लोहा शत्रुओं ने माना और मृत्यु पर आंसू बहाए ऐसे थे महाराणा प्रताप
भगवान रामचंद्र के के वंश में अंतिम राजा सुमित्र का उल्लेख है जिसके साथ गोहिल और वंश का संबंध है। कनक सेन ने अयोध्या का राज्य छोड़कर सौराष्ट्र में सूर्य वंश की स्थापना की थी तथा इसकी राजधानी वल्लभी में थी। इस वंश के अंतिम शासक शिलादित्य को युद्ध में घेर कर मारा गया। वंश समाप्त नहीं हुआ उसके मरणोपरांत उसके पुत्र गुहा दित्य ने ईडर नामक छोटे राज्य को जीता और शासन करने लगा।
यह नया राजवंश उसी के नाम से गोहिल कहलाया तथा उसके वंशज ही guhilot गूहीलात कहाने लगे। इसी की एक शाखा आहाड़िया नाम से भी जानी जाती है जिसने डूंगरपुर में अपना अलग राज्य स्थापित किया था। इस वंश के माहप ने सिसोद नामक गांव को अपने राज्य की राजधानी बनाया और उस समय से माहप के वंशज सिसोदिया नाम से प्रसिद्ध हुए। इस तरह से सिसोदिया वंश गोहिलतो की एक शाखा है।
इसी वंश में उत्पन्न उदय सिंह अपने पीछे 25 पुत्र छोड़ गया. यह सभी राणावत के नाम से विख्यात हुए। मरने से पहले उसने अपने बच्चों के बीच संघर्ष का बीज बो दिया था। उसने परंपरागत जेष्ठ अधिकार नियम का उल्लंघन कर अपने छोटे किंतु प्रिय पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। श्मशान में एकत्र सभी सरदार उत्तराधिकारी के विषय में गंभीर परामर्श कर रहे थे। उदय सिंह की एक पत्नी जालौर के सोनगरा सरदार की पुत्री थी। जालौर का सरदार अपनी पुत्री से उत्पन्न पुत्र प्रताप को राणा बनवाना चाहता था, वह सबसे बड़ा भी था।
सोनगरा सरदार ने मेवाड़ के प्रमुख सरदार चुंडावत कृष्ण जी से पूछा कि आपने इस अन्याय के लिए कैसे स्वीकृति प्रदान की? चूंडावत सरदार ने कहा कि जब रोगी अंत समय में थोड़ा सा दूध मांगे तो उसको कैसे मना किया जा सकता है। हम ने मना नहीं किया। लेकिन सिहासन पर आप का भांजा प्रताप ही बैठेगा और मैं उसके साथ हूँ।
प्रताप मेवाड़ राज्य को छोड़कर जाने के लिए अपना घोड़ा तैयार कर रहे थे तभी चुंडावत कृष्ण जी ने उन्हें जाने से रोका। वह दरबार पहुंचे तथा जगमाल की बाहें पकड़कर सिहासन से उतारा। प्रकट में उसने कहा महाराज आपको कुछ भ्रम हो गया है। इस ऊंचे आसन पर बैठने का अधिकार आपके बड़े भाई प्रताप सिंह को ही है। इसके बाद प्रताप सिंह को सिंहासन पर बिठाया गया। जगमाल इसके बाद अकबर की शरण में चला गया जहां से उसे जागीर दी गई।
ज्ञात हो कि अंग्रेजी कैलेंडर के हिसाब से महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 को कुंभलगढ़ में हुआ था। लेकिन राजस्थान का राजपूत समाज का एक बड़ा हिस्सा महाराणा प्रताप का जन्मदिन पंचांग के हिसाब से मनाता है क्योंकि सन 1540 में 9 मई के दिन ज्येष्ठ शुक्ल की तृतीया तिथि थी। इस हिसाब से साल 2021 में महाराणा प्रताप की 484वीं जयंती 8 जून 2024 को है।
प्रताप को मिल रहे समर्थन के कारण महाराणा प्रताप के नाम से संबोधित किया जाने लगा। धन और उज्जवल भविष्य उनके पास नहीं था लेकिन सरदारों ने उनका साथ नहीं छोड़ा। जयमल के पुत्रों ने उनके काम के लिए अपना खून बहाया। फ़त्ता के वंशजों ने भी ऐसा ही किया तथा सलूंबर कुल के वीर सरदारों ने चुंडा की स्वामी भक्ति को फिर से जीवित किया। प्रताप ने इन सब का साथ सम्मान के साथ बनाए रखा।
चित्तौड़ की दशा को देखकर भट्ट कवि उस समय आभूषण रहित विधवा स्त्री की उपमा देते थे। प्रताप ने अपनी जन्म भूमि की इस दशा को देखकर विलासिता और भोग को पूरी तरह छोड़ दिया। भोजन के समय काम में लाए जाने वाले सोने चांदी के बर्तनों को त्यागा। पत्तल पर खाना शुरू किया। कोमल गद्दा और बिछावन को छोड़कर खरपतवार से बने बिछावन का उपयोग किया जाने लगा। यह भी तय कर दिया गया कि जब तक चित्तौड़ का उद्धार ना हो तब तक सिसोदिया राजपूतों को सभी सुख त्याग देने चाहिए।
प्रताप को अक्सर यह कहते हुए सुना जाता था कि यदि उदय सिंह पैदा ना होते या संग्राम सिंह और उनके बीच सिसोदिया वंश में कोई और नहीं होता तो राजस्थान पर तुर्क नियम लागू नहीं हो पाता। अपने कुछ अनुभवी और बुद्धिमान सरदारों की सहायता से प्रताप ने अपने सीमित साधनों को देखते हुए नया ढांचा निर्मित किया। कमलमीर (कुंभलगढ़) की सुरक्षा को मजबूत बनाया गया। गोगुंदा एवं अन्य पर्वतीय दुर्गों की मरम्मत की गई। मेवाड़ के समतल मैदान की रक्षा करने को मुश्किल जानकर महाराणा प्रताप ने उन क्षेत्रों को खाली कर दिया तथा मैदानी क्षेत्र के लोगों को पर्वतों में आश्रय लेने के लिए कहा गया। ऐसा नहीं करने वालों के लिए दंड की व्यवस्था की गई। कुछ ही दिनों में सिंचित क्षेत्र वीरान हो गए। मेवाड़ की सुंदर भूमि शमशान की तरह हो गई।
अकबर ने अजमेर को अपना केंद्र बनाकर मेवाड़ पर अभियान शुरू किया। मारवाड़ बीकानेर जैसे क्षेत्र अकबर के पक्ष में अपनी दुर्बलता तथा मजबूरी के कारण जा चुके थे। इस समय हल्दीघाटी का युद्ध लड़ा गया और महाराणा की पराजय तो होनी ही थी क्योंकि केवल स्वाभिमान और दृढ़ इच्छा शक्ति के आधार पर युद्ध को नहीं जीता जा सकता है। (कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा की पराजय नहीं हुई थी।) प्रताप का परिवार संकट में आया। निरंतर यात्रा में सुरक्षा बनाए रखना भारी काम था। इस समय वे शत्रु के पंजे में परने वाले थे लेकिन कावा के स्वामी भक्त भीलों ने उन्हें बचाया। राणा के बच्चों को टोकरी में छुपा कर ले गए और इनके भोजन की व्यवस्था की।
महाराणा प्रताप इस तरह के जीवन से निराश हो रहे थे। उन्होंने तय किया कि चित्तौड़ और मेवाड़ को छोड़कर किसी दूरवर्ती क्षेत्र में केंद्र बनाया जाए, तैयारी शुरू की गई। सरदार भी उनके साथ चलने के लिए तैयार हो गए। चित्तौड़ के उद्धार की आशा अब उनके ह्रदय से जाती रही। पर्वतीय क्षेत्र को पार कर यह काफिला मरुस्थल में प्रवेश करने वाला था। अरावली घाटी की आखिरी सीमा पर आश्चर्यजनक घटना घटी।
मेवाड़ के वृद्ध मंत्री भामाशाह ने अपने जीवन में काफी संपत्ति अर्जित की थी। उन्होंने अपनी संपूर्ण संपत्ति महाराणा को अर्पित करने की घोषणा की तथा मेवाड़ के उद्धार की भिक्षा मांगी। यह संपत्ति इतनी अधिक थी कि उसे 25 वर्षों तक 25000 सैनिकों का खर्च पूरा किया जा सकता था। यहां से महाराणा का पुनः विजय अभियान शुरू हुआ। मुगलों ने जमकर सामना किया पर वे परास्त होते गए। देवी नामक स्थान पर पहली महत्वपूर्ण विजय हुई। इसके उपरांत कमलमीर के दुर्ग पर विजय प्राप्त किया गया। इस तरह 32 दुर्गों पर महाराणा का अधिकार हो गया।
चित्तौड़ अजमेर और मांडलगढ़ को छोड़कर संपूर्ण मेवाड़ पर महाराणा प्रताप ने पुनः अधिकार जमा लिया। उदयपुर पर भी महाराणा का अधिकार स्थापित हो गया। पहले की प्रतिज्ञा जारी रही। उदयपुर में पहुंचने के बाद महाराणा ने राज महलों को छोड़कर पिछोला तालाब के समीप अपने लिए झोपड़ियां बनवाएं ताकि वर्षा और सर्दी में आश्रय लिया जा सके। इन्हीं झोपड़ियों में महाराणा प्रताप ने अपना जीवन परिवार के साथ बिताया।
उनके जीवन का अंतिम समय आ रहा था. चित्तौड़ का उद्धार अभी तक नहीं किया जा सका था। महाराणा को अपने पुत्र अमर सिंह पर भरोसा नहीं होता था। महाराणा ने अपने सरदारों को कहा कि मेरा पुत्र अमर सिंह हमारे पूर्वजों के गौरव की रक्षा नहीं कर सकता। वह मुगलों क अधीन हो जाएगा क्योंकि वह विलासिता को नहीं छोड़ सकता है। महाराणा ने कहा इन झोपड़ियों के स्थान पर बड़े-बड़े रमणीक महल बनेंगे। मेवाड़ की दुरावस्था भूलकर अमर सिंह यहां पर अनेक प्रकार के भोग विलास करेगा। अमर के अभिलाषी होने पर मातृभूमि की स्वाधीनता जाती रहेगी जिसके लिए मैंने बराबर 25 वर्ष तक कष्ट उठाए, सभी तरह के सुख को छोड़ा।
समस्त सरदारों ने महाराणा को विश्वास दिलाया कि हम लोग बप्पा रावल के पवित्र सिंहासन की शपथ करते हैं कि जब तक हम में से कोई भी जीवित रहेगा मेवाड़ पर किसी का अधिकार नहीं होने देंगे। दुर्भाग्य से महाराणा प्रताप की विशेषताएं अमर सिंह में नहीं थी। मेवाड़ यादों में बसा है, महाराणा प्रताप को भूलना संभव नहीं क्योंकि पूरे सिसोदिया वंश में वह अकेले थे जीवन में संघर्ष करने वाले। उनके पिता उदय सिंह भी विलासी थे। उनके पुत्र अमर सिंह भी समझौतावादी थे। शायद यही कारण है कि महाराणा प्रताप भुलाए नहीं भूलते हम महाराणा की गाथा संघर्ष की गाथा।
लेखक इतिहास के प्रोफ़ेसर हैं एवं वर्तमान में मैनपुर महाविद्यालय में प्राचार्य के पद पर हैं।