छत्तीसगढ़ में पितर पाख के अंतिम दिन मनाया जाता है पितर खेदा

भारतीय संस्कृति में पूर्वजों को स्मरण करना और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना एक गहरी परंपरा रही है। यही भावना पितृ पक्ष के रूप में सामने आती है, जिसे छत्तीसगढ़ में “पितर पाख” कहा जाता है। यह पंद्रह दिनों की अवधि भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक चलती है। इन दिनों को पूर्वजों की आत्मा की शांति और मोक्ष की प्राप्ति के लिए अत्यंत शुभ माना जाता है। इस अवसर पर श्राद्ध, तर्पण और दान जैसे संस्कार किए जाते हैं। छत्तीसगढ़ की विशेषता यह है कि यहाँ यह पर्व केवल शास्त्र सम्मत रीति-रिवाजों तक सीमित नहीं है, बल्कि ग्रामीण जीवन के विविध रंग इसमें घुल-मिल जाते हैं।
पितृ पक्ष का आरंभ “पितर बईठकी या पितर बईसकी” से होता है। इस दिन पूरे घर की साफ-सफाई की जाती है। महिलाएँ गोबर से आँगन और देहरी को लीपती हैं तथा चावल के आटे से चौक बनाकर उसे सजाती हैं। कुछ घरों में पितरों के स्वागत हेतु पानी का घड़ा, दातुन और फूल दरवाज़े पर रखे जाते हैं। मान्यता है कि पूर्वज इन पंद्रह दिनों के लिए अपने वंशजों के घर आते हैं। इसलिए वातावरण को शुद्ध और पवित्र रखना आवश्यक माना जाता है।
इस अवधि में पुरुष स्नान के बाद दक्षिण दिशा की ओर मुख करके तर्पण करते हैं। तर्पण की प्रक्रिया में कुशा, तिल, जौ और जल का उपयोग होता है। छत्तीसगढ़ में तोरई के पत्तों का विशेष महत्व है। इन पत्तों पर कुशा रखकर जल अर्पित किया जाता है। यदि पत्ते उपलब्ध न हों तो सफेद कपड़े का प्रयोग किया जाता है। भोजन में उड़द दाल और तोरई की सब्जी का विशेष स्थान है। इन दिनों प्याज, लहसुन, मांसाहार, अंडा और शराब वर्जित होते हैं। यहाँ तक कि रोटी को सीधे आग पर सेंकने से भी परहेज किया जाता है।
पितृ पक्ष में पूर्वजों की मृत्यु तिथि पर श्राद्ध किया जाता है। यदि किसी की तिथि ज्ञात न हो तो सर्व पितृ अमावस्या पर सामूहिक श्राद्ध संपन्न किया जाता है। श्राद्ध में पिंडदान की परंपरा है, जिसमें चावल की गोलियाँ बनाकर पितरों को अर्पित की जाती हैं। भोजन का एक हिस्सा कौवे को भी दिया जाता है, क्योंकि कौवा पितरों का दूत माना जाता है। कौवे का आकर भोजन करना शुभ संकेत समझा जाता है।
छत्तीसगढ़ में पितृ पक्ष की कुछ तिथियाँ विशेष महत्व रखती हैं। इनमें नवमी तिथि को “महतारी तिथि” कहा जाता है। इस दिन माताओं, बहनों और बेटियों का श्राद्ध किया जाता है। महिलाएँ अपने पूर्वज स्त्रियों की स्मृति में दीपक जलाती हैं, गीता पाठ करती हैं और तुलसी पत्र तथा गंगाजल अर्पित करती हैं। भोजन में खीर, पूड़ी, बड़ा और बबरा बनाए जाते हैं। विवाहित महिलाओं को भोजन कराना और उन्हें दान देना घर की समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। अंतिम दिन सर्व पितृ अमावस्या को “पितर खेदा” कहा जाता है। इस दिन सभी पितरों का सामूहिक तर्पण और विदाई होती है। घर की सजावट और चौक को विसर्जित कर पितरों को विदा किया जाता है और उनसे वंशजों के लिए आशीर्वाद की प्रार्थना की जाती है।
ग्रामीण परम्परा में तो पितरों का महत्व बहुत अधिक है, पितरों को देवता माना जाता है तथा उनसे पूछ कर ही मांगलिक कार्य किये जाते हैं। कई समुदायों में पितृ पक्ष में की दीवारों पर चावल के आटे से रोज़ चौक बनाया जाता है और फूलों से सजाया जाता है। यह चौक सोलह दिनों तक बनाया जाता है और अंत में तालाब या नदी में विसर्जित किया जाता है। भोजन में खिचड़ी, चावल, दाल और सब्जियाँ जैसे तोरई और कद्दू प्रमुख होती हैं।
इन्हें साल के पत्तों पर रखकर आँगन में अर्पित किया जाता है। बस्तर अंचल में नई फसल का अन्न पितरों को अर्पित करने की परंपरा है। पुरुष नदी या तालाब में जाकर पिंडदान और तर्पण करते हैं और अंत में पूरे समुदाय को आमंत्रित कर भोज आयोजित किया जाता है। यह भोज सामाजिक बंधन को मजबूत करता है और पूर्वजों से जुड़ाव को जीवंत बनाता है।
छत्तीसगढ़ में पितृ पक्ष धार्मिक आस्था के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। यह केवल पूर्वजों को स्मरण करने का अवसर नहीं देता, बल्कि परिवार और समाज को एक सूत्र में बाँधने का भी कार्य करता है।
ग्रामीण परंपराओं ने इस पर्व को और भी जीवंत और विशिष्ट बना दिया है। “पितर पाख” हमें यह स्मरण कराता है कि हमारे पूर्वज केवल अतीत की स्मृति नहीं, बल्कि वर्तमान की प्रेरणा और भविष्य की शक्ति हैं। उनके प्रति सम्मान और श्रद्धा प्रकट करना ही जीवन का सच्चा धर्म है।

