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राष्ट्रभक्ति और सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक: पंडित प्रेमनाथ डोगरा

भारत के असंख्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का व्यक्तित्व केवल राजनैतिक कारणों से कहीं खो गया। इन्हीं में एक हैं पंडित प्रेमनाथ डोगरा, जिनका पूरा जीवन राष्ट्र और संस्कृति के लिए समर्पित रहा। वे भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे।

कश्मीर रियासत काल में अपना प्रशासनिक पद छोड़कर समाज और राष्ट्र की सेवा में आए पंडित प्रेमनाथ डोगरा का जन्म 24 अक्टूबर 1884 को जम्मू क्षेत्र के इस्माइलपुर गाँव में हुआ था। उनके पिता पंडित अनंत राम डोगरा कश्मीर रियासत में दीवान थे। वे अपने पिता की इकलौती संतान थे। माता का निधन बचपन में ही हो गया था और उनका लालन-पालन दादी ने किया।

उनकी प्रारंभिक शिक्षा लाहौर में हुई। 1904 में उन्होंने मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। वे पढ़ाई के साथ-साथ खेलकूद में भी सक्रिय थे। छात्र जीवन में अच्छे अंकों से परीक्षा उत्तीर्ण करने और खेलों में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए उन्हें अनेक बार पुरस्कार और प्रशंसा पत्र मिले।

मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने लाहौर के फॉर्मैन क्रिश्चियन कॉलेज में प्रवेश लिया और 1908 में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। 1909 में तहसीलदार के रूप में उनकी पहली नियुक्ति कश्मीर के अखनूर क्षेत्र में हुई। उत्कृष्ट और समर्पित कार्य के चलते एक ही वर्ष में उनकी पदोन्नति हुई और सहायक बंदोबस्त अधिकारी के रूप में उनकी पदस्थापना ऊधमपुर में हुई। 1912 में उन्हें जम्मू भेज दिया गया और दो वर्ष बाद वे राज्यपाल के सचिव नियुक्त हुए।

1914 में वे युवराज हरि सिंह के निजी सचिव बने। पंडित प्रेमनाथ डोगरा युवराज हरि सिंह के केवल निजी सहायक ही नहीं, बल्कि उनके व्यक्तिगत मित्र भी थे। पंडित प्रेमनाथ जी बहुत मृदुल स्वभाव के थे और युवराज हरि सिंह का स्वभाव भी लगभग ऐसा ही था। इसीलिए दोनों में निकटता रही।

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जम्मू प्रांत के अंतर्गत भद्रवाह और किश्तवाड़ तब ऐसे स्थान थे, जो प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टि से तो बहुत आकर्षक थे किंतु स्थानीय निवासी रोगों और नशे के आदि थे। उनकी अकर्मण्यता से भुखमरी जैसी स्थिति बन गई थी। पंडित प्रेमनाथ जी के सुझाव पर हरि सिंह जी ने इन समस्याओं के निराकरण को प्राथमिकता दी तथा अंग्रेज सरकार से सहयोग भी लिया।

इन समस्याओं के निवारण के लिए उन्होंने अपने स्वास्थ्य की परवाह न करते हुए इन क्षेत्रों की अनेक यात्राएँ कीं, जिससे समस्या का निराकरण हुआ और इससे उनकी तथा कश्मीर राज्य दोनों की लोकप्रियता बढ़ी। प्रेमनाथ जी का मानना था कि यदि युवा पीढ़ी शिक्षा से जुड़ेगी तो व्यसनों से दूर रहेगी। इसके लिए उन्होंने इस क्षेत्र के युवाओं को शिक्षा हेतु वित्तीय सहायता और छात्रवृत्ति देने की योजना बनाई। शासन ने इसे स्वीकृति दी, जिससे बच्चों के विकास का नया मार्ग बना।

यह कश्मीर का एक पक्ष था, लेकिन कश्मीर का दूसरा पक्ष भी था — कट्टरपंथी अलगाववादियों का। कश्मीर राज्य की स्थिति विशेष थी — वहाँ जनसंख्या का बहुमत मुसलमानों का था, लेकिन शासक हिन्दू। कुछ कट्टरपंथी इसे मुद्दा बनाकर रियासत में अशान्ति और हिंसा फैला रहे थे। यह तनाव मुस्लिम लीग की सक्रियता के साथ और बढ़ा।

कट्टरपंथी युवा पीढ़ी को उत्तेजक बनाकर संगठित कर रहे थे, और इसमें एक प्रमुख चेहरा शेख अब्दुल्ला का था। शेख अब्दुल्ला के पूर्वज कश्मीरी पंडित थे। वे अपने नए मत के लिए समर्पित और कट्टर थे, फिर भी क्षेत्रीय हिन्दू समाज में उनके प्रति आत्मीय भाव था। कश्मीर के अलगाववादियों ने इस मनोविज्ञान को समझा और शेख अब्दुल्ला को ही आगे कर रखा था।

पंडित प्रेमनाथ जी सहित उस समय के प्रबुद्ध पंडितों की मान्यता थी कि पूजा-पद्धति बदल लेने से न पूर्वज बदलते हैं, न राष्ट्रीयता। वे सबको साथ लेकर चलना चाहते थे। इसके लिए कश्मीर राज्य में एक संस्था “प्रजा परिषद” का गठन किया गया, जिसमें पंडित प्रेमनाथ जी की भूमिका महत्वपूर्ण थी।

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इस संस्था के दो कार्य थे — पहला, अंग्रेजों से भारत की मुक्ति का अभियान, और दूसरा, कश्मीर में सब अपने पूर्वजों की विरासत के अनुरूप मिलजुलकर रहें। प्रेमनाथ जी के आह्वान पर कश्मीर में जागरण अभियान चला। समय के साथ युवराज हरि सिंह ने सत्ता संभाली और महाराजा बने। उन्होंने प्रेमनाथ जी को सेटलमेंट कमिश्नर नियुक्त किया।

1931 में गोलमेज सम्मेलन में महाराजा ने प्रेमनाथ जी की सलाह पर न केवल रियासतों, बल्कि पूरे भारत की स्वतंत्रता की बात रखी। यह बात अंग्रेजों को पसंद नहीं आई। “बाँटो और राज करो” अंग्रेजों की खुली नीति थी। इसके अंतर्गत अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग का समर्थन किया, जिससे देशभर में दंगे होने लगे।

कश्मीर में भी हिंसा और अराजकता का वातावरण बनने लगा। शेख अब्दुल्ला इस अलगाववाद और हिंसा की अगुवाई कर रहे थे। जगह-जगह कट्टरपंथी मुस्लिम भीड़ अल्पसंख्यक हिंदुओं को निशाना बनाने लगी। हिंसा को नियंत्रित करने की कमान पंडित प्रेमनाथ जी के हाथ में थी, लेकिन हिंसा बढ़ती रही। अंततः उन्होंने पद से त्यागपत्र देकर समाज जागरण के कार्य में जुट गए।

उन्होंने पूरे कश्मीर क्षेत्र की अनेक यात्राएँ कीं और नौजवानों में धार्मिक मान्यताओं से ऊपर उठकर सांस्कृतिक गौरव और राष्ट्रभाव जगाने का प्रयत्न किया। इसी बीच वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संपर्क में आए और 1940 में सियालकोट के दीवान मंदिर में संघ की शाखा आरंभ हुई। समय के साथ संघ का प्रभाव बढ़ा और लोगों में जागरूकता आई। पंडित प्रेमनाथ जी क्षेत्रीय संघचालक बने।

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भारत के विभाजन के साथ देश स्वतंत्र हुआ। भारी रक्तपात के बीच लाखों पीड़ित शरणार्थी भारत पहुंचे। इन असहाय लोगों की सहायता के लिए “राज्य राहत समिति” और “पंजाब राहत समिति” का गठन हुआ। इसी समय पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया।

भारत के गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल के आग्रह पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख गुरु गोलवलकर जी अक्टूबर माह में कश्मीर के महाराजा से मिलने गए। इस भेंट में सेतु के रूप में पंडित प्रेमनाथ डोगरा की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही।

अंततः कश्मीर का भारत में विलय हुआ। जनवरी 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद पंडित प्रेमनाथ जी को नजरबंद कर दिया गया। उन्होंने शेख अब्दुल्ला के अलगाववाद के विरुद्ध आंदोलन चलाया और 1950 में फिर गिरफ्तार हुए। अंतिम गिरफ्तारी के समय केंद्रीय मंत्री गोपाला स्वामी आयंगार के हस्तक्षेप से रिहा हुए।

पंडित प्रेमनाथ जी जम्मू प्रांत के युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत बन गए। 15 जनवरी 1952 को छात्रों ने राष्ट्रीय ध्वज फहराने की माँग पर आंदोलन किया और गिरफ्तार हुए। उन्हें श्रीनगर जेल में रखा गया। समय के साथ वे जनसंघ से जुड़े और पंडित श्यामा प्रसाद मुखर्जी के आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए।

आंदोलन की समाप्ति के बाद पंडित जी पार्टी को मजबूत करने में जुट गए। वे विधायक बने और बाद में भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे। अध्यक्ष पद से मुक्त होने के बाद उन्होंने अपना पूरा जीवन समाज सेवा को समर्पित कर दिया।

जीवन का अंतिम समय बीमारियों में बीता और 21 मार्च 1972 को कैंसर से पीड़ित होकर उन्होंने संसार से विदा ली। उनका जीवन राष्ट्र, समाज और संस्कृति के लिए समर्पण का एक उज्ज्वल उदाहरण है।