तप, त्याग और आस्था का जीवंत प्रतीक : निर्जला एकादशी

आज निर्जला एकादशी है, इस दिन देश के कुछ राज्यों में ठंडे मीठे पानी एवं शरबत की छबीलें लगाई जाती है, लोग सड़क पर चलते हुए राहियों को आग्रह करके ठंडा एवं मीठा जल पिलाते हैं। जबकि इस दिन निर्जल उपवास रहने की परम्परा भी है। यह समय होता है जेठ मास के नौतपा का, ज्योतिषशास्त्र के अनुसार यह समय सूर्य के रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश का होता है, इस समयावधि को ही नौतपा कहा जाता है। इस समय सूर्य की किरणे सीधी पृथ्वी पर पड़ती हैं और उसे तपाती हैं।
निर्जला एकादशी को भीमसेनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। इसके पीछे एक अत्यंत रोचक कथा है। महाभारत के अनुसार, पांडवों में भीमसेन को भोजन के प्रति विशेष आसक्ति थी। वे एकादशी का महत्व जानते थे, लेकिन उपवास की कठिनता के कारण उसका पालन नहीं कर पाते थे।
जब उन्होंने इस बात की चिंता महर्षि व्यास से प्रकट की, तो व्यासजी ने उन्हें केवल एक निर्जला एकादशी का व्रत करने का सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि यदि भीम इस कठिन व्रत को एक बार पूर्ण निष्ठा से करें, तो उन्हें सभी वर्ष की एकादशियों का पुण्यफल प्राप्त होगा। तब भीमसेन ने गंगा के किनारे बैठकर यह व्रत किया और अत्यंत कष्ट सहकर इसे पूर्ण किया। तभी से यह व्रत भीमसेनी एकादशी कहलाने लगा।
निर्जला एकादशी का व्रत अत्यंत कठोर होता है। व्रती को पिछली रात से ही जल तक त्याग कर उपवास की शुरुआत करनी होती है। यह व्रत प्रातःकाल स्नान करके भगवान विष्णु की पूजा से आरंभ होता है।
पूजन में पीले पुष्प, तुलसी-दल, धूप-दीप और पंचामृत आदि का प्रयोग होता है। दिन भर भजन, मंत्रोच्चारण, विष्णु सहस्रनाम और गीता पाठ किया जाता है। रात में जागरण भी इस व्रत का हिस्सा है। द्वादशी तिथि को सूर्योदय के बाद विष्णु को भोग अर्पित करके ब्राह्मणों को अन्नदान और वस्त्रदान किया जाता है, फिर पारण किया जाता है।
इस दिन का मुख्य उद्देश्य आत्मसंयम और इंद्रिय निग्रह है। जल जैसे मूलभूत तत्व से स्वयं को वंचित कर व्यक्ति अपने भीतर के धैर्य और तपश्चर्या को जाग्रत करता है। यह दिन केवल शरीर से उपवास का नहीं, बल्कि मन और आत्मा से भी उपवास का होता है—नकारात्मक विचारों, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या आदि से दूरी बनाना भी इसका अंग है।
भगवान विष्णु को समर्पित इस दिन व्रती अपनी भक्ति, श्रद्धा, और त्याग से मोक्ष प्राप्ति की कामना करता है। कहा जाता है कि इस दिन व्रत करने वाला व्यक्ति अपने सभी पापों से मुक्त हो जाता है और वैकुण्ठ धाम की प्राप्ति करता है।
निर्जला एकादशी का व्रत केवल व्यक्ति के आत्मशुद्धि का माध्यम नहीं, बल्कि समाज के प्रति जिम्मेदारी और संवेदना का भी प्रतीक है।
इस दिन दान का अत्यधिक महत्व होता है। खासकर जल, सत्तू, फल, छाता, वस्त्र, पंखा, मटका आदि का दान किया जाता है—जो गर्मी के मौसम में अत्यंत उपयोगी होते हैं।
यह परंपरा हमें पर्यावरण के प्रति जागरूकता और जरूरतमंदों के प्रति करुणा की शिक्षा देती है। चिलचिलाती गर्मी में जब शरीर को जल की सर्वाधिक आवश्यकता होती है, उस समय उपवास रखना आत्मसंयम का सर्वोच्च उदाहरण बनता है।
आज जब भौतिकता की दौड़ में लोग मानसिक और शारीरिक रूप से थकते जा रहे हैं, तब निर्जला एकादशी जैसा पर्व हमें आत्मनियंत्रण, संतुलन और आंतरिक शक्ति की अनुभूति कराता है। यह केवल धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि जीवन शैली में अनुशासन का अभ्यास है।
निर्जला एकादशी केवल व्रत का नाम नहीं है, यह जीवन के प्रति एक दृष्टिकोण है। यह दिन आत्ममंथन, आत्मनियंत्रण और परोपकार का संदेश देता है। यह व्यक्ति को धर्म, आस्था और कर्म के संतुलन के मार्ग पर ले जाता है।
वास्तव में, निर्जला एकादशी भारतीय संस्कृति की उस जड़ से जुड़ी हुई है, जहाँ तप, त्याग और तपस्या को जीवन की सर्वोच्च साधना माना गया है। यह पर्व हर व्यक्ति को याद दिलाता है कि भौतिक सुखों की नहीं, बल्कि आत्मिक संतुलन की तलाश में ही सच्चा आनंद छिपा है।