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अपने मरे ही स्वर्ग दर्शन : मनकही

आशा रूपी दीपक से मनुष्य पूरे जीवन का मार्ग प्रशस्त करता आगे बढ़ता चला जाता है। जीवन और संघर्ष दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जीवन के हर कार्यों में प्रथम प्रयास से सफलता मिलना संभव नहीं उसे निराशाजनक परिस्थितियों का सामना करना ही पड़ता है। असफलता से ही सफलता का द्वार खुलता है।

मनुष्य अपने मनोबल से परिश्रम करते हुए ही आगे बढ़ता है। दूसरों से आशा रखते हुए किसी कार्य में सफल होने की कामना सर्वथा अनुचित है, अनुभवी का मार्गदर्शन मार्ग सरल बना सकता है परंतु संघर्ष स्वयं को ही करना होता है, यही कटु सत्य है। कहते हैं अपने मरे ही स्वर्ग दिखता है।

दूसरों के भरोसे हाथ पर हाथ रखे रहने से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती, अर्थात आत्मनिर्भरता अति आवश्यक है। संसार में कुछ ना कर, सब कुछ प्राप्त करने की आशा लिए जीने वाले भी आसपास दृष्टिगोचर होते हैं। ऐसे लोगों को यदि सहानुभूति दिलाने हेतु दी गई झूठी सांत्वना भी सच लगती है और वे अपने कार्यों और उत्तरदायित्वों के प्रति भी लापरवाह और निश्चिंत होकर जीवन बिता देते हैं ऐसे व्यक्ति सामाजिक और व्यवहारिक भी नहीं होते। परिवार की चिंता तो दूर अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों का मुंह ताकते रहते हैं। यदि सहानुभूतिपूर्वक कोई सहायता कर भी दे तो कृतज्ञता भी नही प्रदर्शित करते।

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मनुष्य सामाजिक प्राणी है उसके कंधों में स्वयं के साथ घर-परिवार, समाज, देश सभी प्रकार की जिम्मेदारियां हैं जो उसे ही पूर्ण करनी है। प्रत्येक मनुष्य अपनी जिम्मेदारियों का बोझ स्वयं ही ढोता है, दूसरे नहीं। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी इच्छायें और आशाएं हैं परंतु कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए उनका दमन कर लेता है ताकि मन, वचन और कर्म से किसी को कष्ट ना पहुँचे। सब प्रसन्न और सुखी रहें। जिस मनुष्य के हृदय में परोपकार करने और कृतज्ञता की भावना नहीं, ऐसा मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य कहलाने योग्य नहीं।

जिम्मेदारियों से भागने वाला व्यक्ति ही पराश्रित रहते हुए जीवन इस आशा से व्यतीत करता है कि कोई उनका शुभचिंतक उनकी जिम्मेदारी को पूर्ण करने का ठेका लेगा, परन्तु समय आने पर वही शुभचिंतक सहायता करना तो दूर सामने आने से कतराते है। ऐसा समय बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होता है जब उसकी सारी आशाएं सहायता करने की बड़ी बड़ी बातें बनाने वाले व्यक्ति से लगीं थीं वो चूर-चूर हो जाती हैं।

मन पछितहिएँ अवसर बीते अर्थात समय रहते कुछ नहीं किया दूसरे के भरोसे बैठे रहे और आज पछताने के सिवाय कुछ नहीं मिला। तभी तो कबीर दास जी ने कहा है–
आछे दिन पाछे गए गुरु से किया न हेत ।
अब पछताये होत क्या ,जब चिड़िया चुग गई खेत।।

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कहा गया है—
‘बिटिया बियानी देवरे की आसा, मर गया देवर टूट गई आसा’

अर्थात दूसरे के भरोसे कार्य प्रारंभ करने से वह कार्य कभी पूरा नहीं होता। समय आने पर वही आशा, निराशा में बदल जाती है। अत: अपनी जिम्मेदारियों को आत्मबल और आत्मविश्वास से ही पूरा किया जा सकता है।

आलेख

श्रीमती रेखा पाण्डेय (लिपि)
व्याख्याता हिन्दी
अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़