भारत में भरता है नागपंचमी को सांपों का अनूठा मेला

नागपंचमी हिंदू धर्म का एक प्रमुख त्योहार है, जो श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को मनाया जाता है, जो आमतौर पर जुलाई या अगस्त में पड़ती है। यह त्योहार सांपों की पूजा से जुड़ा हुआ है, विशेष रूप से नाग देवता शेषनाग की। हिंदू धर्म में सांपों को पवित्र माना जाता है और उन्हें दिव्य शक्तियों से जोड़ा जाता है। इस त्योहार का महत्व भारत के विभिन्न क्षेत्रों में देखा जा सकता है, जहां इसे विभिन्न परंपराओं और रीति-रिवाजों के साथ मनाया जाता है।
हिंदू पौराणिक कथाओं में सांपों का विशेष स्थान है। भगवान शिव के गले में लिपटे सांप और भगवान विष्णु के शेषनाग के रूप में सांपों को पूजनीय माना जाता है। एक कथा के अनुसार, राजा जनमेजय ने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए सर्प यज्ञ किया था, जिसे सांपों ने ही रोक दिया था, जिसके बाद सांपों की पूजा की परंपरा शुरू हुई। बिहार के सिंहिया क्षेत्र में नागपंचमी का जश्न एक अद्वितीय और प्राचीन परंपरा के रूप में मनाया जाता है, जो लगभग 300 वर्षों से चली आ रही है। इस मेले में सांपों के साथ किए जाने वाले अनोखे रीति-रिवाजों के कारण यह देशभर में प्रसिद्ध है।
बिहार के समस्तीपुर जिले के विभूतिपुर क्षेत्र में स्थित सिंहिया घाट पर हर साल नागपंचमी के अवसर पर एक विशेष मेला लगता है। यह मेला बूढ़ी गंडक नदी के किनारे आयोजित किया जाता है और इसमें देश के विभिन्न हिस्सों से श्रद्धालु आते हैं। इस मेले की खासियत है कि यहां सांपों की पूजा एक अलग तरीके से की जाती है, जहां सांपों को नदी से निकालकर उनके साथ विभिन्न रीति-रिवाज किए जाते हैं। यह परंपरा लगभग 300 वर्षों से चली आ रही है और इसका इतिहास इस क्षेत्र की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत से गहराई से जुड़ा हुआ है।
मेला मिथिला क्षेत्र के लिए विशेष महत्व रखता है और इसमें खगड़िया, सहरसा, बेगूसराय और मुजफ्फरपुर जैसे पड़ोसी जिलों से लोग शामिल होते हैं। यह आयोजन न केवल धार्मिक उत्सव है बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक एकता का भी प्रतीक है। मेले का आयोजन स्थानीय समुदाय और प्रशासन के सहयोग से किया जाता है, जो इसे एक सुव्यवस्थित और सुरक्षित आयोजन बनाता है।
सिंहिया के नागपंचमी मेले की शुरुआत मां भगवती मंदिर में पूजा-अर्चना से होती है। यह मंदिर सिंहिया बाजार में स्थित है और मां दुर्गा का एक रूप मां भगवती को समर्पित है। यहां श्रद्धालु अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए प्रार्थना करते हैं। पूजा के बाद एक शोभायात्रा निकाली जाती है, जो बूढ़ी गंडक नदी के किनारे जाती है। इस शोभायात्रा में भगत (सांपों के बैगा) और श्रद्धालु शामिल होते हैं, जो पारंपरिक वेशभूषा में नजर आते हैं।
नदी के किनारे पहुंचने पर भगत विशेष रीति-रिवाज करते हैं, जिसमें नदी और नाग देवताओं को प्रणाम करना शामिल है। इसके बाद, भगत नदी में डुबकी लगाते हैं और सांपों को अपने हाथों में लेकर बाहर आते हैं। ये सांप कभी उनके मुंह से पकड़े जाते हैं, तो कभी पूंछ से। इस दृश्य को देखने के लिए हजारों लोग एकत्र होते हैं, जो इस मेले की अनूठी प्रकृति को दर्शाता है।
मेले का सबसे चर्चित हिस्सा है जब श्रद्धालु सांपों को अपने गले में डालकर, बांहों पर लपेटकर या यहां तक कि सिर पर रखकर घूमते हैं। कुछ लोग सांपों को अपने मुंह में भी रखते हैं, जो उनकी आस्था और साहस का प्रतीक है। इन सांपों में ज्यादातर गैर-जहरीले होते हैं, लेकिन फिर भी इन्हें संभालने का तरीका दर्शकों को हैरान कर देता है। पूरे मेले के दौरान भक्ति भजनों और मंत्रों की गूंज रहती है, जो एक आध्यात्मिक माहौल बनाता है। रीति-रिवाज पूरे होने के बाद सांपों को सुरक्षित स्थानों पर, जैसे नदी या पास के जंगलों में, छोड़ दिया जाता है। यह प्रथा प्रकृति के प्रति सम्मान और सांपों की सुरक्षा को सुनिश्चित करती है।
सिंहिया का नागपंचमी मेला केवल एक त्योहार नहीं बल्कि एक गहरी आस्था और परंपरा का प्रतीक है। इस मेले में सांपों की पूजा का विशेष महत्व है, क्योंकि यह माना जाता है कि इस दिन सांपों की पूजा करने से मनोकामनाएं पूरी होती हैं। विशेष रूप से, बच्चे न होने वाली महिलाएं इस मेले में शामिल होकर संतान प्राप्ति की कामना करती हैं। यह विश्वास है कि मां विष्हरी, जो सांपों के जहर और काटने से बचाने वाली देवी हैं, उनकी प्रार्थनाओं को स्वीकार करती हैं।
यह मेला अन्य नागपंचमी उत्सवों से अलग है क्योंकि यहां सांपों के साथ सीधे संपर्क और उन्हें संभालने की परंपरा है। यह मानव और प्रकृति के बीच सद्भाव का एक अनोखा उदाहरण है, जहां सांप, जिन्हें आमतौर पर डरावना माना जाता है, पूजनीय और शुभ माने जाते हैं। यह मेला न केवल धार्मिक आस्था को दर्शाता है बल्कि सांस्कृतिक विरासत को भी बनाए रखता है।
मेले का सामाजिक महत्व भी कम नहीं है। यह आयोजन लोगों को एक साथ लाता है, जहां विभिन्न समुदायों के लोग अपनी कहानियां साझा करते हैं और सामुदायिक बंधन को मजबूत करते हैं। मेले में संगीत, नृत्य और सामूहिक भोज का आयोजन होता है, जो इसे एक समग्र उत्सव बनाता है।
2025 में, सिंहिया का नागपंचमी मेला 16 जुलाई को आयोजित हुआ, जिसमें हजारों श्रद्धालुओं ने भाग लिया। फ्री प्रेस जर्नल की रिपोर्ट के अनुसार, इस मेले में सांपों के साथ किए गए रीति-रिवाजों को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग आए। एक भगत ने नदी से सैकड़ों सांप निकाले, जिसे देखकर भीड़ में हर्ष और उत्साह का माहौल था। इस मेले की तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए, जिससे इसकी लोकप्रियता और बढ़ी। मेले में बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक सभी ने सांपों को गले में लपेटकर या हाथों में पकड़कर उत्सव में हिस्सा लिया। यह दृश्य न केवल आश्चर्यजनक था बल्कि यह भी दर्शाता है कि आधुनिक युग में भी यह परंपरा कितनी जीवंत है।
सिंहिया के नागपंचमी मेले की तैयारी महीनों पहले शुरू हो जाती है। स्थानीय समुदाय, धार्मिक नेता, और भगत मिलकर इस आयोजन को सफल बनाने के लिए काम करते हैं। मां भगवती मंदिर को सजाया जाता है और भगत सांपों को सुरक्षित तरीके से इकट्ठा करते हैं। स्थानीय प्रशासन भीड़ नियंत्रण, सुरक्षा, और चिकित्सा सुविधाओं का ध्यान रखता है, क्योंकि सांपों के साथ काम करना जोखिम भरा हो सकता है। इसके बावजूद, मेले का रिकॉर्ड सुरक्षित रहा है, जो इसकी कुशल व्यवस्था को दर्शाता है।
समुदाय की भागीदारी इस मेले की सफलता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। ग्रामीण लोग स्वयंसेवक के रूप में काम करते हैं और आयोजन के प्रत्येक पहलू में योगदान देते हैं। यह मेला न केवल एक धार्मिक उत्सव है बल्कि सामुदायिक एकता और सांस्कृतिक गर्व का भी प्रतीक है। इसके अलावा, यह मेला स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी बढ़ावा देता है, क्योंकि विक्रेता धार्मिक सामान, भोजन, और स्मृति चिह्न बेचकर आजीविका अर्जित करते हैं।
सिंहिया का नागपंचमी मेला बिहार की सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत का एक अनूठा और प्रेरणादायक उदाहरण है। लगभग 300 वर्षों से चली आ रही यह परंपरा मानव और सरीसृपों के बीच सद्भाव का प्रतीक है, जहां सांपों को भय की वस्तु न होकर दिव्य शक्ति के रूप में देखा जाता है। यह मेला न केवल आस्था और परंपरा का प्रतीक है बल्कि समुदाय की एकता और सांस्कृतिक पहचान को भी मजबूत करता है। आधुनिकीकरण के युग में भी इस तरह के परंपरागत उत्सवों का बने रहना भारत की विविध और गहरी सांस्कृतिक धरोहर को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है।