अजातशत्रु- महन्त बिसाहू दास : डॉ. बलदेव
23 जुलाई अजातशत्रु- बिसाहू दास महंत की पैतालीस वीं पुण्यतिथि पर डाँ.बलदेव जी का आलेख
अपने सत्कर्मो से मनुष्य महान बनता है। संत कबीर और महात्मा गाँधी इस बात के उदाहरण हैं। महन्त बिसाहूदास इनके चरण चिन्हों पर चलने वाले हमारे समय के सर्वमान्य नेता थे, उनका उदार चरित्र अनुकरणीय है।
बिसाहूदास जी का जन्म ब्रह्ममुहूर्त में 1 अप्रैल 1924 को सारागाँव में एक सम्पन्न कृषक परिवार में हुआ था। अब यह गाँव चांपा – जांजगीर जिले में है। उनके पिता कुंजराम जी अनुशासन प्रिय एवं माता गायत्री देवी धार्मिक स्वभाव की भारतीय नारी थीं, वे कबीर पंथ के अनुयायी थे। इनका प्रभाव बालक बिसाहू दास पर स्वाभाविक रूप से पड़ा। दो भाई और चार बहनों में वे सबके लाड़ले थे। बिसाहू दास की प्रारंभिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में हुई। चरित्र निर्माण के लिए छात्र- जीवन सर्वोत्तम है। आज का छात्र कल का नागरिक होता है, राष्ट्र की उन्नति – अवनति वहाँ के नागरिकों पर निर्भर करती है, विद्यालय को नागरिकता का प्रथम प्रयोगशाला कहा जाता है। हमारे लोकप्रिय कर्मठ नेता महन्त बिसाहू दास सद्गुणों के खान थे। उनके व्यक्तित्व का विकास विद्यालय के स्वच्छ एवं स्वस्थ वातावरण में हुआ था। उनके छात्र जीवन की कहानी रोचक और प्रेरणास्पद है।
बालक बिसाहू दास में बचपन से ही कई गुण विद्यमान थे। सबेरे उठ कर नंगे पांव दौड़ना, तैरना, समय पर शाला जाना, गुरुजनों की आज्ञा मानना, सुबह – शाम घूमना उसकी आदत थी। वह मेघावी छात्र था। शिक्षकगण उसे असाधारण विद्यार्थी मानते थे। प्राथमिक प्रमाण पत्र परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने के कारण बिसाहूदास का चयन गवर्नमेंट हाई स्कूल बिलासपुर में 35 छात्रों के साथ हुआ। उसका चयन छात्रवृत्ति के लिए भी हुआ. यह छात्र और उसके माता – पिता के लिए गर्व का विषय बना। उन दिनों गवर्नमेंट हाई स्कूल बिलासपुर जिले का सबसे बड़ा शिक्षा केन्द्र था और शैक्षणिक दृष्टि से वह समूचे मध्यप्रदेश में विख्यात था। वहाँ लाला दीनानाथ जैसे ख्याति नाम शिक्षाविद प्राचार्य पद को सुशोभित करते थे। वे कठोर अनुशासन प्रिय एवं तेज – तर्रार प्राचार्य थे। प्रतिभावान छात्रों को वे विशेष रूप से प्रोत्साहित करते थे।
बिसाहू दास मेधावान छात्र तो थे ही, खिलंदड़ स्वभाव के कारण वे अच्छे खिलाड़ी के रूप में तेजी से उभरने लगे। वे शीघ्र ही छात्रों और शिक्षकों के बीच लोक प्रिय होने लगे, तब भला प्राचार्य महोदय की दृष्टि से कहाँ तक बचते। वे दीनानाथ जी के प्रिय शिष्यों में से एक थे। महन्त जी छात्रावास में रहते थे, वहाँ उनसे मेस चार्ज नहीं लिया जाता था। मिडिल स्कूल की परीक्षा उन्होंने प्रथम श्रेणी में पास की। इस बीच उन्होंने अनुभव किया कि शहरी क्षेत्र से आए छात्र छात्रावास में ग्रामीण क्षेत्र से आए छात्रों पर हावी रहते हैं। इससे वे दब्बू हो जाते हैं। मृदु स्वभाव के बिसाहूदास जूनियर छात्रों को प्रेम तो करते ही थे, अब उन्हें संगठित भी करने लगे। वे छात्र नेता बन गए। उनमें नेतृत्व की अद्भुत क्षमता थी। गणित और अंग्रेजी में उनका अलग रुतवा था, छात्र उन्हें अंग्रेजी की डिक्शनरी समझते थे, इस नाते भी उन्हें अपना अगुवा मानते थे। हॉकी, फुटबॉल, व्हालीवाल, टेनिस बिसाहूदास के प्रिय खेल थे। हॉकी टीम के वे कप्तान या उपकप्तान हुआ करते थे। जब तक वे हाईस्कूल के छात्र थे, उनकी टीम को हार का मुख कभी नहीं देखना पड़ा था।
1940-41 की यादगार घटना है। गवर्नमेंट हाईस्कूल बिलासपुर की टीम जिला हॉकी टूर्नामेंट खेलने जांजगीर गयी। पांच दिवसीय टूर्नामेंट था, इसमें कई टीम शामिल हुई थी। विद्यालय टीम का फाईनल मैच पुलिस टीम बिलासपुर से हुआ। बिसाहूदास लैफ्ट फुल बैक के रक्षण क्षेत्र में खेल रहे थे। उनके खेल – कौशल से दर्शक चमत्कृत हुए बिना न रहे। काँटे का टक्कर था। कठिन संघर्ष में भी विद्यालय टीम विजयी हुई। वाद – विवाद प्रतियोगिता में भी वे प्रथम पुरस्कार ले जाते थे। उनमें अद्भुत वकृत्व शक्ति थी। इन्हीं सद्गुणों के कारण प्राचार्य महोदय उन पर हमेशा गर्व किया करते थे।
उन दिनों स्वतंत्रता आन्दोलन चरमोत्कर्ष पर था। गांधी जी का प्रभाव छात्रों पर विशेष रूप से पड़ रहा था। इसी समय किशोर छात्र बिसाहूदास में देश प्रेम का अंकुर फूटा वे बानर सेना के सदस्य बन गए और गुप्त रूप से सत्याग्रहियों को पर्चे या सूचनाएँ देने लगे। विद्यालय में झंडा सत्याग्रह मनाया गया। छात्रों ने बड़े उत्साह से भाग लिया, उनमें देश – प्रेम की भावना हिलोरें लेने लगी। गोरेलाल शुक्ल , तरुण भादुडी और शालिग्राम देवांगन जैसे प्रतिभावान छात्र महन्त जी के सहपाठियों में थे ये आगे चलकर प्रदेश में उच्च श्रेणी के अधिकारी हुए। जब बिसाहूदारों कक्षा आठवीं के छात्र थे, तभी उनका विवाह पास के ही गाँव बेलहाडीह की सुशील कन्या जानकी बाई से हो गया था। इससे उनके अध्ययन में जरा भी रुकावट नहीं आई, परन्तु जब उनके बड़े भाई बहरता दास जी किसी गंभीर बीमारी के शिकार हो गए तब परिवार में विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा। बीमारी के साथ गरीबी ने भी गृह प्रवेश किया।
भयंकर विपदाओं के बीच बिसाहू दास जी ने मैट्रिक की परीक्षा दिलायी और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गए। उनमें आत्म – विश्वास और लगन की कमी नहीं थी। धैर्य उनका सम्बल था। उनकी सफलता का यही रहस्य था। अब समस्या हुई आगे पढ़ने की। आर्थिक दृष्टि से लाचार पिता ने होनहार पुत्र को खेती करने की सलाह दी। बड़े भाई की जि ने उन्हें उच्चशिक्षा के लिए नागपुर भेज दिया , उन्हें मॉरिश कालेज में बी.ए. में प्रवेश मिला। उन्होंने कॉलेज में सादा जीवन उच्च विचार लेकर प्रवेश किया। अब वे गाँधीवादी थे और खद्दर पहनते थे। कॉलेज में उन्हें छह रुपये की छात्रवृत्ति मिलती थी। कुछ दिनों के बाद वे ट्यूशन से दस रुपये और कमाने लगे। उन्होंने अपना खर्च एकदम कम कर दिया और मितव्ययिता का पाठ भी सीख लिया। वे पैसे बचाकर बड़े भाई की बीमारी के इलाज हेतु दुर्लभ इन्जेक्शन गाँव भेजा करते थे। बिसाहू दास अपने बड़े भाई की आँखों के तारे थे। दोनों में उच्चकोटि का बन्धुत्वं प्रेम था।
मिलनसार व्यक्तित्व और विनोदी स्वभाव के कारण महन्त जी को महाविद्यालय के वातावरण में घुलने – मिलने में समय न लगा, तब महाविद्यालय मात्र शिक्षा के नहीं, चरित्र निर्माण के केन्द्र होते थे, आजादी के दीवाने यहीं से पैदा होते थे। महाविद्यालय में उनका यह पहला ही साल था कि व्यापार के सिलसिले में आसाम गए पिता कुंजराम जी का देहान्त हो गया, दैवी – विधान को सहते हुए उन्होंने अपने दुख को राष्ट्र हित में भुला दिया। वे 9 अगस्त 1942 के अंग्रेजों भारत छोड़ो के आन्दोलन में कूद पड़े। अंग्रेजी पल्टन ने अश्रु गैस छोड़े, गोलियाँ चलाई , विद्यार्थी इंदुकर को गोली लगी, दो अन्य छात्र घायल हो गए पर आजादी के दीवानों पर इसका क्या असर होता। सहयोगियों के साथ आखिर महन्त जी ने न्यायालय में झंडा फहरा दिया। सरकार ने इस कृत्य को अपराध माना और उन्हें जेल में ढूंस दिया।
विद्वान प्राचार्य व्ही. व्ही. मिराशी के प्रयत्न से कुछ दिनों बाद उन्हें जेल से मुक्त कर दिया गया , पर छात्रवृत्ति बंद कर दी गयी। इससे वे जरा भी विचलित नहीं हुए और देश के लिए आजीवन संघर्ष करने की ठान ली। कॉलेज के छात्र जीवन में श्री राम बिहारी अग्रवाल, बसन्त साठे, प्रेमनाथ आदि असाधारण छात्र उनके सहपाठी थे, जो आगे चलकर देश के बड़े नेता, अभिनेता हुए। न्यायालय में झंडा फहराने वाली घटना से महन्त जी न केवल महाविद्यालय में सम्मान की दृष्टि से देखे जाने लगे अपितु वे नागपुर शहर में भी चर्चा का विषय बन गए। हॉकी, फुटबॉल, व्हालीबॉल, टेनिस के अच्छे खिलाड़ी ये पहले से थे अब महाविद्यालय में वे कप्तान भी चुने जाने लगे। उनका शॉट भयंकर तेज होता था, जिसको खेलना विरोधी टीम के लिए मुश्किल काम होता था, उनका हर शॉट एक प्वाइंट के रूप में दर्ज होता था। असाधारण नेतृत्व क्षमता के कारण कालेज में वे किंग मेकर की हैसियत रखते थे। जिस छात्र का वे समर्थन करते, लगभग उसकी जीत पक्की होती थी। मॉरिश कालेज से सन् 1946 में महन्त जी ने प्रथम श्रेणी में बी.ए. पास किया। 1949 में उन्होंने लॉ की डिग्री हासिल की। पूर्व प्रधानमंत्री पी. व्ही. नरसिम्हा राव और पूर्व मुख्यमंत्री पं. श्यामाचरण शुक्ल लॉ कालेज में उनसे दो साल सीनियर स्टूडेंटस् थे।
बिसाहूदास जी जब विधि की परीक्षा पास करके वापस गाँव लौटे तो घर में गरीबी का आलम था। जीविका के लिए उन्होंने कुछ दिनों के लिए वकालत की, पर शीघ्र ही बैरंग घर लौट आए। पहले तो उन्हें उनकी जाति का नाम लेकर अपमानित किया जाता था, अब पढ़े लिखे बेरोजगार समझकर उन पर गहरा व्यंग्य किया जाने लगा, शान्त स्वभाव के महन्त जी सब कुछ सुनकर आगे बढ़ जाते थे। लड़ना या जवाब देना उनके स्वभाव में नहीं था। शायद ही किसी ने उन्हें उत्तेजित होते देखा हो। असंयत भाषा का उन्होंने कभी प्रयोग नहीं किया।
सौभाग्य से नगरपालिका हाईस्कूल चांपा में प्रधानाध्यापक का पद खाली हुआ, उन्होंने आवेदन किया दे चुने गये और 20 जून 1950 को उक्त विद्यालय में प्रभारी मुख्याध्यापक का पदभार ग्रहण किया। वे लाला दीनानाथ के सुयोग्य छात्र थे। उन्होंने अपनी निष्ठा और अध्यापन कार्य से थोड़े दिनों में सभी लोगों को संतुष्ट कर दिया। उनके गृहस्थ जीवन की गाड़ी फिर धीरे – धीरे चलने लगी। अपने कार्य कौशल से महन्त जी पूरे क्षेत्र में चर्चित होने लगे उनके छात्र। उनकी ईमानदारी और मेहनत की सर्वत्र प्रशंसा होने लगी । अब वे जिले के प्रभावशाली प्राचार्यों में से एक थे । खेल और परीक्षाओं के उच्चस्तरीय परिणामों के कारण उनकी कार्य कुशलता की चर्चा करते हुए प्रसन्नता का अनुभव करते है । शालेय अनुशासन में एक बार ये अन्यों के लिए तो कोमल पड़ सकते थे, पर अपने लिए वे सदैव कठोर बने रहे। इन सबका प्रभाव उनके राजनीतिक जीवन पर पड़ा।
सहसा विश्वास ही नहीं होता, एक छोटे से गाँव में किसान के घर में पैदा हुए महन्त बिसाहू दास जैसा कोई संत राजनीति में कभी आया था। महन्त जी आजीवन अपराजेय रहे। उन्होंने स्तरीय मंत्री पदों को सुशोभित करते हुए जीवन के उच्चादर्शों को छुआ, भविष्य के लिए ये अविस्मरणीय उदाहरण होंगे, इसे किसी ने सोचा भी नहीं होगा। महन्त जी ने प्रदेश के कांग्रेसाध्यक्ष पद में रहकर छत्तीसगढ़ अंचल को गौरवान्वित किया था। चौड़ा माथा, घुंघराले काले केश, मोहक मुस्कान और सौम्य प्रकृति के बिसाहूदास महंत जी खादी के धोती – कुर्ता और जवाहरकट जैकेट में बड़े ही भव्य दिखते थे। आंखों में काला चश्मा और पावों में चप्पल उनके व्यक्तित्व को द्विगुणित कर देते थे। इसी धज में राजनीति में उन्होंने प्रवेश किया।
सन् 1952 में स्वतंत्र भारत में पहली बार लोकसभा और विधानसभाओं के लिए चुनाव हुआ। महन्त बिसाहू दास की ख्याति और बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर कांग्रेस ने उन्हें बाराद्वार विधान सभा क्षेत्र से अपना प्रत्याशी बनाया। अल्प साधनों के बाद भी सामन्ती प्रवृत्ति से शोषित पीड़ित जनता ने कृषक पुत्र बिसाहूदास जी को भारी मतो से विजयी बनाया। दिग्गज नेताओं के लिए यह अप्रत्याशित घटना थी। तब मध्यप्रान्त की राजधानी नागपुर थी।
सबसे कम उम्र के महंत जी सरल हृदय और मधुर व्यवहार के कारण विधान सभा में सभी का स्नेह पात्र बने। यहाँ पंडित रविशंकर शुक्ल जैसे महान व्यक्ति की स्नेहिल छाया में महन्त जी को राजनीति की पहली दीक्षा मिली। विसाहूदास जी ने राजनीति के मर्म को समझा। राजनीति में छल – प्रपंच से वे सदा दूर रहते थे। राजनीति उनके लिए जन सेवा का माध्यम थी। उन्होंने अपने अंचल के विकास के लिए हर संभव प्रयत्न किया। अंचल की समस्याओं के निराकरण के लिए उन्होंने शासन को विवश किया। वे माटी – पुत्र थे, उन्हें जनता से लगाव था, इसलिए उनके कार्यों में विशेष रूचि लेते थे।
1 नवम्बर 1956 को मध्यप्रदेश का पुनर्गठन हुआ और भोपाल उसकी राजधानी बनी। 1957 के चुनाव में जनता ने फिर उन्हें भारी मतों से विजयी बनाया। यह उनकी मिलन , सारिता , पर दुःख – कातरता और नि : स्वार्थ सेवा का प्रतिफल था। उनका आत्म – विश्वास बढ़ता गया। अब वे जनता के और भी करीब आने लगे। यही वजह है महन्त बिसाहूदास आजीवन अपराजेय रहे। वे 1957 से 1977 तक सभी चुनावों में विजयी होते रहे जो कि एक रिकार्ड है। 1977 की जनता लहर में इंदिरा गाँधी जैसी महान शक्ति हार गई यह कम आश्चर्य नहीं बिसाहू दास जी अस्पताल में भर्ती रहकर भी चुनाव जीत गए। उन्हीं की रणनीति से कांग्रेस के 57 उम्मीदवारों को सफलता मिली। अधिकांश उनमें से छत्तीसगढ़ के थे, वे बिसाहूदास जी महन्त के प्रबल समर्थक लोग थे।
बिसाहूदास जी दूरदर्शी थे। कांग्रेस के वे विश्वस्त सिपाही थे। वे जनता के विश्वास को अपनी धरोहर समझते थे। इसलिए उसे कभी नहीं तोड़ा। पद प्रतिष्ठा और पैसे की लालच उन्हें कर्तव्य पथ से डिगा नहीं सकती थी। 1967 में मुख्यमंत्री गोविन्द नारायण सिंह ने अपने अभिन्न मित्र को संविद में आने का आमंत्रण दिया , मंत्री पद का प्रलोभन भी दिया, पर वे पथभ्रष्ट नहीं हुए। वे पिछली रक्षा पंक्ति में फौलाद की दीवार बनकर अड़े रहे। इसके बावजूद दोनों की मैत्री में रंचमात्र का अन्तर नहीं आया, यह बड़ी बात थी। विपक्ष में रहकर अपने क्षेत्र की समस्या को वे विधानसभा में जोरदार ढंग से उठाते थे और सरकार से अपनी बातें मनवाकर ही शान्त होते थे। वे व्यक्तिगत राग – द्वेषों से मुक्त थे। उनकी निष्ठा के कारण ही उन्हें शुक्ल सरकार में केबिनेट मंत्री बनाया गया। वह भी लोक निर्माण जैसे भारी भरकम विभाग का सत्ता में आते ही उन्होंने बिलासपुर संभाग के नये – पुराने पुलों , नहरों और सड़कों का विस्तार किया। जिससे संभाग अन्य संभागों से सीधे जुड़ सका। पड़ोसी राज्यों से भी इससे संपर्क हो सका। इससे आर्थिक विकास का द्वार सदा – सदा के लिए खुल गया। जेलमंत्री के रूप में रहते हुए महन्त जी ने बन्दीग्रहों में कई सुधार किए। अपराधियों को मुख्यधारा से जुड़ने के लिए अनेक महत्वपूर्ण अवसर दिए।
महन्त बिसाहूदास जितने विनम्र थे, उनते ही स्वाभिमानी थे। एक बार मुख्यमंत्री प्रकाश चन्द्र सेठी ने किसी बात को लेकर उन्हें अपमानित करना चाहा, महन्त जी ने उद्योग वाणिज्य मंत्री पद से तत्काल त्याग पत्र दे दिया। फिर क्या था, उनके समर्थकों ने भी स्तीफा दे दिया, सरकार अल्पमत में आ गई। लाचार मुख्यमंत्री जी को झुकना पड़ा। लेकिन अनुशासन प्रिय महन्त जी ने साथियों सहित अपने प्रिय नेता प्रियदर्शनी इंदिरा जी के निर्देश पर इस्तीफा वापिस ले लिया। बिसाहूदास जी अब प्रदेश के आर्थिक विकास के लिए सक्रिय हो उठे। उन्होंने छत्तीसगढ़ में परम्परागत छोटे – छोटे उद्योगों को बढ़ावा दिया। कामगारों को कम ब्याज पर उद्योग शुरू करने के लिए रुपये दिलवाये। इसके साथ ही उन्होंने कल – कारखाने और बड़े उद्योग लगाने के लिए विस्तृत कार्य – योजना बनवाई। छत्तीसगढ़ में आज चौमुखी विकास हो रहा है, उसका सूत्रपात महन्त जी और उनके सहयोगियों द्वारा हुआ था।
मंत्री के रूप में बिसाहूदास जी ने सरकार और जनता के बीच सेतु का कार्य किया, इसीलिए दोनों के बीच लोकप्रिय रहे। समय पर काम निपटाना जनता की समस्या को ध्यान से सुनना और निराकरण करना उनका नियमित का काम था। महन्त जी मृदु भाषी स्वभाव के तो थे ही विनोदी भी कम न थे। झगड़ा निपटाने की कला तो कोई उनसे ही सीखे बड़े – बड़े विवाद वे घुट की मारते निपटा देते थे। न वे किसी को झूठे आश्वासन देते और न ही किसी निर्णय में उहापोह की स्थिति निर्मित करते। उनका चिन्तन सुविचारित और स्पष्ट होता था, इसलिए सबको मान्य होता था। विरोधी भी उनका लोहा मानते थे। विकास कार्यो में लेट लतीफी या किसी प्रकार की अडगेबाजी उन्हें पसन्द नहीं थी। वे अपने विरोधियों के आक्रोश को हंसते हुए शान्त कर देते थे। दुखी व्यक्ति के कटु – प्रहारों को भी शालीनता से झेल लेते थे। वे हर संभव उनकी मदद कर देते थे, वह भी गुप्त रूप से। इसीलिए विरोधी गुट के नेता भी उनसे परामर्श लेते, उनका हृदय से सम्मान करते थे। वास्तव में महंत विसाहू दास अजात शत्रु थे।
महंत जी छत्तीसगढ़िया लोगों के प्रति विशेष सहानुभूति रखते थे। भोपाल में आए हुए छत्तीसगढ़ी भाईयों के ठहरने खाने – पीने की भी वे व्यवस्था करते रहते थे। अतिथि सत्कार में उनकी पत्नी जानकी बाई उनका सहयोग करती थी। वे सरल , सुंदर और निश्छल थीं। छत्तीसगढ़ियों के लिए ममतामयी माँ के समान थी। दोनों ही छत्तीसगढ़ी में बात करके उनसे निकटता का परिचय देते।
महंत बिसाहूदास कबीर जैसे फक्कड़ स्वभाव के थे। वे राजनीति में रहकर भी निष्कलंक रहे। दरअसल वे गांधीवादी नेता थे। ये छुआ – छूत, जाति – धर्म की संकीर्णता को हिन्दू धर्म का पाप समझते थे। वे सैद्धांतिक होने के साथ व्यावहारिक भी थे। समाज सेवा उनका मुख्य उद्देश्य था। सामाजिक बुराईयों के उच्छेद के लिए वे निरंतर सक्रिय रहे। हरिजनों के उद्धार के लिए वे उनके मोहल्लों में जाकर स्वच्छता, शिक्षा और राजनीतिक एकता की बात किया करते थे। महिला जागृति में उनकी विशेष दिलचस्पी थी। वे आदिवासी और नारी शिक्षा की दिशा में ठोस निर्णय लेते थे। महंत जी सच्चे इन्सान थे, उन्होंने अपने लिए कुछ भी नहीं जोड़ा। सन्त हृदय ऐसे महामानव का अल्पायु में 23 जुलाई 1978 को देहावसान हो गया। अक्सर सभाओं में वे कबीर का यह दोहा सुनाया करते थे –
जब तू आया जगत में, जगत हँसे तू रोय ।
ऐसी करनी कर चले, आप हँसे, जग रोय ॥
और यह सब उनके जीवन पर घटित हो गया। क्या कभी ऐसे प्रिय नेता और समाज सुधारक को भुलाया जा सकता है ?
प्रस्तुति: बसन्त राघव
श्री शारदा साहित्य सदन
स्टेडियम के पीछे, रायगढ़
स्वर्गीय बिसाहू दास महंत जी को मैं श्री चरण दास महंत जी के पिता के रूप में जानता था कि अपने दौर के राजनेता थे लेकिन पहली बार व्यवस्थित ढंग से उनके बारे में सर्वांगीण जानकारी प्राप्त हुई । लेखक संपादक बधाई के पात्र हैं।