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आम, अमराई और वे बचपन के दिन

निरंजन शर्मा सतना

आजकल अंधड़ के मौसम में शाम को मैहर से सतना लौटते वक्त कभी-कभी धूल भरी तेज हवाओं के बीच से कार को गुजरना होता है। रास्ते में दोनों तरफ कई जगह आम के बगीचे हैं, जहाँ आंधी में टपकते आमों को दौड़-दौड़ कर बीनते हुए लोग दिखाई पड़ते हैं जिनमें ज्यादातर किशोर और बच्चे होते हैं। आंधी में कई बार पेड़ों की छोटी-मोटी शाखाएं और कभी समूचे पेड़ ही गिर जाते हैं। एक दिन थमती आंधी के दौरान गुजरते हुए एक दिशा में देखा जहां गिरे पड़े एक पेड़ के पास भीड़ लगी हुई थी। दूसरे दिन समाचार पत्र में पढ़ा तो जाना कि वहां आम बीन रही एक 12-13 वर्षीया बालिका दबी थी, जिसे अंततः जीवित नहीं निकाला जा सका। उसके साथ के बच्चे तो निकल गए पर वह वृक्ष की मोटी डाल की चपेट में आ गई।

बचपन में हम भी आंधी की आहट के साथ ही गेंवड़े के समीप लगे आम के बगीचे की ओर भागते थे। बाई (माँ) हमें रोकती पर हम कहाँ मानने वाले थे। मोहल्ले के बच्चों का हवाला देते दौड़ पड़ते कि वो सब गए हैं, मैं भी जाऊँगा। भारी धूल के साथ उड़ते कंकड़ों की बौछार और कभी एकदम से आगे तो कभी एकदम से पीछे ठेलती तेज हवा। लगभग सौ से अधिक आमों का बगीचा चारों तरफ आम बीन रहे लोगों से भर जाता। इनमें कुछ तो आम बीनने के ऐसे उस्ताद थे कि 15-20 मिनट के भीतर आमों का बड़ा गड्ड लगा लेते।

खासतौर से नान्हूं जो अपने टेढ़के हाँथ की कुहनी आगे कर दौड़ता और प्रायः प्रतिद्वंदी आम बीनने वाले को चपेट में ले लेता। नान्हूं जिन आमों के नीचे होता वहाँ दूसरों की दाल नहीं गलती थी। एक और मुच्छड़ था गिदन्नी, वह आम नहीं बटोरता था, केवल लाठी दिखा कर और कई बार लाठी से हुदया कर अपने पेड़ों के पास से लोगों को खदेड़ता था। जब वह नहीं होता था तो उसकी माँ लटकारी यह काम करती। बगीचे में एक तरफ 20-25 आम के पेड़ थे जो ढीमर का बगीचा कहलाता था। लटकारी और गिदन्नी इन आमों को अधियां में तकने के लिए लेते थे।

लेकिन मैं तो अपनी उस स्मृति को आपके साथ शेयर कर रहा हूँ जो अंधड़ में पहली बार मेरे आम बीनने जाने की कहानी है। सन 1968-69 की बात है ! मैंने अपनी बाई से तय कर रखा था कि इस साल जब भी आंधी आएगी मैं अमुआ बीनने जाऊँगा। बाई कहती- आंधी के फुटैला आमों का अपन क्या करेंगे। मैं कहता- पाल रखेंगे, साहें खायेंगे और क्या। बाई कहती- आंधी में कोई डरैया ऊपर गिर गई तो मूड़ फूट जाएगा। मैं कहता- “कुछ नहीं ! मैं बच के बीनूंगा।” अंत में बाई मेरे हठ के सामने झुक गई। एक दिन जैसे ही आंधी आई मैंने अपना तैयार रखा थैला लेकर बगीचे की ओर कुर्रू लगा दी। पीछे से बाई की पुकार “बेटा सम्हर के” आंधी की आवाज में गुम होती चली गई।

आम का पूरा बगीचा धूल भरी आंधी और एक अजीब सांय-सांय के बीच लगातार बुरी तरह हिल रहा था ! छोटी छोटी डालें टूट कर गिरतीं और दूर तक उड़ती चलीं जातीं। शाखाओं के आपस में टकराने की तेज कटकार, कंकड़ भरी धूल और पट्ट-पट्ट गिरते और उछलते आम। मुसरहा और अमिनिया आमों के पास तो रुकना बेकार था क्योंकि यहाँ नान्हूं और कुछ लड़के पहले से ढेर लगा रहे थे। खुटहा, झपड़ा, करिया, नतनगरा, लोढ़ा, अथनहा, गुल्ला, शखहा आदि सभी नामी पेड़ों के नीचे लोग आँखों को धूल से बचाते दाएं-बाएं दौड़ रहे थे।

मैं ढीमर के बगीचे की तरफ गया कि अगर गिदन्नी नहीं होगा तो लटकारी दाई के रोकते-रोकते भी झोरा भर जाएगा। असल में वह लाठी दिखाती थी, डराती थी मगर कभी किसी को मारती नहीं थी। ..पर ढीमर के बगीचे के पहले ही दायें तरफ मेरी निगाह पीरा आम पर पड़ी जहां कोई नहीं था ! यहाँ पीले-पीले आम बिछे पड़े थे। मैंने समेटने शुरू किये। यह आम का पेड़ कुछ निचाई में था शायद इसलिए यहाँ कोई नहीं है, यह सोच कर जल्दी-जल्दी थैला भरने लगा। थैला भर गया तो गड्ड बनाने लगा। आंधी सुस्त पड़ते-पड़ते मैंने दो ढेर लगा लिए कि तभी कुछ दूर से बाई की आवाज सुनाई पड़ी।

“….पप्पू ! पप्पू ! …
काये लटकारी हमाये पप्पू खां देखो तुमने कहूं ?”

मैं झीले से बाहर निकला और ऊपर आकर हाँथ हिलाया कि यहाँ हूँ। बाई और लटकारी दोनों मेरी तरफ आईं । मैंने हर्षातिरेक से कहा कि थैला भर गया है। दो ढेर भी लगा लिए हैं। घर से बोरी लानी पड़ेगी। बाई ने पूंछा आम कहाँ हैं तो मैंने झीले की ओर इशारा किया। नीचे की तरफ पीले आमों के ढेर देखते ही लटकारी ताली ठोक कर हंसने लगी। उसकी हंसी रुक नहीं रही थी। हँसते-हँसते ही बाई से बोली- “ले बाँधी वाली , लड़का ने ऐसे आम बीने हैं कि तुम्हीं अब पाल लगाएं की जरूरत ना पड़ी।”

मैंने बाई की तरफ देखा- वह मुस्करा तो रही थी मगर उसके चेहरे में झेंप और आँखों में आंसू थे। उसने मुझे तुरंत आँचल में छुपा लिया। मैं समझ गया कि बेबकूफी हो गई है। लटकारी अब हंस-हंस कर क्या कह रही थी सुनाई नहीं पड़ रहा था। बाई ने थैला खाली कर आम फेंके और मुझे लिपटाए हुए घर की ओर चल पड़ी। असल में वह एक अभिशप्त आम का पेड़ था जिसके रसहीन फल पीले होकर झर जाते थे। बगीचे में चारों तरफ लोग भरी बोरी, झउआ-टिपरियाँ लेकर घर लौट रहे थे मगर मैं खाली हाँथ था। बाई ने मेरा खाली थैला छुपा लिया था।

 

सतना निवासी लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

One thought on “आम, अमराई और वे बचपन के दिन

  • June 17, 2024 at 08:19
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    खूबसूरत यादें बचपन की,, मेरी ही एक कहानी है,, मां ने टमाटर लाने बाजार भेजा, मैं पांचवी में था शायद , बाजार में बाकी जगह एक रुपए किलो टमाटर था, एक जगह चवन्नी में मिला रहा था , मैने सस्ता समझकर चार किलो ले लिया,, घर जाकर खुशी खुशी बताया कि किस्तना सस्ता मिल गया,, लेकिन अम्मा तो नाराज होने लगी,, बोली ये टमाटर तो बीज निकलने के बाद बचे गुदे मात्र है, इनको एक बार में ही उपयोग करते है, सुरक्षित नही रख सकते,, मेरी सारी खुशी rafu चक्कर ,,, इस दिन से जान पाया की कैसा टमाटर लेना है ,,, ये थी यादें मेरी,,

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