देवताओं का प्रिय और प्रकृति की साधना मास मार्गशीर्ष

अगहन या मार्गशीर्ष मास हिंदू पंचांग का नवां महीना है, जिसे छत्तीसगढ़ की संस्कृति में विशेष आदर और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। यह काल सामान्यतः नवंबर के मध्य से दिसंबर के मध्य तक चलता है और इसे वर्ष का सबसे संतुलित, पवित्र और शुभ समय माना जाता है। जैसे-जैसे सर्दी का आरंभ होता है, खेतों में धान की कटाई पूरी हो चुकी होती है, और किसान नई रबी फसल की तैयारी में जुटे रहते हैं। यह समय न केवल कृषि चक्र के समापन का प्रतीक है, बल्कि जीवन में नई समृद्धि, शांति और कृतज्ञता का भी प्रतीक है।
छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचलों में अगहन मास की परंपरा सदियों पुरानी है। यहां यह केवल धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि सामाजिक एकता और सांस्कृतिक पहचान का उत्सव है। हर गुरुवार को लोग मां लक्ष्मी और भगवान विष्णु की पूजा करते हैं। इस ‘अगहन गुरुवार पूजन’ में महिलाएं प्रमुख भूमिका निभाती हैं। वे भोर में स्नान कर घर की सफाई करती हैं, आंगन में रंगोली बनाती हैं, और पूजा स्थल पर कमल व स्वास्तिक के प्रतीक अंकित करती हैं। पूजा में लक्ष्मी-विष्णु की मूर्तियों या चित्रों की स्थापना होती है। हल्दी, कुमकुम, चावल, आंवला, फूल, दीप और शंख से पूजन किया जाता है। प्रसाद में रोटी-पिठा, बूंदी और चीला बनाया जाता है। घर में भक्ति गीत गाए जाते हैं, और सामूहिक भोज से यह पूजा उत्सव का रूप ले लेती है।
अगहन मास का धार्मिक अर्थ बहुत गहरा है। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं भगवद्गीता में कहा है “मासानां मार्गशीर्षोऽहम्” अर्थात् “मैं महीनों में मार्गशीर्ष हूं।” इस एक वाक्य में मार्गशीर्ष की महानता समाहित है। कृष्ण का यह कथन केवल काल-गणना का उल्लेख नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन का प्रतीक है। इस मास को वह समय माना गया है जब प्रकृति, मानव और देवत्व के बीच एक अद्भुत संतुलन स्थापित होता है। ऋतुओं में यह हेमंत ऋतु का आरंभ है न बहुत ठंडा, न बहुत गर्म; न अत्यधिक आर्द्रता, न शुष्कता। यही कारण है कि श्रीकृष्ण ने इसे सर्वोत्तम महीना कहा।
प्रकृति की दृष्टि से देखा जाए तो इस समय पृथ्वी, जल और वायु तीनों तत्व सबसे संतुलित अवस्था में होते हैं। वर्षा की नमी भूमि में समा चुकी होती है, जिससे धरती उपजाऊ बनती है। पेड़-पौधों में नई कोंपलें फूटने लगती हैं, जलाशय भरे होते हैं, परंतु उनका प्रवाह संयमित रहता है। वायु शुद्ध और शीतल होती है, जो मानव और पशुओं दोनों के स्वास्थ्य के लिए अनुकूल है। यही काल साधना, आरोग्य और आंतरिक स्थिरता का काल कहा गया है।
छत्तीसगढ़ में अगहन गुरुवार पूजन इसी संतुलन और कृतज्ञता की भावना का प्रतीक है। महिलाएं व्रत रखती हैं, पूजा में शंख बजाकर विष्णु और लक्ष्मी को आमंत्रित करती हैं। शंख पूजा का यह विधान विष्णु पुराण से प्रेरित है “त्वं पुरा सागरोत्पन्नो विष्णुना विधृतः कृतः। निर्मितः सर्वदेवैश्च पाञ्चजन्य नमोऽस्तु ते॥” इस मंत्र के साथ शंख का पूजन कर लोग विष्णु की कृपा की कामना करते हैं। यह परंपरा केवल धार्मिक कर्म नहीं, बल्कि जीवन में शुद्धता और सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक है।
अगहन मास में किए जाने वाले अनुष्ठान केवल व्यक्तिगत कल्याण के लिए नहीं, बल्कि सामूहिक सद्भाव के लिए होते हैं। पूजा के बाद प्रसाद वितरण, अन्नदान और सामूहिक भोज की परंपरा समाज में समानता और सहयोग की भावना को मजबूत करती है। शिवपुराण में कहा गया है “मार्गशीर्षे ऽन्नदस्यैव सर्वमिष्टफलं भवेत्।” अर्थात् इस मास में अन्नदान करने से सभी इच्छित फल प्राप्त होते हैं। यही कारण है कि इस समय छत्तीसगढ़ के गांवों में गरीबों और जरूरतमंदों को अन्नदान करना शुभ माना जाता है।
ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो मार्गशीर्ष मास को वर्ष का प्रारंभ भी माना गया है। महाभारत में उल्लेख है कि प्राचीन काल में इसी महीने से नववर्ष की शुरुआत होती थी। छत्तीसगढ़ जैसे कृषि-प्रधान समाज में यह समय धन-धान्य की सुरक्षा और नए कृषि वर्ष की तैयारी का प्रतीक रहा है। ब्रिटिश काल के कुछ अभिलेखों में भी ‘अगहन व्रत’ का उल्लेख मिलता है, जो यह प्रमाणित करता है कि यह परंपरा कम से कम दो शताब्दियों से निरंतर प्रचलित रही है।
इस मास में स्नान और ध्यान का विशेष महत्व है। स्कंद पुराण में कहा गया है कि मार्गशीर्ष में नदी स्नान से ग्रह-दोष और पाप नष्ट होते हैं। छत्तीसगढ़ में महानदी, शिवनाथ और इंद्रावती जैसी नदियों के तट पर इस समय सामूहिक स्नान का आयोजन होता है। लोग प्रातःकाल नदी में स्नान कर “ॐ नमो नारायणाय” का जप करते हैं और सूर्य को जल अर्पित करते हैं। यह कर्म केवल शारीरिक शुद्धि नहीं, बल्कि आत्मिक संतुलन का प्रतीक है।
मार्गशीर्ष का समय भारतीय जीवन की उस लय का प्रतीक है जिसमें प्रकृति और मनुष्य का संबंध एक दूसरे से गहराई से जुड़ा है। इस काल में किसानों के खेतों में नई ऊर्जा होती है, फसल की हरियाली मन को प्रसन्न करती है। लोकगीतों में कहा गया है “मार्गशीर्ष के दिन सुख के, खेत में हरियाली छाई।” यह हरियाली केवल खेतों में नहीं, बल्कि मनुष्य के भीतर भी नयी आशा का संचार करती है।
इस मास में किए गए कर्मों को तप और संयम का रूप माना गया है। मनुस्मृति में इसे आराधना काल कहा गया है, जब व्यक्ति को दान, संयम और ध्यान के माध्यम से अपने भीतर संतुलन स्थापित करना चाहिए। नारद पुराण में कहा गया है “मार्गशीर्षे तु यो भक्त्या ध्यायेत् पुरुषोत्तमम्। स याति परमं स्थानं, न पुनर्जन्ममृच्छति॥” अर्थात जो मार्गशीर्ष मास में भगवान विष्णु का भक्तिपूर्वक ध्यान करता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है। यह ध्यान केवल पूजा का नहीं, बल्कि प्रकृति और आत्मा के सामंजस्य का ध्यान है।
भारतीय ऋषियों ने समय को कभी निर्जीव नहीं माना। उनके लिए हर ऋतु और हर मास एक जीवंत चेतना थी। ऋग्वेद में कहा गया है “ऋतस्य पन्था न वि मुनचन्ति धीराः।” अर्थात बुद्धिमान व्यक्ति प्रकृति के ऋतुचक्र से विचलित नहीं होते, बल्कि उसी के अनुरूप जीवन जीते हैं। यही संदेश मार्गशीर्ष मास देता है, प्रकृति के साथ सामंजस्य ही सच्चा धर्म है।
अगहन पूजन में जो लोक परंपराएं जुड़ी हैं, वे समाज की जीवंतता को प्रकट करती हैं। दीवाली के बाद अगहन मास मड़ई मेलों और उत्सव का होता है। यह सामूहिकता न केवल धार्मिक, बल्कि सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है। महिलाओं का नेतृत्व इसमें प्रमुख होता है। यह परंपरा पितृसत्तात्मक ढांचे में स्त्री-सशक्तिकरण का एक सशक्त उदाहरण है।
आधुनिक समय में भी अगहन मास की प्रासंगिकता बनी हुई है। शहरी क्षेत्रों में लोग अब ऑनलाइन पूजन करते हैं, डिजिटल आरती या वर्चुअल सामूहिक कार्यक्रमों के माध्यम से इस परंपरा को जीवित रखे हुए हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से भी मार्गशीर्ष मास का महत्व है। इस समय वायुमंडल में धूल और परागकणों की मात्रा कम होती है, जिससे वायु शुद्ध रहती है। तापमान मध्यम रहता है, जो स्वास्थ्य के लिए सबसे अनुकूल होता है। इस काल को साधना और आरोग्य का समय कहा गया है।
अगहन मास का सबसे बड़ा संदेश है कृतज्ञता और संतुलन। जब किसान फसल काटकर धरती को धन्यवाद देता है, जब गृहिणी पूजा के बाद अन्नकूट बनाकर बांटती है, जब साधक शीतल प्रातःकाल में ध्यान करता है तब सब अपने-अपने ढंग से प्रकृति के प्रति आभार व्यक्त कर रहे होते हैं। यही कृतज्ञता पर्यावरण संरक्षण की पहली शर्त है।
आज जब दुनिया जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय असंतुलन से जूझ रही है, तब मार्गशीर्ष मास का यह शाश्वत संदेश पहले से कहीं अधिक आवश्यक है। यह हमें सिखाता है कि मनुष्य का विकास प्रकृति से अलग नहीं, बल्कि उसी के साथ संभव है। संयम, आभार और सह-अस्तित्व ही पर्यावरण की रक्षा के मूल तत्व हैं।
श्रीकृष्ण का वचन “मासानां मार्गशीर्षोऽहम्” केवल धार्मिक कथन नहीं, बल्कि एक पर्यावरणीय दर्शन है। जब हम इस भाव को जीवन में अपनाते हैं, तब हमारे भीतर करुणा, संतुलन और कृतज्ञता स्वतः जागृत होती है। यही संतुलन आधुनिक सभ्यता के लिए सबसे बड़ा पाठ है। मार्गशीर्ष हमें यह सिखाता है कि जीवन में स्थायित्व और संयम ही वास्तविक सौंदर्य हैं। प्रकृति के साथ सामंजस्य ही सच्चा सुख है।
अंततः, यही इस मास का सार है प्रकृति का आदर करो, जीवन में संतुलन लाओ, और अपने भीतर उस दिव्यता को पहचानो जो हर श्वास में विद्यमान है। जब हम इस भावना में जीते हैं, तब हमारे भीतर भी वही श्रीकृष्ण का स्वरूप प्रकट होता है, जो संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। यही मार्गशीर्ष मास का शाश्वत संदेश है, समरसता, पवित्रता और संतुलन ही जीवन का सच्चा धर्म है।

