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एक जीवन जो संघर्षों की आग में तपकर नारी उत्थान की प्रेरणा बना : लक्ष्मीबाई केलकर

रेखा पाण्डेय (लिपि)

भारतीय इतिहास में कुछ नाम ऐसे हैं जिन्हें युगों युगों तक याद किया जाएगा, उनके विचारों के प्रकाश में संसार मार्ग प्रशस्त करेगा। लक्ष्मीबाई केलकर उन्हीं  प्रकाशवान नामों में से एक हैं। साधारण परिवार में जन्म लेकर असाधारण संघर्षों से गुजरते हुए उन्होंने न केवल अपने भीतर की शक्ति को पहचाना, बल्कि हजारों महिलाओं में स्वाभिमान और जागृति की लहर जगाई। उन्हें लोग प्यार से मौसी जी कहते थे। इस संबोधन में सम्मान का भाव भी था और आत्मीयता का स्पर्श भी, क्योंकि वे उन दुर्लभ व्यक्तित्वों में थीं जो मार्गदर्शन भी देती हैं और मन को सहलाते हुए प्रेरणा भी।

6 जुलाई 1905 को नागपुर के एक साधारण, लेकिन वैचारिक रूप से समृद्ध परिवार में जन्मी कमल दाते बचपन से ही ऐसे वातावरण में पलीं, जहां राष्ट्रप्रेम, निर्भीकता और सामाजिक चेतना घर की हवा में घुली रहती थी। पिता भास्कर राव दाते सरकारी कर्मचारी थे, पर उनके भीतर तिलकवादी विचारों की गहराई थी। माता यशोदाबाई महिलाओं को पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरित करतीं, गुप्त रूप से साहित्य बांटतीं और ब्रिटिश शासन के दमनकारी माहौल में भी निर्भीक चर्चाएं करतीं। घर में किताबें छिपाकर पढ़ने वाली यह संस्कृति कमल के मन में सजगता और जिज्ञासा के दो बीज बोती रही, एक राष्ट्र के प्रति और दूसरा स्वयं की पहचान के प्रति।

बचपन में मिशनरी स्कूल में पढ़ना उन्हें कभी सहज नहीं लगा। वे अपनी संस्कृति और घर के संस्कारों से दूर जा रही थीं और शायद पहली बार उन्होंने महसूस किया कि शिक्षा केवल ज्ञान नहीं, पहचान भी देती है। यही बेचैनी उन्हें हिंदू मूलांची शाला तक लाई, जहां संस्कृत और भारतीय इतिहास ने उनके भीतर एक गहरी जड़ जमानी शुरू की। यह वही समय था जब महाराष्ट्र में गौ-रक्षा आंदोलन उभर रहा था और कमल अपने परिवार की अन्य महिलाओं के साथ निर्भय होकर इस आंदोलन में शामिल हुईं। प्लेग महामारी के दिनों में जब लोग भय से एक-दूसरे से दूरी बना रहे थे, तब बालिका कमल रोगियों की सेवा करती हुई नजर आईं। मानो परिस्थितियां उन्हें धीरे-धीरे उस दिशा में ले जा रही थीं जहां आगे चलकर उनका पूरा जीवन समर्पित होना था।

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चौदह बरस की उम्र में विवाह हुआ और कमल अब लक्ष्मीबाई केलकर बन गईं। पति पुरुषोत्तम राव केलकर वर्धा के प्रसिद्ध अधिवक्ता थे। विवाह केवल सामाजिक बंधन नहीं था, वह एक नया मार्ग था। वर्धा पहुंचकर लक्ष्मीबाई ने अपने पति के साथ सामाजिक गतिविधियों में गहरी रुचि ली। घर में चरखा केंद्र खोला, स्वदेशी वस्त्रों का प्रचार किया और अस्पृश्यता के विरुद्ध अभियान चलाया। वे सहज ही समाजसेवा में रमने लगीं और जब गांधीजी से संपर्क हुआ, तो उनके भीतर सेवा का भाव और प्रगाढ़ हो गया। उन्होंने अपनी प्रिय सोने की चेन स्वदेशी आंदोलन के लिए दान कर दी, जो उनके भीतर छिपे त्याग और निष्ठा का सजीव प्रतीक बन गई।

लेकिन नियति ने 1932 में अचानक उनकी जीवन यात्रा को मोड़ दिया। मात्र 27 वर्ष की उम्र में पति के असामयिक निधन ने उन्हें गहरे शोक में डुबो दिया। आठ बच्चों की जिम्मेदारी और एक विधवा ननद की देखभाल के साथ जीवन जैसे एकदम बदल गया। कई स्त्रियां ऐसी परिस्थिति में टूट जातीं, लेकिन लक्ष्मीबाई टूटने के बजाय भीतर से और मजबूत होकर उभरीं। उन्होंने घर का खर्च चलाने के लिए एक हिस्सा किराए पर दिया, अपनी जरूरतों को सीमित किया और बच्चों के भविष्य को प्राथमिकता दी। इस कठिन समय में भी उनकी वैचारिक यात्रा रुकी नहीं। वे कांग्रेस की सभाओं में सक्रिय रहीं, प्रतिरोध आंदोलनों में शामिल हुईं और धीरे-धीरे उनके भीतर यह प्रश्न आकार लेने लगा कि यदि पुरुष राष्ट्रनिर्माण के लिए संगठित हो सकते हैं, तो स्त्रियां क्यों नहीं?

यही विचार उन्हें डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के पास ले गया। हेडगेवार ने लक्ष्मीबाई की ऊर्जा, संयम और नेतृत्व क्षमता को तुरंत पहचान लिया। महिला शक्ति को सुव्यवस्थित दिशा देने का विचार पहले से ही उनके मन में था, और लक्ष्मीबाई उनके लिए वही व्यक्तित्व थीं जो इस संकल्प को साकार कर सकती थीं। 1936 की विजयदशमी को वर्धा में लक्ष्मीबाई ने राष्ट्र सेविका समिति की स्थापना की, एक ऐसा क्षण जिसने भारतीय महिला संगठन इतिहास में एक नए अध्याय की शुरुआत की।

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समिति का स्वरूप अनोखा था। यह आरएसएस की वैचारिक प्रेरणा से जुड़ा, लेकिन पूर्णतः स्वतंत्र और महिलाओं द्वारा संचालित संगठन था। लक्ष्मीबाई का मानना था कि महिलाएं यदि अनुशासन, शौर्य, विचार और संवेदना का संगम बन जाएं, तो राष्ट्र का पुनर्जागरण अवश्यंभावी है। प्रारंभ में कुछ ही महिलाएं जुड़ीं, पर लक्ष्मीबाई की गर्मजोशी, स्पष्ट दृष्टि और अप्रतिम संगठन क्षमता ने इसे जल्द ही एक व्यापक आंदोलन में बदल दिया। वे गांवों और शहरों में चुपचाप, सरल भाषा में संवाद करतीं, महिलाओं को आत्मरक्षा, योग, दंड, प्रार्थना, वक्तृत्व और भारतीय संस्कृति की शिक्षा देतीं।

1947 का विभाजन उनकी क्षमता की सबसे बड़ी परीक्षा बनकर आया। कराची में हिंसा का तांडव मचा हुआ था। हिंदू महिलाओं को अपमानित किया जा रहा था, बच्चे अनाथ हो रहे थे, परिवार बिखर रहे थे। ऐसे समय में लक्ष्मीबाई अकेली नहीं घबराईं। वेणु ताई के साथ उन्होंने कराची में फंसी 1200 से अधिक महिलाओं को संगठित किया, उन्हें बचाया और सुरक्षित भारत लेकर आईं। यह काम केवल सेवा नहीं था, यह साहस, करुणा और नेतृत्व का अद्वितीय उदाहरण था। यह बताता है कि उनके भीतर स्त्री का हृदय भी था और योद्धा का संकल्प भी।

आज राष्ट्र सेविका समिति देश के हजारों कस्बों और गांवों में सक्रिय है। इसकी 5000 से अधिक शाखाएं, 400 सेवा प्रकल्प और 16 देशों तक अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति उस विरासत की गवाही देती है जो लक्ष्मीबाई ने अकेले अपने संकल्प और श्रम से शुरू की थी। संगठन हर उम्र की महिला को संस्कार, शारीरिक क्षमता, नेतृत्व और सेवा के मार्ग पर आगे बढ़ाता है। हर वर्ष आयोजित शिविरों में दस हजार से अधिक महिलाएं प्रशिक्षण प्राप्त करती हैं। यह केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक वैचारिक परिवार है, जिसकी नींव लक्ष्मीबाई के हाथों में रखे गए संस्कारों पर टिकी है।

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लक्ष्मीबाई का दर्शन सरल था और इसीलिए वह गहरे उतरता था। वे कहती थीं कि “महिला परंपरा की वाहक ही नहीं, परिवर्तन की वाहक भी है।” उनके भाषणों में रामचरित्रमानस की मर्यादा भी थी और स्वतंत्रता आंदोलन की ज्वाला भी। वे मानती थीं कि परिवार, समाज और राष्ट्र तीनों की जड़ें स्त्री के भीतर छिपी हैं। यदि वह आत्मसजग, शिक्षित और मजबूत होगी, तो पूरी व्यवस्था मजबूत होगी। उनकी सेविकाएं उन्हें मौसी जी कहकर बुलाती थीं, क्योंकि वे परिवार की बड़ी बहन की तरह स्नेह भी देती थीं और मार्गदर्शन भी। लेकिन उनके व्यक्तित्व का दृढ़ पक्ष भी समान रूप से प्रभावशाली था। संगठन की रणनीति बनाते समय वे अनुशासन को सर्वोपरि रखतीं और निर्णय लेने में स्पष्टता दिखातीं।

27 नवंबर 1978 को उनका निधन हो गया, लेकिन उनका जीवन आज भी हजारों स्त्रियों के भीतर एक दीपक की तरह जल रहा है। उन्होंने सिद्ध किया कि स्त्री चाहे कितनी भी विपरीत परिस्थितियों में क्यों न हो, यदि उसके भीतर संकल्प की लौ जल उठे, तो वह परिवार ही नहीं, समाज और राष्ट्र की दिशा भी बदल सकती है। उनका जीवन केवल इतिहास का हिस्सा नहीं, बल्कि वर्तमान और भविष्य के लिए प्रेरणा है।

लक्ष्मीबाई केलकर की यात्रा एक स्त्री की व्यक्तिगत कहानी भर नहीं है। यह उस संपूर्ण नारीशक्ति का आह्वान है जो भारत की सांस्कृतिक आत्मा का आधार है। यह बताती है कि संघर्ष आते हैं, पर सेवा का प्रकाश कभी धुंधला नहीं होता। वे साबित करती हैं कि जब एक स्त्री आगे बढ़ती है, तो केवल उसका नहीं, बल्कि पूरे समाज का भविष्य उज्ज्वल होता है।

लेखिका साहित्यकार एवं हिन्दी व्याख्याता हैं।