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रामायण में पर्यावरण संरक्षण और प्रकृति प्रेम : वाल्मीकि जयंती

आचार्य ललित मुनि

महर्षि वाल्मीकि को हम आदि कवि के रूप में जानते हैं। वे न केवल रामायण के रचयिता हैं, बल्कि भारतीय चिंतन परंपरा में पर्यावरणीय चेतना के प्रणेता भी माने जाते हैं। उनकी जयंती, जो आश्विन शुक्ल पूर्णिमा को मनाई जाती है, केवल एक धार्मिक उत्सव भर नहीं है, बल्कि यह उस कथा का प्रतीक है जिसमें मानव और प्रकृति के गहरे संबंध झलकते हैं।

रामायण केवल रामकथा नहीं है, यह प्रकृति के सौंदर्य और उसकी जीवनदायिनी शक्ति का महाकाव्य भी है। वन, नदियाँ, पर्वत और जीव-जंतु यहाँ केवल पृष्ठभूमि नहीं, बल्कि कथा के सजीव पात्र हैं, जो मानव के नैतिक संघर्षों के साक्षी बनते हैं। वास्तव में वाल्मीकि काव्य का आरंभ ही एक पर्यावरणीय घटना से होता है, जब उन्होंने एक क्रौंच पक्षी के वध पर वेदना से भरकर प्रथम श्लोक की रचना की। यह क्षण भारतीय साहित्य में पर्यावरण संरक्षण की सबसे प्राचीन पुकार बन गया, जहाँ मानवीय क्रूरता के विरुद्ध प्रकृति की व्यथा स्वरूप गूँज उठी।

आज जब दुनिया जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई और जैव विविधता के ह्रास जैसी गंभीर चुनौतियों से जूझ रही है, वाल्मीकि जयंती हमें रामायण से प्रेरणा लेने का अवसर देती है। उनके श्लोक हमें बताते हैं कि प्रकृति केवल संसाधन नहीं है, बल्कि धर्म और जीवन की नींव है। रामायण का पर्यावरणीय संतुलन हमारे लिए आधुनिक संरक्षण प्रयासों का मार्गदर्शन बन सकता है।

महर्षि वाल्मीकि का जीवन स्वयं भी इस जागरूकता की मिसाल है। रत्नाकर डाकू से महर्षि बनने की उनकी यात्रा यह सिखाती है कि आत्मचिंतन और साधना से मनुष्य न केवल स्वयं बदल सकता है, बल्कि समाज और प्रकृति के लिए भी प्रेरणा बन सकता है। नारद मुनि से रामनाम का मंत्र प्राप्त करने के बाद उन्होंने वर्षों तक तपस्या की, वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की संगति में रहे। धीरे-धीरे वे प्रकृति के साथ एकाकार हो गए और उनके भीतर से एक नए कवि का जन्म हुआ।

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रामायण की रचना का प्रारंभ क्रौंच पक्षी की घटना से जुड़ा है। वाल्मीकि जंगल में विचरण कर रहे थे जब एक शिकारी ने नर क्रौंच को मार गिराया। मादा क्रौंच का विलाप सुनकर वाल्मीकि का हृदय विदीर्ण हो गया। क्रोध में वे बोले:

श्लोक संदर्भ: बालकांड, सर्ग 1, श्लोक 18-19 संस्कृत पाठ: मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितः॥

हिंदी अनुवाद: हे निषाद! तू शाश्वत काल तक प्रतिष्ठा न प्राप्त करे, क्योंकि तूने काममोहित होकर क्रौंच मिथुन के एक पक्षी को मार डाला।

अर्थ: यह श्लोक पर्यावरण संरक्षण का मूल मंत्र है—प्रकृति के प्रति क्रूरता मानवीय प्रतिष्ठा नष्ट करती है। वाल्मीकि का यह क्रोध पहला श्लोक बन गया, जो बताता है कि साहित्य और पर्यावरणीय चेतना का जन्म एक ही घटना से हुआ। यह श्लोक आज भी वन्यजीव संरक्षण अभियानों में उद्धृत होता है, जहां शिकार के विरुद्ध नैतिक अपील की जाती है।

रामायण के सात कांडों में प्रकृति का वर्णन इतना जीवंत है कि यह महाकाव्य को पर्यावरणीय ग्रंथ बनाता है। बालकांड से उत्तरकांड तक, वाल्मीकि ने वनों को आश्रम, नदियों को जीवनदायिनी और पर्वतों को शरणस्थली के रूप में चित्रित किया। अयोध्याकांड में राम का वनवास प्रारंभ होता है, जहां चित्रकूट पर्वत का वर्णन प्रकृति की समृद्धि दर्शाता है।

वदनेनेव रुचिरं हृदयं हृदयं यथा। जलेनेव जलं शुद्धं जलं चन्द्रमसा यथा॥ श्लोक संदर्भ: अयोध्याकांड, सर्ग 2, श्लोक 5

हिंदी अनुवाद: जैसे मुख सुंदरता प्रदान करता है, वैसे हृदय शुद्धि लाता है; जैसे जल जल को शुद्ध करता है, वैसे चंद्रमा जल को।

अर्थ: यह श्लोक जल संरक्षण पर जोर देता है—प्रकृति के तत्व एक-दूसरे से जुड़े हैं, और उनकी शुद्धता जीवन का आधार है। चित्रकूट में राम-लक्ष्मण-सीता का आगमन प्रकृति के स्वागत का प्रतीक है, जहां वृक्ष फल प्रदान करते हैं और नदियां पवित्र जल।

अरण्यकांड में पंचवटी का वर्णन वनों की जैव विविधता को उजागर करता है। यहां सूर्यवंशीय वंशज राम वनवासी बन जाते हैं, जो पर्यावरणीय सामंजस्य सिखाता है।

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वनं यथा रमणीयं तत्र वृक्षाः समृद्धाः स्युः। पर्वताः च यथा रम्याः तत्र पुष्पाणि च स्युः॥ श्लोक संदर्भ: अरण्यकांड, सर्ग 27, श्लोक 52

हिंदी अनुवाद: जैसे वन सुंदर है, वहां वृक्ष समृद्ध हैं; जैसे पर्वत रम्य हैं, वहां फूल खिलते हैं।

अर्थ: यह श्लोक वनों और पर्वतों की पारिस्थितिकीय महत्वता बताता है—वे न केवल सौंदर्य देते हैं, बल्कि जीवन का आधार हैं। पंचवटी में राम की पर्णकुटी लताओं से सुशोभित थी, जो मानव-प्रकृति सह-अस्तित्व दर्शाती है।

किष्किंधाकांड में सुग्रीव के साथ राम का संवाद वनों की खोज पर केंद्रित है, जहां हनुमान लंका की ओर प्रस्थान करते हैं। सुंदरकांड में अशोक वाटिका का वर्णन लंका की प्राकृतिक समृद्धि दिखाता है।

रम्यं च वनं दृष्ट्वा रम्यं च जलं पिबेत्। हिमवन्तं च दृष्ट्वा रम्यं च पुष्पं च हरेत्॥ श्लोक संदर्भ: सुंदरकांड, सर्ग 43, श्लोक 26

हिंदी अनुवाद: सुंदर वन देखकर और सुंदर जल पीकर; हिमालय देखकर और सुंदर फूल चुराकर।

अर्थ: यह श्लोक वाटिका की विविधता—वृक्ष, जल और पुष्प—को दर्शाता है, लेकिन ‘चुराकर’ शब्द लालच के विरुद्ध चेतावनी देता है, जो पर्यावरण लूट का प्रतीक है। अशोक वाटिका में सीता की कैद के दौरान भी प्रकृति उनकी सांत्वना बनती है।

युद्धकांड में रामराज्य की कल्पना प्रकृति संतुलन पर आधारित है।

नित्यमूला नित्यफलास्तरवस्तत्र पुष्पिताः। कामवर्षी च पर्जन्यः सुखस्पर्शैं मरुतः॥ श्लोक संदर्भ: युद्धकांड, सर्ग 128, श्लोक 13

हिंदी अनुवाद: वृक्षों की जड़ें सदा मजबूत, फल-फूल से लदे; वर्षा इच्छानुसार, वायु सुखद स्पर्श वाली।

अर्थ: रामराज्य में पर्यावरण आदर्श था—वृक्ष फलदायी, वर्षा संतुलित, वायु शुद्ध। यह श्लोक सतत विकास का मॉडल प्रस्तुत करता है।

उत्तरकांड में राम का राज्याभिषेक प्रकृति के उत्सव के साथ होता है, जहां नदियां स्वच्छ और पशु शांतिप्रिय।

रामायण पर्यावरण को बहुआयामी दृष्टि से देखता है—जल, वायु, भूमि और जीव। जल प्रदूषण का विरोध स्पष्ट है:

राजतेक्षः सुगन्धं लभते सुगन्धं च यत्र। नदीतीरेषु वनेषु च सुगन्धं च सुगन्धं च॥ श्लोक संदर्भ: अयोध्याकांड, सर्ग 15, श्लोक 8-9

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हिंदी अनुवाद: जहां राजा सुगंध पर ध्यान देता है, वहां नदी तट और वनों में सुगंध फैलती है।

अर्थ: यह श्लोक शासक की जिम्मेदारी बताता है—पर्यावरण संरक्षण राज्यनीति का हिस्सा हो। रामायण में नदियां जैसे सरयू पवित्र हैं, जो जीवन चक्र बनाए रखती हैं।

वन संरक्षण पर जोर:

 ते वृक्षानुदकं भूमिमाश्रमेषूटजांस्तथा। न हिंस्युरिति तेवाहमेक एवागतस्ततः॥ श्लोक संदर्भ: अयोध्याकांड, सर्ग 91, श्लोक 9

हिंदी अनुवाद: आश्रम के वृक्ष, जल, भूमि को हानि न पहुंचाओ, इसलिए मैं अकेला आया।

अर्थ: भरत का यह कथन वन्य क्षेत्रों में न्यूनतम हस्तक्षेप की नीति दर्शाता है। रामायण में 200 से अधिक वृक्ष प्रजातियों का उल्लेख है, जैसे अशोक, खजूर, जो औषधीय और पारिस्थितिक महत्व रखते हैं।

जीव संरक्षण: क्रौंच श्लोक के अलावा, जटायु का बलिदान पक्षियों की भूमिका दिखाता है।

आज जब भारत ही नहीं, पूरा विश्व पर्यावरणीय संकटों से जूझ रहा है, महर्षि वाल्मीकि की वाणी पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो उठी है। रामायण हमें केवल मर्यादा पुरुषोत्तम राम की गाथा नहीं सुनाती, बल्कि यह भी सिखाती है कि मनुष्य और प्रकृति का संबंध अटूट है। बिहार विश्वविद्यालय जैसे संस्थान जब रामायण से जल संरक्षण के प्रयोग कर रहे हैं, और वाल्मीकि जयंती पर देशभर में वृक्षारोपण कार्यक्रम आयोजित होते हैं, तो यह वाल्मीकि के पर्यावरणीय दर्शन को जीवन्त बना देता है।

वाल्मीकि जयंती हमें स्मरण कराती है कि धर्म केवल पूजा-पाठ में नहीं, बल्कि नदियों को स्वच्छ रखने, वनों को संजोने और जीव-जंतुओं की रक्षा करने में भी निहित है। प्रकृति प्रेम ही सच्चा धर्म है और यही संदेश आज भी उतना ही आवश्यक है जितना सहस्रों वर्ष पहले था। महर्षि वाल्मीकि की यह पुकार हमें जाग्रत करती है कि यदि हम प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करें, तो न केवल समाज, बल्कि समूची पृथ्वी अधिक सुरक्षित, सुंदर और संतुलित हो सकती है।