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विमान दुर्घटना में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु आज भी रहस्य : 18 अगस्त 1945

नेताजी सुभाषचंद्र बोस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अद्वितीय नायक थे, जिन्होंने अपने जीवन को देश की आज़ादी के लिए समर्पित किया। कटक, उड़ीसा में जन्मे सुभाषचंद्र बोस ने आईसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बावजूद अंग्रेजों की सेवा नहीं की और त्यागपत्र देकर स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए। वे न केवल राजनीतिक दृष्टि से दूरदर्शी थे, बल्कि सामाजिक चेतना और युवाओं को जाग्रत करने में भी अग्रणी रहे। उनके नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में साहसिक और निर्णायक भूमिका निभाई, और उनका जीवन साहस, देशभक्ति और अनुशासन का अनमोल उदाहरण है।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस का जीवन परिचय

नेताजी सुभाषचंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा प्रांत के कटक नगर में हुआ था। उनके पिता जानकीनाथ बोस अपने समय के सुप्रसिद्ध वकील थे और माता प्रभावती देवी भारतीय परंपराओं में रची-बसी एक सुगृहस्थ महिला थीं। वे आर्यसमाज से जुड़ी थीं। उन दिनों उड़ीसा भी बंगाल प्रांत के अंतर्गत था। पिता जानकीनाथ वकालत के साथ बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे। अंग्रेज सरकार ने उन्हें रायबहादुर की उपाधि से सम्मानित किया था।

माता प्रभावती देवी के मायके की पृष्ठभूमि स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी थी। नेताजी सुभाषचंद्र बोस कुल 14 भाई-बहन थे। सुभाष बाबू बचपन से ही बहुत कुशाग्र बुद्धि के धनी थे। उनके पिता उन्हें आईसीएस बनाना चाहते थे, जबकि माता उन्हें अंग्रेजों की सेवा से दूर, स्वाधीनता आंदोलन से जोड़ना चाहती थीं। इन दोनों प्रेरणाओं के साथ बालक सुभाष ने अपना जीवन आरंभ किया।

उन्होंने 1909 में प्रोटेस्टेंट स्कूल, कटक से प्राइमरी परीक्षा उत्तीर्ण की। आगे की पढ़ाई के लिए रेवेनशा कॉलेजियेट स्कूल में प्रवेश लिया। उन्हें अपने पाठ्यक्रम के अतिरिक्त भारतीय दर्शन आधारित साहित्य पढ़ने का शौक था। किशोरावस्था से ही उन्होंने विवेकानंद साहित्य का अध्ययन आरंभ किया। 1915 में उन्होंने इंटरमीडियेट की परीक्षा उत्तीर्ण की। छात्र जीवन से ही वे स्वराज्य की गतिविधियों से जुड़े हुए थे।

1916 में उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया। साल भर बाद वे कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज में प्रवेश ले लिए। इसके साथ ही उन्होंने सेना में भर्ती होने की तैयारी भी आरंभ की। 1919 में उच्चतम अंकों के साथ बीए परीक्षा उत्तीर्ण की। इस परीक्षा में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में दूसरा स्थान प्राप्त किया।

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पिता की इच्छा के अनुसार आईसीएस परीक्षा के लिए सितम्बर 1919 में इंग्लैंड चले गए। 1920 में आईसीएस परीक्षा उत्तीर्ण की। वरीयता सूची में उनका चौथा स्थान बना। लेकिन परीक्षा उत्तीर्ण करने के बावजूद 22 अप्रैल 1921 को आईसीएस से त्यागपत्र देकर भारत लौट आए।

1933 से 1936 तक वे यूरोप में रहे। वहाँ अंग्रेजों से भारत की मुक्ति के लिए विभिन्न राष्ट्र नायकों से संपर्क किया। 1934 में पिता का निधन हुआ। वे पिता की अंतिम क्रिया में भाग लेने कलकत्ता आए और गिरफ्तार कर लिए गए। कुछ दिन जेल में रहने के बाद भारत छोड़ने की शर्त पर रिहा हुए और लौटकर ऑस्ट्रेलिया चले गए। यहाँ उन्होंने एक पुस्तक लिखना आरंभ किया। टाइपिस्ट के रूप में एमिली शेंकल से उनकी मुलाकात हुई। दोनों के बीच निकटता बढ़ी और 1942 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भारतीय पद्धति से एमिली से विवाह कर लिया। उनकी एक बेटी हुई, जिसका नाम अनिता बोस रखा गया। नेताजी अपने जीवन में उसे केवल एक बार ही देख पाए, जब वह चार सप्ताह की थी। 18 अगस्त विमान दुर्घटना के समय अनिता केवल पौने तीन साल की थी। स्वतंत्रता आंदोलन में कुल ग्यारह बार गिरफ्तार हुए।

आईसीएस से त्यागपत्र देकर स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होना

पिता की इच्छा से सुभाष बाबू आईसीएस परीक्षा उत्तीर्ण कर लिए थे, लेकिन वे अंग्रेजों की सेवा नहीं करना चाहते थे। अंततः त्यागपत्र देकर स्वतंत्रता संग्राम में जुड़ गए। उनके बड़े भाई शरद चंद्र बोस भी स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े हुए थे। सुभाष बाबू बचपन से ही अपने बड़े भाई को आदर्श मानते थे। उनकी सलाह पर सुभाष बाबू ने दो धाराओं में एक साथ आरंभ किया। एक ओर कांग्रेस की सदस्यता लेकर स्वतंत्रता आंदोलन में सहभागिता और दूसरी ओर आर्यसमाज, स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविंद के चिंतन के अनुरूप सामाजिक जागरण।

इन दोनों धाराओं के साथ उन्होंने युवाओं को जाग्रत करके एक ऐसा विशाल समूह बनाना चाहा, जो अंग्रेजों से भारत की मुक्ति के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर सके। इसके लिए उन्होंने अनेक विभूतियों से मार्गदर्शन लिया, जिनमें चितरंजन दास और रवींद्रनाथ ठाकुर शामिल थे।

सुभाष बाबू ने 20 जुलाई 1921 को मुंबई में गांधीजी से भेंट की। गांधीजी से भेंट के बाद वे असहयोग आंदोलन से जुड़े। लेकिन 5 फरवरी 1922 को गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। इससे नेताजी सुभाषचंद्र बोस सहमत नहीं थे, लेकिन अनुशासन का पालन करते हुए शांत रहे। असहयोग आंदोलन वापस लेने के पक्ष में चितरंजन दास भी नहीं थे।

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उन्होंने कांग्रेस के अंतर्गत ही स्वराज पार्टी का गठन किया और इसी बैनर से कलकत्ता महानगर पालिका का चुनाव लड़ा। दासबाबू महापौर और नेताजी प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बने। इस परिषद ने कुछ मार्गों के नाम भारतीय मनीषियों के नाम पर रख दिए। 1927 में जब साइमन कमीशन भारत आया, बंगाल में इसके विरोधी आंदोलन का नेतृत्व सुभाष बाबू ने किया और गिरफ्तार हुए।

असहयोग आंदोलन की वापसी के बाद गांधीजी से उनके दो और मुद्दों पर मतभेद हुए। एक, 1928 के कांग्रेस अधिवेशन में कुछ नेता पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव लाना चाहते थे, लेकिन गांधीजी तैयार नहीं थे। दूसरा, क्रांतिकारी सरदार भगतसिंह को फांसी देने के विरोध में वे थे। गांधीजी के प्रयासों से अहिंसक आंदोलन के सभी बंदियों को रिहा कर दिया गया। लेकिन कांग्रेस ने भगतसिंह सहित सभी क्रांतिकारियों के पक्ष में कोई कदम नहीं उठाया। नेताजी ने अपनी बात कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं के सामने रखी, लेकिन गांधीजी क्रांतिकारी आंदोलन के पक्षधर नहीं थे। इस कारण नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने खुलकर अपनी नाराज़गी व्यक्त की।

समय के साथ कांग्रेस में नेताजी की लोकप्रियता बढ़ी। उन्होंने 1938 के हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता की। 1939 में त्रिपुरी अधिवेशन हुआ। इसमें गांधीजी के विरोध के बावजूद कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्वाचित हुए। इस चुनाव परिणाम को गांधीजी ने अपनी व्यक्तिगत पराजय माना। नेताजी ने उनकी भावना का सम्मान करते हुए अधिवेशन के तुरंत बाद कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया और 3 मई 1939 को फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की। वे इसके अध्यक्ष बने। अन्य पदाधिकारियों में एसएस कविशर, लाल शंकरलाल, विश्वंभर दयाल त्रिपाठी, खुर्शीद नरीमन, अन्नपूर्णिया, सेनापति बापट, हरिविष्णु कामथ, पसुम्पोन यू. मुथुरामलिंगम थेवर और शील भद्र यागी शामिल थे।

आजाद हिन्द फौज के कमांडर बने नेताजी सुभाषचंद्र बोस

नेताजी के नेतृत्व में फॉरवर्ड ब्लॉक पूरे भारत में सामाजिक चेतना जगाने के काम में लग गया। वे इसे एक सशस्त्र सेना का स्वरूप देना चाहते थे। इसी बीच जापान यात्रा में उनकी भेंट सरदार मोहन सिंह से हुई। उन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया में “इंडियन नेशनल आर्मी” (INA) का गठन किया था। 1941 में इसके जनरल मोहन सिंह ने इसकी कमान नेताजी को सौंप दी।

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नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने 1942 में इसका पुनर्गठन किया और हिंदी में इसका नाम आजाद हिन्द फौज रखा। अंग्रेजों से भारत की मुक्ति इसका प्रमुख उद्देश्य था। नेताजी को जापान से पूर्ण समर्थन और सहयोग मिला। इसके अंतर्गत एक महिला ब्रिगेड भी बनी। प्रारंभ में इस सेना में लगभग सोलह हजार सैनिक थे। समय के साथ इनकी संख्या बढ़कर साठ हजार से अधिक हो गई।

आजाद हिन्द फौज ने अपना सैन्य अभियान शुरू किया। सिंगापुर, म्यांमार से लेकर पोर्ट ब्लेयर तक के द्वीपों पर उनका अधिकार हो गया। उन्होंने सिंगापुर को अपने सैन्य अभियान का केंद्र बनाया। 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर में सेना को संबोधित करते हुए उन्होंने “दिल्ली चलो!” का आवाहन किया। जापानी सैन्य शक्ति भी उनके साथ थी। म्यांमार से लेकर इम्फाल और कोहिमा भी उनके अधिकार में आ गए।

21 अक्टूबर 1943 को नेताजी ने अपनी अस्थायी सरकार बनाई, जिसे आजाद हिन्द सरकार का नाम दिया। जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली, मांचुको, आयरलैंड सहित 11 देशों ने इस सरकार को मान्यता दी। उन्होंने आजाद रेडियो और अपनी मुद्रा भी शुरू की। अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह के नाम बदल दिए। विजित क्षेत्रों में अपना प्रशासन सुदृढ़ करके आजाद हिन्द फौज आगे बढ़ी।

4 अप्रैल 1944 से 22 जून 1944 तक कोहिमा पर अधिकार के लिए भीषण युद्ध हुआ। 6 जुलाई 1944 को नेताजी ने रंगून रेडियो से गांधीजी को आजाद हिन्द फौज की सफलता से अवगत कराया और निर्णायक युद्ध में विजय के लिए उनका आशीर्वाद भी मांगा। कोहिमा और इम्फाल के युद्ध में आजाद हिन्द फौज को भारी नुकसान हुआ, जिससे सेना आगे नहीं बढ़ सकी और अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने के अभियान में लगी।

इस बीच अमेरिका द्वारा एटम बम गिराने से द्वितीय विश्व युद्ध का दिशा ही पलट गई। जापान ने समर्पण कर दिया था, लेकिन नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने हथियार नहीं डाले। वे रूस से सैन्य समझौता करने रवाना हुए, और 18 अगस्त 1946 को विमान दुर्घटना हो गई।