साथ यह उल्लेख भी आया कि यदि कोई पात्र पापकर्म के कारण अधोगति को प्राप्त हो गया हो तो सर्व पितृमोक्ष अमावस्या के दिन उनके वंशजों द्वारा किए गए तर्पण से उनकी मुक्ति हो सकती है।

श्रीमद्भागवत और महाभारत में इसका उल्लेख है। श्रीमद्भागवत में गोकर्ण और धुंधुकारी की कथा आती है, जिसमें धुंधुकारी अपने जीवन में किए गए पापकर्म के कारण नर्क में चला गया। उसकी मुक्ति के लिए गोकर्ण ने श्रीमद्भागवत कथा का आयोजन किया और धुंधुकारी को मुक्ति मिली।

पितृमोक्ष अमावस्या का वर्तमान समाज जीवन को संदेश

सर्व पितृमोक्ष अमावस्या की दिनचर्या और पूजन आव्हान-विधान सृष्टि की अलौकिक शक्ति से जुड़ने की प्रक्रिया है। यह प्रकृति और प्राणियों से समन्वय बनाने और अपनी जीवन शैली आदर्श बनाने का संदेश भी है।

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इस दिन पितरों का प्रतीक पिण्ड बनाकर पूजन किया जाता है। फिर मछलियों, चीटियों, गाय, कुत्ता और अभ्यागत के लिए पाँच ग्रास निकाले जाते हैं। यह पिण्ड और मछली के लिए ग्रास जल में डाला जाता है। मछलियाँ जल को शुद्ध रखती हैं। गाय की महत्ता हम जानते हैं, कुत्ते की संघर्षशीलता और स्वामीभक्ति अनुकरणीय है। चीटियों की परिवार और समूह व्यवस्था अनुकरणीय है।

अभ्यागत का ग्रास पीपल पर रखा जाता है। पीपल की महत्ता भी हम जानते हैं। प्रकृति और प्राणियों से समन्वय के साथ वे कथाएँ जिनमें पापकर्म के कारण नर्क की प्रताड़ना मिलती है, और वे कथाएँ जिनमें अच्छे आचरण से स्वर्ग मिलता है—मनुष्य के समाज जीवन को आदर्श बनाने का यही सूत्र है।

साथ ही अपने सभी पितरों से लगाव का यही संदेश है कि हम अपने घर में माता-पिता का सम्मान करें और उनके अनुभव से सीखें। पितरों के स्मरण, उनकी कृपा प्राप्त करने की अवधारणा से कुटुम्ब सशक्त होता है। पाँच ग्रास से जल और पीपल के माध्यम से पर्यावरण-सुरक्षा और सभी प्राणियों के प्रति संरक्षण का भाव जाग्रत होता है।

विज्ञान की दृष्टि : ऋतु संगम से उत्पन्न अनंत ऊर्जा

भारतीय कालगणना में प्रकृति-परिवर्तन का अध्ययन करके वर्ष को छह ऋतुओं में बाँटा गया है। इसका आधार सूर्य सहित विभिन्न ग्रहों की गति और उनका पृथ्वी पर पड़ने वाला प्रभाव है। इसी से पृथ्वी का मौसम बदलता है।

गर्मी, सर्दी और वर्षा—ये तीन प्रमुख मौसम हैं और इनके मध्य की तीन संधि ऋतुएँ। इस प्रकार कुल छह ऋतु होती हैं। अश्विन माह की अमावस्या शरद और हेमन्त ऋतु का संगम है।

यदि पृथ्वी के खिलने की ऋतु वसंत है तो हेमन्त ऋतु को पृथ्वी की अंगड़ाई लेने की ऋतु माना गया है। इसी ऋतु में फसल चक्र भी परिवर्तित होता है। वर्षा ऋतु में जल तत्व और पृथ्वी तत्व प्रभावी होते हैं। इसे हम किसी भी जलाशय और सरोवर के मटमैले पानी से आँक सकते हैं। लेकिन हेमन्त ऋतु में पाँचों तत्वों का संतुलन बनता है, जिससे जल धाराएँ निर्मल दिखने लगती हैं और पंछियों की चहक बढ़ जाती है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हेमन्त ऋतु में पड़ने वाली शरद पूर्णिमा को महासागर में लहरें उछाल मारने लगती हैं। यह सब प्रकृति की ऊर्जा के कारण ही होता है।

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हेमन्त ऋतु में विखरने वाली यह ऊर्जा अश्विन माह की अमावस्या को उत्सर्जित होती है। इस अमावस्या को ब्रह्ममुहूर्त में उठकर किसी सरोवर या नदी तट पर जाकर स्नान करना, ऊषाकाल तक सूर्य को अर्घ्य देना, लौटकर पूजन करना और प्रथम प्रहर के समापन तक सभी ज्ञात-अज्ञात पितरों का स्मरण करना होता है। पितृ गायत्री से हवन करना भी आवश्यक माना गया है।

इस पूरी प्रक्रिया में लगभग सात घंटे लगते हैं। इन सात घंटों में मन सहित सभी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ एकाग्र रहती हैं। यह एकाग्रता व्यक्ति के चेतन और अवचेतन को समत्व स्थापित करती है। यह माना जाता है कि दिवंगत परिजनों की आत्माएँ इसमें सहायक होती हैं।

हमारा अवचेतन सृष्टि की अलौकिक ऊर्जा से जुड़ा होता है और यही व्यक्ति को अलौकिक ऊर्जा अर्थात “डिवाइन एनर्जी” से जोड़ता है। आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से यदि हम व्यक्ति के दृश्यमान स्वरूप को पदार्थ मानें तो उसका अदृश्य स्वरूप ऊर्जा है। जिस प्रकार किसी पदार्थ के नष्ट होने से उसमें केन्द्रीभूत ऊर्जा नष्ट नहीं होती, वह दूसरे पदार्थ का रूप ले लेती है।

इसकी विस्तृत व्याख्या सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन ने की है। यह “एनर्जी” या अदृश्य “कैटलिसिस” कौन है जिससे ऊर्जा एक पदार्थ का आकार लेकर नष्ट होकर दूसरे पदार्थ का रूप ले लेती है?

भारतीय चिंतन इसे आत्मा के रूप में समझाता है, जो कभी नष्ट नहीं होती। एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण करती है। चाहे वह किसी प्राणी की आत्मा हो अथवा किसी पदार्थ की केन्द्रीभूत ऊर्जा—यह सब प्रकृति की चेतना से ही संचालित होता है। वही “परम शक्तिमान” है और विज्ञान की भाषा में “सुपर एनर्जी”।

यदि प्रकृति में कोई सुपर एनर्जी है तो प्रयत्न करके उसका कुछ अंश प्राप्त भी किया जा सकता है। यह तभी संभव है जब प्रकृति शांत हो और सभी तत्वों में समन्वय एवं संतुलन हो। यह संतुलन हेमन्त ऋतु में होता है।

इस ऋतु में सृष्टि के पाँचों तत्वों का स्वमेव संतुलन रहता है और वह “सुपर डिवाइन एनर्जी” अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय होती है। उस समय यदि हमारे अवचेतन की ऊर्जा का संपर्क उससे बने तो व्यक्ति भी उससे संपन्न हो सकता है।