नदी के नाम पैगाम : समाज की सोई चेतना को झकझोरती कविताएँ

(ब्लॉगर एवं पत्रकार )
पानी और प्राणी एक -दूसरे के पूरक हैं। दोनों शब्दों में कुछ -कुछ ध्वनि -साम्य भी है। दोनों एक -दूजे पर आश्रित हैं। जहाँ पानी के स्रोत होंगे, वहीं प्राणियों के जीवन की हलचल भी होगी। ज़िन्दा रहने के लिए पानी ज़रूरी है। इसीलिए दुनिया में आदिकाल से (रेगिस्तानी इलाकों को छोड़कर) मानव सभ्यता भी नदियों के किनारे ही विकसित होती आई है। नदियाँ सम्पूर्ण मानव समाज और जीव -जगत की जीवन -रेखाएँ हैं। नदियों के परोपकारों के बदले हम उन्हें क्या दे रहे हैं? सभ्यता के विकास क्रम में मनुष्य ने नदियों के किनारे अपने कबीलों के साथ रहना -बसना शुरु किया। नदियाँ इंसानों के साथ -साथ संसार के सभी जीवों की प्यास बुझाती हैं। खेतों के लिए सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराती हैं, और अनाज उत्पादन में सहायक बनकर इंसानों की भूख मिटाती हैं। मानव -सभ्यता को नदियों के इन परोपकारों का सदैव ऋणी रहना चाहिए। लेकिन उनके इन परोपकारों के बदले आज हम उन्हें दे क्या रहे हैं? सुभाष पांडेय के कविता-संग्रह ‘नदी के नाम पैगाम’ की कविताओं में यह सवाल भी ध्वनित होता है, बशर्ते भावुक हृदय के पाठक इसे महसूस करें। उनके इस कविता -संग्रह में 30 कविताएँ हैं। इनमें से 16 कविताएँ नदियों को समर्पित हैं। बाकी 14 कविताएँ भी अपने परिवेश और आम जन -जीवन से जुड़ी हुई हैं। समाज के नाम नदियों का पैगाम
नदी से जुड़ी कविताओं को पढ़ें तो हमें यह अनुभव होगा कि ‘नदी के नाम पैगाम’ सिर्फ़ किसी एक नदी के नाम नहीं, बल्कि कवि का यह पैगाम सम्पूर्ण मानव समाज के लिए है। अगर इन कविताओं को ‘समाज के नाम नदियों का पैगाम’ कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा। इनमें नदियों की वेदना और करुण पुकार है। यह दुर्भाग्य है कि नदियों सहित तमाम प्राकृतिक जल स्रोतों के प्रति आज हमारे समाज में आम तौर पर गंभीर उदासीनता है। हमारी सामाजिक चेतना गहरी नींद में है। ऐसे माहौल में सुभाष पांडेय की ये कविताएँ समाज की सोई हुई चेतना को झकझोरती हैं, ताकि उसकी यह उदासीनता टूटे और अपनी माताओं (नदियों) की रक्षा के लिए जागृति आए।
किसी से छिपी नहीं हैं हमारी ‘माताओं’ की हालत
नदियाँ मानव सभ्यता और सम्पूर्ण प्राणी जगत को अपनी संतान की तरह पालती -पोसती हैं। यही कारण है कि हमारे देश में नदियों को ‘माता’ कहकर उनकी पूजा की जाती है। लेकिन आज हमारी इन माताओं की हालत किसी से छिपी नहीं है। अस्तित्व पर मंडराता गहरा संकट
तेज गति से बढ़ते शहरीकरण और तीव्र औद्योगीकरण से मनुष्य की जीवन शैली भी तेजी से बदल रही है। आधुनिक बन चुके और बनते जा रहे शहरों और कस्बों से हर दिन निकलते सैकड़ों – हज़ारों टन कचरे और नगरों तथा महानगरों में उद्योगों से निकलते जहरीले अनुपयोगी पानी से हमारी जीवनदायिनी माताओं का पवित्र आँचल तार-तार होने लगा है। नदियाँ सागरों से मिलती हैं, लेकिन प्रदूषित नदियों का पानी सागरों को भी प्रदूषित कर रहा है। वनों की बेरहम कटाई से पहाड़ उजड़ रहे हैं। फलस्वरूप पहाड़ी झरने सूखकर मुरझाते जा रहे हैं। उनका पानी नदियों तक पहुँचेगा भी कैसे? इस वजह से भी नदियाँ बेजान होने लगी हैं। उनके अस्तित्व पर गहरा संकट मंडरा है। जब नदियों का अस्तित्व संकट में होगा तो मानव -सभ्यता भी उस संकट से भला कैसे बच पाएगी?
व्यथित और विचलित हृदय की अभिव्यक्ति
छत्तीसगढ़ की एक प्रमुख नदी इंद्रावती के किनारे बस्तर जिले के जगदलपुर में एक जुलाई 1947 को जन्मे और पले -बढ़े और वहीं निवासरत सुभाष पांडेय प्रदेश के वरिष्ठ साहित्यकार हैं। यह जानना दिलचस्प होगा कि इस कविता – संग्रह में ‘अपनी बात’ के अंतर्गत उन्होंने लिखा है कि वे मूलतः कवि नहीं हैं. प्रारंभ से ही चित्रकारी और व्यंग्य -लेखन के प्रति उनका अनुराग रहा है. स्वान्तः सुखाय’ यदा -कदा वे कविताएँ भी लिखते रहे. लेकिन मुझे लगता है कि स्वयं को मूलतः कवि नहीं मानना उनका बड़प्पन है। यदा-कदा स्वान्तःसुखाय कविताएँ लिखते रहने की विनम्र स्वीकारोक्ति के बावज़ूद उनकी ये कविताएँ उन्हें एक गंभीर कवि के रूप में प्रतिष्ठित करती हैं। नदियों की वर्तमान में हो रही दुर्दशा पर उनकी कविताएँ एक व्यथित और विचलित हृदय की अभिव्यक्ति है।
कविताओं में नदियों को बचाने का संदेश
सुभाष जी जहाँ रहते हैं, उस बस्तर अंचल में छोटे – बड़े कई पहाड़ी नदी -नाले हैं. कोई भी कवि अपने परिवेश से प्रभावित होकर ही कविताएँ रचता है। चाहे वह सामाजिक परिवेश हो या प्राकृतिक। सुभाष पाण्डेय की ये कविताएँ भी उनके परिवेश से प्रभावित हैं। वैसे तो उनके संग्रह की सभी कविताएँ दिल को छू जाती हैं, लेकिन नदी पर लिखी कविताओं ने मुझे काफी प्रभावित किया। इन कविताओं के माध्यम से कवि देश, दुनिया और समाज को यह संदेश देना चाहते हैं कि धरती पर मानवता को बचाने के लिए नदियों को बचाया जाए। आज नदियाँ पीड़ित हैं। कवि ने प्रतीकों के जरिए उनकी पीड़ा को शब्द दिए हैं।
नदियाँ बोल नहीं सकतीं लेकिन… नदियाँ बोल नहीं सकतीं और ख़ामोश होकर सब कुछ सहन करती रहती हैं, लेकिन दर्द तो उन्हें भी महसूस होता है। नदियों की सहन -शक्ति जब बर्दाश्त से बाहर हो जाती है तो उनका दर्द खतरनाक सैलाब बनकर कैसी तबाही लाता है, इसे हम इस बार मानसून के दौरान देश के कई राज्यों में देख चुके हैं। बहरहाल नदियों के इस दर्द को कवि सुभाष पांडेय ने हृदय की गहराइयों से महसूस किया है और कविताओं में नये प्रतीकों और नये बिम्बों के साथ अपनी अभिव्यक्ति दी है।
संग्रह की अपनी पहली कविता में कवि लिखते हैं –
नदी की कोख सूनी है,
इन दिनों गोद ले लिया है नदी ने
मृग-मरीचिका को तो फिर यह तय है,
हम देखेंगे रेतीले सपनों में
जल -प्लावन के भित्ति चित्र
सिर्फ़ उनकी दूरबीन से
हम पढ़ेंगे नदी की स्लेट पर
‘नदी का न’ और
लुप्त जल प्रपातों का संगीतमय इतिहास/
देखेंगे नदी की कुंडली में
नदी का अंतरिक्ष और नदी का
विस्मृत गमन पथ ।
इस कविता में नदी की कोख सूनी होना, नदी के द्वारा मृग-मरीचिका को गोद लेना, रेतीले सपनों में जल -प्लावन के भित्ति चित्र और नदी का अंतरिक्ष जैसे बिम्ब हमें चौंकाते हैं. नदी पर सुभाष पांडेय की दूसरी रचना भी उनके कवि हृदय की बेचैन अभिव्यक्ति है. इस कविता का भी एक अंश देखिए –
वे भी क्या दिन थे
जब हम नदी के साथ रहते थे,
नदी के साथ बहते थे,
आपस में सुनते -कहते थे नदी से
जलतरंग की धुन सुनते हुए
हमने नहीं की ऐसी ज़िद
कभी उनकी तरह,
कि हम देखेंगे वर्षा ऋतु में
बलखाती, इठलाती
नदी का नागिन नृत्य
चंद सिक्के न्योछावर करते हुए।
उनकी तर्ज पर हमने कभी
नहीं मांगा नदी से नदी होने
का वाटर प्रूफ सबूत
और नदी के खोए हुए
जल -वैभव का
प्रामाणिक दस्तावेज़
मान-पत्र की शक्ल में ।
हमने ज़िद नहीं की कभी,
कि हम देखेंगे
नदी के अंतस में विस्थापित
जलपरियों का क्रीडांगन।
इस रचना में नदी से नदी होने का वाटर प्रूफ सबूत मांगना, खोए हुए जल -वैभव का प्रामाणिक दस्तावेज़ मांगना (वह भी मान पत्र की शक्ल में और विस्थापित जल-परियों का क्रीडांगन जैसे प्रयोग पाठकों को प्रभावित करते हैं। नदियों को समर्पित अपनी एक अन्य कविता में कवि का यह बयान हमें स्तब्ध कर देता है —
मैं चाहता हूँ नदी का
दिवा स्वप्न सहगामी बनना
एक शर्त पर ।
नदी के आँसू नहीं पोछेंगे
वे लोग, जिनके हाथ सने हैं
नदी के ख़ून से,
जो कर चुके हैं दिवंगत नदी का
पिण्डदान,
आती है दुर्गन्ध जिनके श्रद्धांजलि-पुष्प
और शोक -संवेदनाओं से,
कि जिनके पैरों तले रौँदी गई थी
नदी की आत्मा।
अपनी चौंकाने वाली भावनाओं के साथ इसी कविता में वह आगे लिखते हैं –
परियोजनाओं की पोशाक में सजी
विकलांग नदी को
बना दिया गया गूँगी नृत्यांगना
दरबारियों के मनोरंजन के लिए ।
नदी की डाक -पेटी में
नहीं डाला गया कभी
सागर -मिलन का प्रेम-पत्र
इन पंक्तियों में ‘नदी की डाक -पेटी’ और ‘सागर-मिलन का प्रेम-पत्र’ जैसे बिम्ब मर्मस्पर्शी हैं। आधुनिक सभ्यता के इस दौर में लगातार बिगड़ते पर्यावरण के बीच क्या नदियाँ मरने लगी हैं? कवि चिंतित हैं। किसी नदी के दिवंगत हो जाने की दुःखद कल्पना करते हुए वे लिखते हैं –
सुना है दिवंगत नदी
हमारी तसल्ली के लिए
ले लेगी जल -समाधि
सदा के लिए अपनी सतह के
रेतीले श्मशान में.
तो हम करेंगे अर्पित मुट्ठी भर रेत
श्रद्धांजलि स्वरुप
नदी की याद में हँसते हुए।
संग्रह में ‘अलविदा नदी’ शीर्षक कविता भी हृदय को व्यथित करती है –
नदी से निर्वासित
जल -पाखियों का प्रलाप
सुनो साफ़-साफ़,
कहाँ गए दादुर और
पानी के साँप?
कहाँ गईं पानी की मछलियाँ,
पानी में छूटे जाल,
कहाँ गईं सीपियाँ,
कहाँ गए शंख?
पानी तो रहा नहीं,
शेष रहा पंक।
सभी कविताएँ एक से बढ़कर एक
किसी एक कविता संग्रह में नदियों पर अलग-अलग तरह की इतनी कविताओं का एक साथ होना एक अनोखी बात है। इनमें से हर कविता में नदियों की चिन्ताजनक हालत को लेकर कवि ने पूरी भावुकता के साथ अपनी बात रखी है। ये सभी कविताएँ एक से बढ़कर एक हैं। इसलिए संग्रह को पढ़कर इन पर आलेख लिखते समय मुझ जैसे सामान्य लेखक के सामने यह दुविधा है कि इनमें से किस कविता का उल्लेख किया जाए और किसे छोड़ा जाए, फिर भी मैंने स्वयं के हृदय को विचलित करती कुछ कविताओं के अंशों को प्रस्तुत किया है। संग्रह की शेष 14 कविताओं में भी हमारे समय के समाज की अनेकानेक विसंगतियों पर कवि की भावनाएँ ख़ूब छलक रही हैं। कवि ‘उनका इंद्रधनुष’ शीर्षक कविता में लिखते हैं –
इंद्रधनुष देखे हुए
एक अर्सा बीत गया.
अब तो दिखाई देता नहीं,
प्रतिबंध लगा है शायद.
अब जबकि उनके आदेशानुसार
बादल छाते हैं, वर्षा होती है,
धूप निकलती है तो फिर
इंद्रधनुष की प्रत्यंचा भी
उनके नियंत्रण में होगी,
ताकि देख सकें वे
चाँदनी रात में भी इंद्रधनुष की छटा।
जीवन में तरलता का पर्याय होती है नदी ; हिमांशु झा
संग्रह के प्राक्कथन में वरिष्ठ साहित्यकार हिमांशु शेखर झा के विचार भी बहुत मूल्यवान और महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने लिखा है -” जीवन में तरलता का पर्याय होती है नदी। हमारी जीवन -रेखा है नदी। माँ ही तो है नदी। ” हिमांशु जी अपने प्राक्कथन में आगे लिखते हैं -“इन कविताओं को पढ़ते हुए, पाठक इनके प्रतीकों, बिम्बों, लय-शैली की विशेषता, नदी की क्षिप्र गति को समाप्त करने वाले गंभीर अवरोध और विलोपन की अनुभूति को तीव्रता से महसूस करेंगे। कहा जाता है कि बस्तर की इंद्रावती नदी का अपहरण जोरा नाले ने कर लिया है। इसके अलावा न जाने कितनी नदियाँ हैं, जिन्हें प्रदूषित करने में हमने कोई कसर नहीं छोड़ी है. यह कविता संग्रह इन सबकी बात कहता है।”
अधिवक्ता, रंगकर्मी, व्यंग्यकार और चित्रकार भी हैं सुभाष पांडेय
पेशे से अधिवक्ता सुभाष पांडेय अपने गृह नगर जगदलपुर में तीन दशकों तक पत्रकार भी रह चुके हैं। वह एक अच्छे रंगकर्मी और चित्रकार भी हैं। उन्होंने ‘नदी के नाम पैगाम’ शीर्षक अपने संग्रह की कविताओं में स्वयं के हाथों बने कई रेखांकन भी दिए हैं। यह उनका स्वयं का प्रकाशन है। आवरण पृष्ठ को मिलाकर 100 रूपए मूल्य का यह संग्रह 64 पेज का है। सुभाष जी के इस कविता -संग्रह का आवरण चित्र संदीप राशिनकर ने बनाया है। अंतिम आवरण पृष्ठ पर सुभाष जी का परिचय दिया गया है। सुभाष पांडेय जगदलपुर में विगत लगभग चार दशकों से साहित्य, रंगकर्म, फोटोग्राफी और पेंटिंग के क्षेत्र में सक्रिय हैं।
समय निकालकर वन -भ्रमण और अपने क्षेत्र के ग्राम्य परिवेश का अध्ययन और उस पर मनन भी करते हैं। वे अनेक स्थानीय साहित्यिक -सांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। उन्होंने आकाशवाणी, दूरदर्शन और रंगमंचों के लिए हिन्दी और बस्तर की प्रमुख लोकभाषा हल्बी में सौ से ज्यादा नाटकों का लेखन और निर्देशन करते हुए उनमें अभिनय भी किया है। उनके द्वारा लिखित हास्य -तरंग और झलकियों का आकाशवाणी के जगदलपुर केन्द्र से प्रसारण भी होता रहा है। सुभाष जी व्यंग्यकार भी हैं। उन्होंने हिन्दी में सौ से ज्यादा व्यंग्य लेख लिखे हैं।
उनकी प्रकाशित कृतियों में व्यंग्य -संग्रह ‘बालम की प्रेमकथा’ और व्यंग्य -नाटक ‘फुग्गा’, हल्बी हास्य-व्यंग्य मुक्तावली ‘ढंगनाच’ शामिल हैं। उन्होंने भारतीय भाषा संस्थान मैसूर के लिए अंग्रेजी शब्दकोश का बस्तर की मुख्य लोकभाषा हल्बी में अनुवाद भी किया है। इसके अलावा भारतीय पुस्तक न्यास, नई दिल्ली से हल्बी बाल -साहित्य का उनका अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है। बहरहाल उनकी साहित्यिक -सांस्कृतिक उपलब्धियों की लम्बी फेहरिस्त में ‘नदी के नाम पैगाम’ के शामिल होने की उन्हें हार्दिक बधाई।
आलेख -स्वराज्य करुण