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प्रकृति और पर्यावरण के संतुलन का संदेश देता मार्गशीर्ष

आचार्य ललित मुनि

भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में कहा है “मासानां मार्गशीर्षोऽहम्”, अर्थात् “मैं महीनों में मार्गशीर्ष हूं।” यह वचन केवल समय के उल्लेख मात्र नहीं हैं, बल्कि भारतीय जीवन-दर्शन का वह बोध है जो प्रकृति, पर्यावरण और मनुष्य के संतुलन को दर्शाता है। जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे महीनों में मार्गशीर्ष हैं, तो वे वास्तव में यह संकेत देते हैं कि यह महीना सृष्टि के उस अवस्था का प्रतीक है, जिसमें धरती, जल, वायु, और मानव का मन सब कुछ संतुलन में होता है।

भारतीय पंचांग के अनुसार मार्गशीर्ष मास सामान्यतः नवंबर के अंत से दिसंबर के आरंभ तक आता है। यह काल शरद ऋतु के पश्चात हेमंत ऋतु का प्रारंभिक समय होता है। वर्षा की नमी अब भूमि में समा चुकी होती है, खेतों में हरियाली लहलहाने लगती है, और आकाश निर्मल हो जाता है। सूर्य की किरणें कोमल होती हैं, हवा में शीतलता रहती है, और जीवन एक स्थिर लय में प्रवाहित होता है। इसीलिए श्रीकृष्ण ने इसे महीनों में श्रेष्ठ बताया, क्योंकि यह जीवन की स्थिरता, साधना और प्रकृति के सामंजस्य का काल है।

भारतीय ऋषियों ने समय को कभी निर्जीव नहीं माना। उनके लिए हर ऋतु, हर मास एक जीवंत सत्ता थी, जो सृष्टि के संतुलन में भूमिका निभाती थी। ऋग्वेद में कहा गया है “ऋतस्य पन्था न वि मुनचन्ति धीराः”, अर्थात् “बुद्धिमान व्यक्ति प्रकृति के ऋतुचक्र से विचलित नहीं होते, बल्कि उसी के अनुसार जीवन जीते हैं।” यही संदेश मार्गशीर्ष मास में निहित है, प्रकृति के साथ सामंजस्य ही जीवन का धर्म है।

इस मास में पृथ्वी, जल और वायु का अद्भुत संतुलन दिखाई देता है। वर्षा ऋतु के बाद भूमि की नमी स्थिर हो जाती है, जिससे बीज अंकुरित होते हैं और पौधों की जड़ें गहराई तक जाती हैं। जल स्रोत भरे रहते हैं, लेकिन अधिकता नहीं होती, जिससे नदियाँ संतुलित प्रवाह में रहती हैं। वायु शुद्ध और ठंडी होती है, जो मानव और प्राणी दोनों के स्वास्थ्य के लिए अनुकूल होती है। यह समय प्रकृति की सर्वाधिक संतुलित अवस्था है।

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श्रीमद्भागवत में उल्लेख मिलता है “हेमन्ते च मार्गशीर्षादि मासाः स्युः प्रियं हरेः।” अर्थात् “हेमंत ऋतु का प्रारंभ मार्गशीर्ष मास से होता है, जो भगवान को प्रिय है।” यह प्रियता केवल धार्मिक नहीं है, बल्कि इस समय प्रकृति अपनी सर्वश्रेष्ठ अवस्था में होती है, जिससे जीवन की लय, ऊर्जा और संतुलन सहज रूप में प्रकट होते हैं।

भारतीय लोकजीवन में यह महीना कृषि, पर्यावरण और भक्ति का अद्भुत संगम है। धान की कटाई पूरी हो चुकी होती है, और गेहूं, चना, मसूर जैसी रबी फसलों की बुवाई शुरू होती है। धरती की नमी इस प्रक्रिया को सहयोग देती है। यह महीना भूमि और मनुष्य के बीच सहयोग का प्रतीक है। किसान इस समय गोबर, राख और जैविक खाद का उपयोग करते हैं, जिससे मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है। इस प्राकृतिक चक्र में न तो कोई अपशिष्ट है, न कोई प्रदूषण; सब कुछ पुनर्चक्रण का हिस्सा है। यही सच्चा पर्यावरण संतुलन है।

ग्रामीण लोकगीतों में इस काल को आनंद और समृद्धि का समय कहा गया है “मारगशीष के दिन सुख के, खेत में हरियाली छाई।” यह हरियाली केवल खेतों में नहीं, बल्कि मनुष्य के भीतर भी नई ऊर्जा और आशा का संचार करती है।

अथर्ववेद में मार्गशीर्ष को “पावन मास” कहा गया है, जब धरती, वायु और जल अपने सबसे संतुलित रूप में रहते हैं। मनुस्मृति में इसे “आराधना काल” बताया गया है, जिसमें मनुष्य को संयम, दान और तपस्या के माध्यम से अपने भीतर और बाहर के संतुलन को साधना चाहिए। नारद पुराण में वर्णन है—
“मार्गशीर्षे तु यो भक्त्या ध्यायेत् पुरुषोत्तमम्। स याति परमं स्थानं, न पुनर्जन्ममृच्छति॥”  अर्थात्, जो मार्गशीर्ष मास में भगवान विष्णु का भक्तिपूर्वक ध्यान करता है, वह परम गति को प्राप्त करता है।  यह ध्यान केवल पूजा का नहीं, बल्कि प्रकृति और आत्मा के बीच सामंजस्य का ध्यान है।

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इस मास के पूर्व मास में कई लोक-पर्व मनाए जाते हैं, जिनका सीधा संबंध प्रकृति संरक्षण और जैवविविधता से है। तुलसी विवाह वनस्पति जगत के प्रति श्रद्धा का प्रतीक है। गोवर्धन पूजा पृथ्वी, पर्वत, पशु और जल के संरक्षण का उत्सव है। अन्नकूट महोत्सव में लोग नई फसल का प्रसाद बनाकर बांटते हैं, जो अन्न और धरती के प्रति कृतज्ञता का भाव है। ये सभी परंपराएं मनुष्य को यह सिखाती हैं कि प्रकृति से लेना ही नहीं, उसे लौटाना भी उतना ही आवश्यक है।

गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं—“यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।” अर्थात्, “प्रकृति और ईश्वर के लिए किया गया कर्म ही मनुष्य को मुक्त करता है, अन्यथा वह बंधन बन जाता है।” मार्गशीर्ष में किए जाने वाले सभी कर्म, दान, पूजा, पशुसेवा, भक्ति, इसी भावना से प्रेरित हैं। यह महीना हमें स्वार्थ से परे जाकर कृतज्ञता का जीवन जीना सिखाता है।

वैज्ञानिक दृष्टि से भी मार्गशीर्ष का काल पृथ्वी के लिए सबसे संतुलित समयों में से एक है। इस समय तापमान मध्यम, वायु स्वच्छ, और नमी नियंत्रित होती है। वातावरण में पराग और धूल कणों की मात्रा कम रहती है, जिससे वायु की गुणवत्ता उत्तम होती है। यही कारण है कि इस काल को आरोग्य, साधना और स्वच्छता का काल कहा गया है।

मार्गशीर्ष केवल धार्मिक अनुष्ठानों का समय नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का महीना है। जब किसान फसल काटकर धरती को धन्यवाद देता है, जब गृहिणी अन्नकूट के प्रसाद से परिवार का पोषण करती है, जब साधक शीतल प्रातःकाल में ध्यान करता है, तब हर कोई किसी न किसी रूप में प्रकृति के साथ संवाद कर रहा होता है। यही संवाद पर्यावरण की रक्षा का सबसे प्रभावी उपाय है।

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आज जब पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और संसाधनों के दोहन से जूझ रही है, तब मार्गशीर्ष का यह शाश्वत संदेश पहले से अधिक प्रासंगिक है। यह महीना हमें याद दिलाता है कि मनुष्य का विकास प्रकृति से अलग नहीं, उसी के साथ संभव है। संयम, आभार और सह-अस्तित्व ही पर्यावरण की रक्षा के मूल तत्व हैं। प्रकृति की लय के साथ जुड़ना ही सच्चा धर्म है।

श्रीकृष्ण का वचन “मासानां मार्गशीर्षोऽहम्”—केवल आस्था नहीं, बल्कि एक पर्यावरणीय दर्शन है। जब हम इस भाव को अपने जीवन में अपनाते हैं, तब हमारे भीतर संतुलन, करुणा और कृतज्ञता स्वतः विकसित होती है। यही संतुलन आधुनिक सभ्यता के लिए सबसे बड़ा पाठ है।

मार्गशीर्ष मास हमें यह सिखाता है कि जीवन में स्थायित्व, संयम और संतुलन ही सौंदर्य हैं। प्रकृति के साथ सामंजस्य ही सच्चा सुख है। अगर हम इस काल के भाव को समझें और जीवन में उतारें, तो यह न केवल हमारे शरीर और मन के लिए, बल्कि समूचे पर्यावरण के लिए भी कल्याणकारी सिद्ध होगा।

अंततः, यही श्रीकृष्ण का संदेश है “मासानां मार्गशीर्षोऽहम्” अर्थात् “संतुलन, समरसता और पवित्रता ही मेरा स्वरूप है।” जब हम इस भाव में जीते हैं, तब हमारे भीतर भी वही कृष्णत्व जागृत होता है जो समस्त सृष्टि में विद्यमान है। मार्गशीर्ष मास का यही शाश्वत संदेश है प्रकृति का आदर करो, जीवन में संतुलन लाओ, और अपने भीतर उस दिव्यता को पहचानो जो हर श्वास में बह रही है।