पश्चिम द्वारा जनजातीय नरसंहार का दिवस है मूलनिवासी दिवस
“द सोशल कांट्रैक्ट्स” – जीन सेक्स रूसो की इस पुस्तक की प्रथम पंक्ति है – “मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ था, और वह हर जगह जंजीरों में जकड़ा हुआ है।” यही वह बिंदु है, जो पश्चिमी और इस्लामिक चिंतन से हम भारतीयों को अलग-विलग करता है। सनातनी भारतीय समाज सदा-सदा से ऐसी लोकतांत्रिक, अनुशासित व्यवस्था है, जो उत्तरोत्तर सुधार, स्वतंत्रता के साथ-साथ साधना की ओर बढ़ती है। ये साधना कई रूपों में हमारे साथ चलती है। ये जड़ता से चेतना की ओर बढ़ती हुई यात्रा होती है। पश्चिमी चिंतन चेतना से जड़ता की ओर बहुतेरे ही जाता रहता है।
इसका ज्वलंत उदाहरण राजनैतिक कारणों से उपजाया गया नौ अगस्त का ‘विश्व जनजातीय दिवस’ है। ये विश्व भर को अपने बॉयस, अपने दृष्टिकोण, अपने छद्म, अपने दुराग्रह से बाँधने का कुत्सित प्रयास है। ये विश्व भर के जनजातीय समाज की आँखों में मिर्च झोंकने का दुष्प्रयास है। ये एक विलेन का इतना छद्म सुंदरता से भरा दुराभिनय है कि इसके जाल में समूचे विश्व का जनजातीय समाज फँसता जा रहा है। विश्व जनजातीय दिवस उत्सव, एक सुंदर मकड़ी का अतिसुन्दर मकड़जाल है।
ये आयोजन अपने ही पुरखों के भीषण नरसंहार को भुला दिए जाने के षड्यंत्र है, और इस शोक दिवस को गौरव दिवस के रूप में मनाने की दुरभिसंधि (साजिश) भी! इस अन्तरराष्ट्रीय जनजातीय दिवस की गिद्ध दृष्टि में, लगभग दो सौ आदिवासी समूह की चेतना है। उनकी चेतना में समाये उनके पुरखों के जेनोसाइड पर है। पश्चिमी समाज विश्व भर के जनजातीय मानस से उनके नरसंहार को, होलोकास्ट को, मसेकर को, मॉस स्लाटरिंग को, ब्लड बाथ को, एनिहिलेशन को, मॉस मरडरिंग को उनकी स्मृति से लोप या एमनेसिया करा देने का एक फैशनेबल किंतु कुत्सित प्रयास है। ये जनजातीय विमर्श को अजब-गजब तरीके से स्थापित करने की कलाबाजी है। पश्चिम फेक डिस्कोर्सेस को स्थापित करने के छद्मयुद्ध का कुशल खिलाड़ी रहा है।
जनजातीय बंधु, जो कि बोलीविया, ब्राज़ील, कोलम्बिया, एक्वाडोर, इंडोनेशिया, पपुआ न्यू गिनी, पेरू, वेनेज़ुएला आदि देशों और साथ ही भारत के दूरस्थ, अंतर्स्थ स्थित वनों में रहते हैं, एवं प्रकृति को ही ईश्वर मानकर उसका रक्षण करते हैं। ये दिवस उनकी स्मृति लोप कराने का दुष्प्रयास है। पूरे विश्व के बाद अब पश्चिमी शक्तियाँ भारत में भी इस वितंडे को स्थापित करने का प्रयास कर रही हैं। विदेशी शक्तियाँ भारतीय समाज को विखंडित करने हेतु मूलनिवासी दिवस का उपयोग कर रही हैं।
नौ अगस्त, वस्तुतः पश्चिमी साम्राज्यवादियों द्वारा किये गए बड़े, बर्बर नरसंहार का दिन है। इस शोक दिवस को उसी पीड़ित, दमित व संहारित किए गए वनबंधुओं द्वारा गौरव दिवस के रूप में मनवा लेने का षड्यंत्र है यह! वस्तुतः नौ अगस्त का यह दिन अमेरिका, जर्मनी, स्पेन सहित समस्त उन पश्चिमी देशों पर बाहरी आक्रमणकारियों द्वारा पश्चाताप, दुःख व क्षमाप्रार्थना का दिन होना चाहिए। इस दिन यूरोपियन आक्रमणकारियों को उन देशों के मूल निवासियों से क्षमा माँगनी चाहिए, जिन मूलनिवासियों को उन्होंने बर्बरतापूर्वक उनके मूलनिवास से खदेड़ा था या समाप्तप्राय कर दिया था।
पश्चिमी बौद्धिक जगत का प्रताप देखिए कि हुआ ठीक इसका उल्टा; उन्होंने इस दिन का स्वरूप, मंतव्य व आशय समूचा ही उलट कर दिया! आश्चर्य यह कि हम भारतीय भी इस थोथे विमर्श में फँस गए हैं। इस इंडीजेनस डे का हमसे तो कोई सरोकार ही नहीं है। यदि जनजातीय दिवस मनाना ही है, तो हमारे पास भगवान बिरसा मुंडा से लेकर टंट्या मामा भील तक हजारों ऐसे जनजातीय योद्धाओं का समृद्ध इतिहास है, जिन्होंने हमारे समूचे भारतीय समाज के लिए कई-कई गौरवमयी अभियान चलाए हैं। इन योद्धाओं ने भारतमाता को स्वतंत्र कराने हेतु अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया।
भारत के ग्रामों व नगरों में वनवासी समाज की प्रतिष्ठा के रक्षण व विकास की प्राचीन परंपरा रही है। भारत के नगरीय व ग्रामीण समाज में व वनवासी समाज में परस्पर निर्भरता, परस्पर उत्तरदायित्व की अद्भुत किंतु अलिखित संतुलन प्रवृत्ति रही है। प्रकृति पूजन हमें वेदों से प्राप्त हुआ, जिसके प्रति नगरीय समाज की अपेक्षा जनजातीय समाज अधिक आग्रही रहा है। भारतीय जनजातीय समाज रक्षण का पात्र नहीं, अपितु शेष समाज व राष्ट्र का रक्षक रहा है।
मूल निवासी दिवस की चर्चा करें, तो ध्यान आता है कि हमारी नर्मदा घाटी ही मानव प्रजाति की जन्मदाता रही है। नर्मदा किनारे जन्मी इस सभ्यता में नगरीय व वन कंदराओं में निवास करने वाले बंधु, दोनों का ही अपना-अपना महत्व व भूमिका थी। दोनों ही समाज अपने उत्पादनों व वृत्तियों के आधार पर परस्पर निर्भरता के सिद्धांत से जीवन यापन करते हुए वैदिक धर्म को ही भिन्न रूपों में माना करते थे।
शिव उपासना वैदिक धर्म का एक अविभाज्य अंग रहा है। शिव पूजन को वनबंधुओं ने भी आगे बढ़ाया व नगरीय समाज ने भी। कोलंबस दिवस के रूप में भी मनाए जाने वाले इस दिन को वस्तुतः अंग्रेजों के अपराध बोध को स्वीकार करने के दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए। अमेरिका से वहाँ के मूल निवासियों को अतीव बर्बरता पूर्वक समाप्त कर देने की कहानी के पश्चिमी पश्चाताप दिवस का नाम है मूल निवासी दिवस।
वस्तुतः इस मूलनिवासी फंडे पर आधारित यह नई विभाजनकारी रेखा एक नए षड्यंत्र के तहत भारत में लाई जा रही है, जिससे भारत को सावधान रहने की आवश्यकता है। आज भारत सामाजिक समरसता के नए आयाम गढ़ रहा है। यह कुछ भारत विरोधी तत्वों को रास नहीं आ रहा है।
इस सकारात्मक परिवर्तन के वातावरण में जहर बोने का कार्य करते हैं कुछ भारत विरोधी व विभाजनकारी लोग। मूल निवासी दिवस के एजेंडे के पीछे बहुत से ऐसे विदेशी मानसिकता के लोग खड़े हो गए हैं, व भारत के भोले-भाले जनजातीय समाज के मन में विभाजन के बीज बो रहे हैं।
कम्युनिस्ट, इस्लाम व इसाईयत के षड्यंत्र का नव संस्करण है मूलनिवासीवाद! भारतीय दलितों व आदिवासियों को पश्चिमी अवधारणा से जोड़ने व भारतीय समाज में विभाजन के नए केंद्रों की खोज इस मूलनिवासी वाद के नाम पर प्रारंभ कर दी गई है। इस पश्चिमी षड्यंत्र के दुष्प्रभाव में कुछ कथित दलित व जनजातीय नेताओं ने यह कहना प्रारंभ किया कि भारत के मूल निवासियों (दलितों) को बाहरी आर्यों ने अपना गुलाम बनाकर यहाँ हिन्दू वर्ण व्यवस्था को लागू किया।
बाबा साहेब अपने लेखन में कथित आर्य व जनजातीय संघर्ष की बात को दृढ़ता से नकारते हैं। बाबासाहब ने लिखा है – “आर्य आक्रमण की झूठी कथा पश्चिमी लेखकों द्वारा बनाई गई है, जिसके कोई प्रमाण नहीं है। अम्बेडकर जी आगे लिखते हैं – “इस पश्चिमी सिद्धांत का विश्लेषण करने से मैं जिस निर्णय पर पहुँचा हूँ, वह यह है – वेदों में आर्य जातिवाद का उल्लेख नहीं है, व वेदों में आर्यों द्वारा दलित व जनजातीय आक्रमण कर विजय प्राप्त करने का कोई प्रमाण नहीं है।”
वस्तुतः इस नए षड्यंत्र का सूत्रधार पश्चिमी पूंजीवाद है। अनावश्यक ही यह राग अलापा जाता रहा है कि आर्य बाहर से आए थे। इस भ्रामक अवधारणा ने भारतीय संस्कृति का बड़ा अहित किया है। भारतीय जनमानस में परस्पर द्वेष, आर्य-अनार्य विचार एवं दक्षिण-उत्तर की भावना उत्पन्न करने वाला यह विचार, तात्कालिक राजनैतिक लाभ हेतु विदेशियों एवं विधर्मियों द्वारा योजनाबद्ध रूप से प्रचारित जा रहा है।