अंग्रेजियत के विरुद्ध संघर्ष और भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पण: माधवहरि अणे
माधवहरि अणे भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे। वे कहते थे यदि अंग्रेजों से मुक्ति चाहते हो तो पूरी अंग्रेजियत से मुक्ति होना चाहिये। अंग्रेजों के साथ उनकी अंग्रेजी भाषा भूषा शैली सब से मुक्ति होना चाहिए। वे भारतीय संस्कृति और संस्कृत के लिये एक समर्पित जीवन जिये।
श्री माधव श्रीहरि अणे का जन्म 29 अगस्त, 1880 को महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में वणी नामक स्थान में हुआ था। उनकी आरंभिक शिक्षा यवतमाल और पुणे में हुई और वेउच्च शिक्षा के लिये कोलकाता चले गये। उन्होंने ‘कोलकाता विश्वविद्यालय’ से उच्च शिक्षा प्राप्त की। उच्च शिक्षा के साथ ही वे उन्होंने अध्यापन कार्य भी किया।
1904 से 1907 के बीच अध्यापन का कार्य के साथ उन्होने वकालत की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। वकालत पास करके यवतमाल लौट आये और वकालत करने लगे। अपनी शिक्षा और वकालत करने के साथ उनकी संस्कृति और समाज सेवा के कार्य साथ साथ चलते रहे। इसका कारण था कि उनके पिता संस्कृत और मराठी भाषा के विद्वान् थे। इस नाते माधवहरि जी को संस्कृत और संस्कृति के प्रति समर्पण के संस्कार अपने परिवार में बचपन से ही मिले थे।
आगे चलकर सार्वजनिक जीवन में वे लोकमान्य तिलक जी से प्रभावित थे। छात्र जीवन जहाँ सामाजिक कार्यों में सक्रिय वहीं अब वकालत के साथ स्वाधीनता संघर्ष से जुड़ गये। इसके लिये उन्होंने कांग्रेस’ की सदस्यता ली और काँग्रेस के आव्हान पर विभिन्न आदोलनों में हिस्सा लिया और जेल भी गये ।
अणे पर लोकमान्य तिलक जी का प्रभाव उनके समाचारपत्र ‘मराठा’ और ‘केसरी’ के कारण पड़ा। वे इन पत्रों के नियमित पाठक थे। 1914 में जब तिलक जी जेल से छूटकर आये तो अणे जी उनसे मिलने वालों में शामिल थे। इसी भेंट के बाद उनके तिलक जी से संबंध बने और वे तिलक जी के निकट आ गये।
तिलक जी ने उन्हे काँग्रेस में आगे बढ़ाया। अणे जी यवतमाल में कांग्रेस के जिला अध्यक्ष बनाये गये। जब ‘होमरूल लीग’ की स्थापना हुई तो अणे जी उसके उपाध्यक्ष बने। 1921 से 1930 तक उन्होंने विदर्भ प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्षता की। वे कांग्रेस’ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य भी रहे। यद्यपि 1921 में असहयोग आंदोलन के खिलाफत आंदोलन साथ-साथ चलाने के वे पक्ष में नहीं थे। इस विषय पर उनके काँग्रेस में मतभेद भी हुये पर उन्होंने कांग्रेस न छोड़ी।
तिलक जी के निधन के बाद उनका संपर्क डा मुंजे और सावरकर से भी बना। सावरकरजी ने उन्हे हिन्दु महासभा में आमंत्रित भी किया पर वे काँग्रेस छोड़कर न गये। उनका कहना था कि जाति धर्म व्यक्ति का निजीत्व है वह राजनीति से दूर हो।
बाद में ‘स्वराज्य पार्टी’ की ओर से वे केन्द्रीय असेम्बली के सदस्य चुने गए और वहाँ अपने दल के मंत्री बनाए गये। लेकिन समय के साथ उनके काँग्रेस में मतभेद बढ़ते गये और उन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया और ‘कांग्रेस नेशनलिस्ट पार्टी’ नामक एक नया दल गठित कर लिया।
1941 में वाइसराय ने अणे को अपनी कार्यकारिणी का सदस्य मनोनीत कर लिया। परन्तु वे भारत छोड़ो आंदोलन के समर्थक थे और 1943 में जब गांधी जी ने आगा ख़ाँ महल में अनशन आरम्भ किया तो अणे जी ने उनके समर्थन में वाइसराय की कार्यकारिणी से त्यागपत्र दे दिया। स्वतंत्रता के बाद वे विहार के राज्यपाल भी रहे। समाज में उनके प्रति श्रद्धा सदैव रही। लोग उन्हें ‘बापूजी अणे’ या ‘लोकनायक अणे’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये ।
स्वतंत्रता के बाद वे संविधान सभा के सदस्य चुने गए। फिर उन्हे विहार का राज्यपाल बनाया गया। वे इस पद पर 1952 तक रहे। 1959 से 1967 तक लोक सभा के सदस्य चुने गये ।
अणे जी अनेक सांस्कृतिक और शैक्षणिक संस्थाओं से जुड़े रहे। वे पूना के ‘वैदिक शोधक मंडल’ के अध्यक्ष भी रहे। माधवहरि अणे जी भागवत के अध्याय का पाठ और संध्या वंदन उनकी दैनिक दिनचर्या का अंग था। उन्होंने लोकमान्य तिलक जी के जीवन पर संस्कृत में बारह हजार श्लोकों का महा काव्य लिखा। उन्हे उनकी दीर्घकालीन सेवा के सम्मान स्वरूप ‘पद्म विभूषण’ की मानद पदवी से सम्मानित किया था। समाज राष्ट्र और संस्कृति की सेवा करते हुये उन्होंने 26 जनवरी 1968 को इस संसार से विदा ली। समाज राष्ट्र और संस्कृति की सेवा के उनके यशस्वी कार्य से पूरा क्षेत्र आज भी ऋणी है।