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छत्तीसगढ़ की प्रथम कालापानी की सजा-हटे सिंह को : सुरेन्द्र साय का उलगुलान

भारत की आजादी की क्रांति में छत्तीसगढ़ के तीन महत्वपूर्ण राजवंशों ने अंग्रेजों के साथ युद्ध करते हुए अपने को न्योछावर कर दिया था। सोनाखान जमींदारी के शहीद वीर नारायण सिंह, संबलपुर के घेंस जमींदारी के माधो सिंह और संबलपुर राज गद्दी के दावेदार वीर सुरेन्द्र साय का परिवार और सैकड़ों साथी आजादी के लिए बलिदान देकर शहीद हुए। माधोसिंह शहीद वीर नारायण सिंह के ससुर और शहीद हटेसिंह उनके साले थे। इस क्रांति में इन दो बड़े अंग्रेज सैन्य अधिकारियों की भी इन क्रांतिकारियों ने हत्या की। इन तीन परिवारों के बलिदान की कहानी अनसुनी और इतिहास के गर्त में है।

माधोसिंह के पुत्र हटे सिंह एक नायक की तरह उभरकर सामने आए थे। वे छत्तीसगढ़ के पहले क्रांतिकारी थे जिन्हें अंग्रेजों ने कालापानी की सजा देकर अंडमान की सेल्युलर जेल में डाल दिया। वे कभी लौटकर नहीं आए। छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद वीरनारायण सिंह और इन दो परिवारों की यह शौर्य गाथा आज भी अबूझ है। शहीद वीर नारायण सिंह को फांसी दी गई और हटे सिंह पहले क्रांतिकारी थे जिन्हें सेल्युलर जेल भेजा गया। वीर नारायण सिंह, माधोसिंह और हटेसिंह के इस महान बलिदान को उजागर कर इतिहास के पन्नों को सुधारने का यह समय है। बलिदान की यह सिलसिलेवार घटनाएं कौतूहल पूर्ण है।

छत्तीसगढ़ में हम सभी वीर नारायण सिंह के पराक्रम और बलिदान से अवगत है। परन्तु उनके ससुर माधो सिंह तथा उनके पुत्रों के बलिदान से छत्तीसगढ़ सर्वथा अनभिज्ञ हैं। माधो सिंह ने 72 वर्ष की आयु में ईस्ट इंडिया कम्पनी के गोरे एवं काले सेना के विरुद्ध न सिर्फ सशस्त्र संघर्ष किया वरन अपना सर्वोच्च बलिदान भी किया था। उनके पुत्रों तथा अन्य जमींदार सम्बलपुर के क्रांतिवीर सुरेन्द्र साय के कट्टर समर्थक थे।ओडि़शा के इतिहासकारों ने नारायण सिंह के योगदान की भी सविस्तार चर्चा की है।

आज वीर नारायण सिंह के ससुराल पक्ष के अनेक ऐसे तथ्यों को छत्तीसगढ़ में उद्धाटित किया जा रहा है जो सर्वथा नेपथ्य में रह गये थे, छत्तीसगढ़ के लिए उन ऐतिहासिक तथ्यों का जानना इसलिए भी आवश्यकता है क्योंकि सूत्र सुरेन्द्र साय के ‘उलगुलन’ (क्रांति) से जुड़ते हैं।
ज्ञात हो 1905 से पूर्व राजधानी नागपुर के अंतर्गत रायपुर कमिश्नरी में दो जिले रायपुर और वर्तमान ओडि़शा का सम्बलपुर था। इन दोनों जिलों का मुख्य प्रशासनिक अधिकारी डिप्टी कमिश्नर कहलाता था।

जमीदारों में आक्रोश
1827 में सबंलपुर के चौहान राजा की मृत्यु के बाद राज सिंहासन पर विधवा रानी मोहन कुमारी को बैठा दिया गया। जबकि वास्तव में सिंहासन के प्रबल और वास्तविक उत्तराधिकारी थे ‘खिंडा’ राजघराने के सुरेन्द्र साय। वे चौथे चौहान वंश के राजा (संबलपुर-बरगढ़) धरम सिंह के पुत्र थे।

दूसरे दावेदार थे झारसुगुड़ा के मधुकुरा साय और तीसरे हकदार थे बरपाली जमींदार भवानी सिंह के चाचा नारायण सिंह। अंग्रेेजों ने स्वाभाविक उत्तराधिकारियों को नजरअंदाज कर अपने पिट्ठू के रूप में विधवा रानी मोहन कुमारी को गद्दी पर बैठा दिया था। स्वाभाविक रूप से अंसतोष व्याप्त हो गया और सभी जमीदार सुरेन्द्र साय के पक्ष में एकजुट हो गये। अंग्रेजों ने मोहन कुमारी की आड़ में हड़प नीति को अमलीजामा पहनाना प्रारंभ कर दिया। अनेक ब्राम्हण, गोंड़ और बिंझवार जमीदारियां हड़प ली गईं। विरोध में भेंडेन जमीदार अवधूत सिंह और लखनपुर के जमीदार बलभद्र सिंह दाऊ भी सुरेन्द्र साय के साथ हो लिए।

जमींदारों में अंग्रेजों के प्रति इतना आक्रोश था कि, दोनों पक्षों के बीच संघर्ष अनिवार्य हो गया। आखिरकार 16 दिसम्बर 1830 को भेंडेन जमीदार अवधूत सिंह और मोहन कुमारी की सेना के बीच पपंगा की पहाड़ी में युध्द हुआ। दुर्भाग्यवश अवधूत सिंह पराजित हो गये। उनकी जमींदारी छीन ली गई। लेकिन पराजय से अवधूत से निराश नहीं हुए बल्कि लखनपुर जमींदार बलभद्र सिंह दाऊ के साथ मिलकर 22 दिसम्बर 1830 को रामगढ़ बटालियन पर आक्रमण कर दिया। संघर्ष में 27 दिसम्बर को 3 सिपाही घायल हुए।

घटनाक्रम से प्रतीत होता है कि जमीदारों के विरोध के समक्ष अंग्रेज पक्ष कमजोर पडऩे लगा था। अत: शांति बहाली के उद्देश्य से कैप्टन विलकिन ने 5 मार्च को अवधूत सिंह को भेंडेन की जमींदारी वापस सौंप दी। इसके साथ रानी मोहन कुमारी को हटाकर सम्बलपुर की गद्दी पर 11 अक्टूबर 1833 को बरपाली के वयोवृध्द जमींदार नारायण सिंह को बैठा दिया गया। परंतु जमीदारों ने नारायण सिंह को भी स्वीकार नहीं किया और विरोध जारी रखा। सुरेन्द्रसाय व अवधूत सिंह गोरिल्ला युध्द करते रहे।

विश्वासघात
एक ओर क्रांतिवीर अंग्रेजों को सबक सीखाने की तैयारी में लगे थे तो चंद गद्दार क्रांति में पलीता लगाने की ताक में थे। 12 नवम्बर 1837 रास पूर्णिमा (कार्तिक पूर्णिमा) की रात्रि सुरेन्द्र साय उलगुलन (क्रांति) की रणनीति पर विचार विमर्श कर रहे थे। इसकी सूचना सुरेन्द्र साय के निकटस्थ पहारू गांड़ा ने अंग्रेजों को दे दी। अंग्रेजों के नेतृत्व में संबलपुर के राजा नारायण सिंह, रामपुर तथा बरपाली की संयुक्त सेना ने आक्रमण कर दिया परंतु किसी तरह सुरेन्द्र साय बच निकले। लेकिन लखनपुर के जमींदार बलभद्र सिंह दाऊ वीरगति को प्राप्त हो गए।

बलभद्र सिंह के बलिदान की सूचना से क्रोधित सुरेन्द्र साय ने लौट रही गोरी सेना पर भीषण आक्रमण कर दिया। रामपुर के जमींदार दुर्जन सिंह के पिता ओर पुत्र का वध कर दिया गया। लौट रहे सुरेन्द्र साय और कंपनी सेना के मध्य बुढ़ा राजा के पास देहरीपाली में मुठभेड़ हुई, इस बार सुरेन्द्र साय को पराजय का मुख देखना पड़ा, वे गिरफ्तार कर 1840 में बिहार के हजारीबाग जेल भेज दिए गए। यह सुरेन्द्र साय और उनके सहयोगी जमींदारों के उलगुलन का प्रथम चरण था।

हजारीबाग जेल ब्रेक
10 मई 1857 को मेरठ छावनी में चर्बीयुक्त कारतूस के मुद्दे पर हिन्दू और मुस्लिम सिपाहियों ने विद्रोह कर क्रांति का बिगुल फूंक दिया। इसे देश का प्रथम स्वधीनता संग्राम कहा जाता है। ईस्ट इंडिया कंपनी और उसकी सेना भौंचक रह गई। रोटी और कमल के माध्यम से क्रांति का संदेश फैलने लगा। एक के बाद एक स्थानीय शासक क्रांति में सम्मिलित होते गए।

इस बीच 30 जुलाई 1857 को मौका पाते ही सुरेन्द्र साय हजारीबाग जेल को तोड़कर भाग निकलने में सफल हो गए। माना जाता है कि, उन्हें भारतीय जेल प्रहरियों का सहयोग मिला था। वे जमींदारों को संगठित करने के अभियान में जुट गए। बलभद्र सिंह दाऊ के पुत्र व परिजन गजराज सिंह, कमल सिंह, नीलम्बर सिंह और खगेश्वर सिंह के नाती, घेंस के जमीदार माधो सिंह बरिहा और उनके 4 पुत्र क्रमश: हटे सिंह, कुंजल सिंह, बैरी सिंह और ऐरी सिंह मुंड महल के जमीदार अनंत सिंह, पहाड़ सिंगडा के जमीदार जनार्दन सिंह, मारकंड बरिहा, भेंडेन जमींदार मनोहर सिंह प्रधान और पटकुलुण्ड़ा जमींदार आदि प्रमुख थे।

घेंस जमींदारी
घेंस जमींदारी का वीरता पूर्ण इतिहास स्वर्णाक्षरों में अंकित है। घेंस जमींदारी वर्तमान बरगढ़ से 42 कि.मी. दूर दक्षिण-पश्चिम में पदमपुर मार्ग में स्थित है। छत्तीसगढ़ की सीमा से लगभग 35 कि.मी. है। 17वीं शताब्दी के आरम्भ में बोड़ा साम्भर जमींदारी से घेंस को पृथक कर नई जमींदारी का गठन किया गया था। नवगठित घेंस जमींदारी के प्रथम जमींदार विनोद सिंह थे। रिकार्ड के अनुसार घेंस 40 कि.मी. में विस्तृत था, जिसमें 15 गांव सम्मिलित (10 गांव असली 5 गांव दाखिली) थे। जबकि वास्तव में घेंस के तहत 25 गांव थे। 20 गांव घेंस क्षेत्र में और 5 गांव सोहेला क्षेत्र में थे। सोहेला क्षेत्र के 5 गांव माधो सिंह के द्वितीय पुत्र कुंजल सिंह को दहेज में प्राप्त हुआ था।

माधो सिंह बरिहा
माधो सिंह बरिहा घेंस जमींदारी की छठवीं पीढ़ी में थे। माधो सिंह अपने त्याग, मातृभूमि की रक्षा और कंपनी (अंग्रेज) सरकार के प्रति तीव्र विरोध के लिए विख्यात थे। ये सुरेन्द्र साय के उलगुलन में अपने पुत्रों हटे सिंह, कुंजल सिंह, बैरी सिंह और ऐरी सिंह तथा दामाद सोनाखान के जमींदार नारायण सिंह व उनके पुत्र गोविन्द सिंह के साथ सम्मिलित थे। कहते हैं कि माधो सिंह की पौत्री पूर्णिमा बरिहा (वीर नारायण सिंह की बहू) भी उलगुलन में सम्मिलित थी।

टेक्स में वृध्दि
जमींदारों में असंतोष और आक्रोश का एक बड़ा कारण टेक्स (राजस्व कर) में अनाप शनाप वृध्दि भी थी। 1849 में कुल 8800 रुपए था जिसे 1854 में आठ गुना बढ़ाकर 74000 रुपए कर दिया गया। सोनाखान जमींदारी का टेक्स भी इसी तरह बढ़ा दिया गया था। आक्रोशित जमींदारों ने विरोध स्वरूप बम्बई-रायपुर-सम्बलपुर-कलकत्ता मार्ग को अवरुध्द करने की योजना बनाई। इसके एक तरफ की जिम्मेदारी माधो सिंह को सौंपी गई। माधो सिंह और उनके पुत्रों ने सरायपाली और सोहेला के मध्य सिंघोड़ा घाटी को अवरुध्द कर दिया। आवागमन पुरी तरह से ठप हो गया। छत्तीसगढ़ कमिश्नरी के रायपुर और संबलपुर जिलों का संपर्क टूट गया और प्रशासनिक व्यवस्था चरमराने लगी। हालात बिगड़ते देख कंपनी सरकार ने स्थानीय सैनिकों को भेजा परंतु उन्हें पराजित होकर लौटना पड़ा।

इस बीच हुए घटनाक्रम में 10 दिसम्बर 1857 को माधो सिंह के दामाद सोनाखान के जमीदार नारायण सिंह को कंपनी सरकार विरुध्द बगावत करने आरोप में रायपुर में फांसी दे दी गई। इस समाचार से माधो सिंह की दशा घायल शेर की तरह हो गई। उधर सिंघोड़-घाटी को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए कैप्टन ई. जी. वूड पहुंचा। माधो सिंह से 26 दिसम्बर 1857 को उसका युध्द हुआ। कैप्टन पराजित वूड अपनी जान बचाकर संबलपुर की ओर भाग निकला। संबलपुर के निकट कुदोपाली में सुरेन्द्र साय के छोटे भाई छबिल साय से वूड का सामना हो गया। दुर्भाग्यवश छबिल साय और उनके 5-6 सैनिकों का बलिदान हो गया। इस घटना से माधो सिंह को बड़ी पीड़ा हुई। क्योकि वे चाहते तो कैप्टन वूड को गिरफ्तार कर उसका वध कर सकते थे, लेकिन उन्होंने उसे भागने का अवसर दे दिया।

वूड की विफलता के बाद कंपनी सरकार ने सिंघोडा घाटी को खुलवाने के लिए कैप्टन शेक्सपियर को भेजा। जहां कैप्टन शेक्सपियर का सामना हुआ माधो सिंह के पुत्र हटे सिंह से। संघर्ष में के दौरान हटे सिंह की कनपटी पर पत्थर से संघातिक चोट पहुंची। इस बीच माधो सिंह अपनी सेना को एकत्र कर पहाड़ी पर आ गये जहां कैप्टन शेक्सपियर और संबलपुर के डिप्टी कमीश्नर ए. वी. केम्बरलेज की सेना से भीषण संग्राम छिड़ गया। युध्द के दौरान कैप्टन शेक्सपियर पकड़ा गया, माधो सिंह ने उसका सिर काटकर पीपल के वृक्ष पर लटका दिया। युध्द में अनेक अंग्रेज सैनिक भी मारे गए। सिंघोड़ा घाटी में जाम यथावत रहा। कुछ माह के बाद कैप्टन एन्ड्रींग बारलो को सिंघोड़ा घाटी पर कब्जा करने के लिए भेजा गया। सिंघोड़ा घाटी में शेक्सपियर और अंग्रेज सिपाहियों की नग्न लाश देखकर बारलो थर्रा गया और बिना कार्यवाही किए संबलपुर भाग गया।

ये दस महिने माधो सिंह के लिए अत्यंत कष्टकारक थे। दामाद सोनाखान के जमींदार नारायण सिंह की मृत्यु हो चुकी थी और सबसे छोटे पुत्र ऐरी सिंह की हत्या मुखबिरी के कारण हो गई। माधो सिंह के चौथे पुत्र ऐरी सिंह की आयु कम थी इसलिए उसे युध्द में सम्मिलित नहीं किया जाता था। उसे सुरेन्द्र साय और माधो सिंह के बीच सम्पर्क सूत्र (संदेशवाहक) तथा सैनिकों के लिए राशन-रसद और हथियार की आपूर्ति करने का जिम्मा सौंपा गया था। अंग्रेज इस महत्वपूर्ण कड़ी को तोडऩे की ताक में थे। घेंस के पास अंग्रेजों ने छावनी बना ली थी, जिसे स्थानीय लोग ”साहेब डेरा” कहते थें। अंग्रेजों को घेंस के पड़ोसी बीजेपुर के जमींदार से सहायता मिल रही थी।

श्रीमद नामक चौकीदार अंग्रेजों के लिए गुप्तचरी करने लगा। वह ऐरी सिंह की गतिविधियों पर दृष्टि जमाए हुए था। एक दिन उसने शानू भाट और उसकी पत्नी फगनी भाटेन के माध्यम से ऐरी सिंह के आने की सूचना छावनी में अंग्रेजों तक पहुंचा दी। सूचना पाते ही अंग्रेजों का दल ऐरी सिंह का पीछे पड़ गया। ऐरी सिंह को ढूंढने में असफल होकर अंग्रेजी सेना लौट रही थी तभी ऐरी सिंह का कुत्ता सुरंग से बाहर निकल गया, अंग्रेजी सेना के सिपाहियों ने उसे देख लिया। उन्हे संकेत मिल गया कि ऐरी सिंह उसी गुफा में छुपा हुआ है। सैनिकों ने जंगल से लकड़ी और सूखी पत्तियां एकत्र कर गुफा में भरकर आग लगा दिया और द्वार को एक बड़े पत्थर से बंद कर दिया। आग और धुंए से दम घुटने से ऐरी सिंह की दर्दनाक मौत गुफा के अन्दर हो गई। उक्त सुरंग के स्थानको ”साईड्वेल”के नाम से जाना जाता है।

ऐरी सिंह की मृत्यु माधो सिंह की रणनीति के लिए बहुत बड़ा झटका था। एक तो रसद-राशन का स्त्रोत बंद हो गया और दूसरे सुरेन्द्र साय के साथ संपर्क सूत्र टूट गया। घटना की सूचना पीठ कबरी नामक व्यक्ति द्वारा कुंजल सिंह को दी गई। कुंजल सिंह उस समय देवरीगढ़ में थे। सूचना मिलते ही वे घेंस लौट गये। क्रोध से भरे कुंजल सिंह ने शानू भाट और फगनी भाटेन पर आक्रमण कर दिया। फगनी की तो मौत हो गई पर गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद शानू भाट भागने में सफल हो गया। उल्लेखनीय है प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान क्रांतिकारियों द्वारा फगनी भाटेन की हत्या संभवत: प्रथम महिला की हत्या है।

अंग्रेजों को यह भली भांति ज्ञात था कि माधो सिंह के ज्येष्ठ पुत्र हटे सिंह को संघातिक चोट लगी है, उन्होंने हटे सिंह की मृत्यु की अफवाह फैला दी और उनकी लाश दिखाने वाले को 5 गांव पुरस्कार स्वरूप देने की घोषणा कर दी थी। लालच में आकर केनकेनी नाम व्यक्ति ने हटे सिंह के निकट सहयोगी खरसाल भोई के शव को हटे सिंह की शव बताकर दिखा दिया यह झूठी सूचना माधो सिंह के तीसरे पुत्र बैरी सिंह को मिली। उसने क्रोधित होकर कनेकेनी का वध कर दिया।

इस बीच 1858 के अंत में मेजर फास्टर के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना घेंस जमींदारी पहुंची और खाली गांव में आग लगा दी। खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे की तर्ज पर अंग्रेजों ने गांव जलाने का नंगा नाच सोनाखान में भी 1857 में किया था। अग्नि कांड के बाद माधो सिंह जंगल की ओर निकल गये। वे 79 वर्ष की आयु में थे, दूसरे अनवरत युध्दरत रहने के कारण भोजन व विश्राम के अभाव में वे कमजोर हो गएथे और बीमार रहने लगे। जब वे विश्राम करने मारीभाठा गांव जा रहे थो तभी उन पर आक्रमण कर गिरफ्तार कर लिया गया। उस वयोवृध्द और निरंतर अंग्रेजो से लोहा लेने वाले मातृभूमि के प्रिय पुत्र माधो सिंह को 31 दिसम्बर 1858 को संबलपुर जेल चौक में फंसी दे दी गई।

पिता की मृत्यु के बाद तीनों पुत्र प्रतिशोध लेने के अवसर के ताक में सिंघोड़ा घाटी में डट गए साथ ही घेंस जमींदार की जिम्मेदारी निभाते रहे। 1858 से 1860 के बीच हटे सिंह एवं अंग्रेजों के बीच संघर्ष चलता रहा। अंग्रेजों ने सोचा था कि पिता की मृत्यु के बाद तीनों पुत्र हटे सिंह, कुंजल सिंह और बैरी सिंह कमजोर पड़ जाएंगे पर हुआ ठीक विपरीत। सिंघोड़ा घाटी के अलावा, नीशा घाटी, सरतला घाटी, जूनागढ़, मानिकगढ़, शिशुपाल गढ़, गुड़ा पहाड़, सोनाबेड़ा, जैसे रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थानों पर तीनों भाईयों का नियंत्रण बना रहा।

स्मरण रहे 1858 में कैप्टन शेक्सपियर के साथ युध्द में घायल हटे सिंह की श्रवण शक्ति कमजोर हो गई और वे शारीरिक रूप से भी शिथिल होने लगे थे। ऐसी दशा में उदन्त साय ने हटे सिंह को सलाह दी कि वे संबलपुर के डिप्टी कमीश्नर इम्वे के नीति का लाभ लेते आत्मसमर्पण कर दें, इससे जमींदारी भी उन्हें वापस मिल जाएगी। इसी प्रत्याशा में हटे सिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया पर अंग्रेजों ने उनके साथ विश्वासघात किया और 22 जनवरी 1865 को हटे सिंह को कालापानी की सजा देकर अड़मान निकोबार भेज दिया।

विशेष उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश न्यायिक रिकार्ड के अनुसार उन्हें सभी आरोपों से दोष मुक्त कर दिया गया था। लेकिन संबलपुर के डिप्टी कमीश्नर ए.वी. कैम्बरलेज और रायपुर के डिप्टी कमीश्नर ए.जी. बेई ने उन्हें दोश मुक्त नहीं माना। दोनों के अडियल और पूर्वाग्रह युक्त रवैये के कारण हटे सिंह को अंतत: सेल्यूलर जेल भेज दिया गया। छत्तीसगढ़ से कालापानी की सजा पाने वाले हटे सिंह पहले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे।

माधो सिंह के द्वितीय पुत्र कुंजल सिंह भी पराक्रमी थे। वे अपने सहयोगी लखनपुर के कमल सिंह दाऊ के साथ अंतत: तक सुरेन्द्र साय के दाएं-बाएं हाथ बनकर रहे। 1864 में सुरेन्द्र साय ने गरियाबंद में आत्मसमर्पण कर दिया, लेकिन कुंजल सिंह ने आत्मसमर्पण नहीं किया। उन्हें गिरफ्तार कर फगनी भाटेन की हत्या के आरोप में संबलपुर जेल में फांसी दे दी गई।

कुंजल सिंह अत्यंत साहसी थे। कहा जाता है कि क्रांतिकारियों के एक जुलूस के दौरान हाथी अनियंत्रित हो गया था जिसे कुंंजल सिंह ने नियंत्रित कर लिया था। यह घटना संबलपुर में जिस स्थान पर इुई थी उसे आज भी ”कुंजल पारा” के नाम से जाना जाता है। माधो सिंह के तृतीय पुत्र बैरी सिंह को केनकेनी की हत्या के आरोप में आजीवन कारावास की सजा दी गई। केनकेनी ही वह व्यक्ति था जो पांच गांव पुरस्कार पाने के लालच में हटे सिंह की लाश अंग्रेजों को दिखाया था। पर वह लाश हटे सिंह के सहयोगी खरसाल भोई की थी। बैरी सिंह की मृत्यु संबलपुर जेल में हुई।

स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में ऐसे उदाहरण बहुत कम है जिसमें पिता ओर चार पुत्रों ने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया हो। विशेष उल्लेखनीय है कि हटे सिंह छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के योध्दा हैं जिन्हे कालापानी की सजा देकर सेल्यूलर जेल अण्डमान-निकोबार भेजा गया था। माधो सिंह के सबसे छोटे पुत्र थे नारायण सिंह। बहुत छोटे होने के कारण उन्हें पैठूपाली भेज दिया गया जहां वह अंग्रेजों की पहुंच से दूर रहें। माधो सिंह के छठवीं पीढ़ी वर्तमान में रंजीत सिंह घेंस में निवासरत है।

वीर नारायण सिंह और माधोसिंह
घेंस जमींदर माधोसिंह की पुत्री तुलसी का विवाह सोनाखान के जमींदार नारायण सिंह से हुआ था। वीर नारायण सिंह के विषय में हम सभी विस्तार से जानते हैं। हमें यह भी ज्ञात है कि नारायण सिंह के विरोधी रहे देवरी के जमींदार महाराज साय का वध कुंंजल सिंह के सहयोग से नारायण के पुत्र गोविन्द सिंह ने किया था। कुंजल सिंह गोविन्द सिंह के मामा थे और उनकी पुत्री पूर्णिमा का विवाह गोविन्द सिंह से हुआ था।
खेद है कि गोविन्द सिंह के विषय में छत्तीसगढ़ के इतिहास में अत्यंत अल्प सूचना मिलती है परन्तु ओडिशा के इतिहासकारों ने माधो सिंह के परिवार के साथ ही नारायण सिंह के परिवार की सूचनाएं एकत्र की है। उसके आधार पर कहा जा सकता है कि महाराज साय के विरुध्द अभियान में गोविन्द सिंह के साथ हटे सिंह, कुंजल सिंह और तानवट (नावापारा)के जमींदार शोभा सिंह भी थे। अंतत: गोविन्द सिंह भी गिरफ्तार कर लिये गये और मृत्यु दण्ड दिया गया। उनकी पत्नी पूर्णिमा को किसी तरह गोविन्द सिंह की हत्या का समाचार मिला इससे उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया। वह जंगलों में पति को ढूंढती भटकती रही आखिर उसने कुएं में कूदकर आत्महत्या कर ली।

माधो सिंह और वीर नारायण सिंह के परिवार का बलिदान
01. माधोसिंह:-31 दिसम्बर 1858 को संबलपुर जेल चौक में फांसी
02. हटे सिंह:-कालापानी की सजा
03. कुंजल सिंह:-संबलपुर जेल में फांसी
04. बैरी सिंह:-संबलपुर जेल में आजीवन कारावास (मृत्यु)
05. ऐरी सिंह:-सुरंग के भीतर अंग्रेजों द्वारा जिंदा जला दिए गए
06. वीर नारायण सिंह:-10 दिसम्बर 1857 को रायपुर में फांसी
07. गोविन्द सिंह:-नारायण सिंह के पुत्र माधो सिंह के नाती, कुंजल सिंह के दामाद रायपुर में मृत्यु दण्ड
08. पूर्णिमा:-गोविन्द सिंह की पत्नी वीर नारायण सिंह की बहु, कुंजल सिंह की पुत्री कुएं में कूद कर आत्महत्या

स्रोत:
1. देवार सेटलमेंट रिपोर्ट, 1906, पृ. 84
2. शहीद तीर्थ घेंस, अमृतलाल साहू, पृ. 78
3. समवेत शिखर जरनल, अश्विनी केसरवानी, 19-121992
4. कैप्टन इलियट का पत्र मेजर फारस्टर को दिनांक 24-07-1860
5. साहू, मिश्रा, साहू हिस्ट्री ऑफ ओडिशा, प्रथम संस्करण, 1980 पृ. 402
6. अनिरुध्द दाश, वीर सुरेंद्र साय, पृ. 140
7. डॉ. जगदीश मिश्रा, हिस्ट्री ऑफ बरगढ़ 2018, पृ. 59
8. डॉ. जगदीश मिश्रा, विविध बरगढ़ 2024, पृ. 39
9. महेश प्रसाद दाश, स्पेशल बुलेटिन ऑन ओडिशा स्टेट एचिव, भुबनेश्वर 1986-87
10. कथा ओ कथा हेमचंद्र आचार्य, संबदा, 11-012004 पृ. 5
11. अशोक पुजारी से साक्षात्कार चुन्नीलाल साहू व्दारा
12. अमर शहीद सुरेंद्र साय, छत्तीसगढ़ गौरव गाथा, हरि ठाकुर, पृ. 358
13. अमर शहीद वीर नारायण सिंह, छत्तीसगढ़ गौरव गाथा, हरि ठाकुर, पृ. 354

(चुन्नीलाल साहू)
पूर्व सांसद
लोकसभा क्षेत्र 09 महासमुन्द

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One thought on “छत्तीसगढ़ की प्रथम कालापानी की सजा-हटे सिंह को : सुरेन्द्र साय का उलगुलान

  • December 10, 2024 at 14:07
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    शत शत नमन🙏🙏🙏

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