अमर शहीद लालसिंह मांझी की स्मृति में तानवट में कलश यात्रा सहित विशेष कार्यक्रम आज
महासमुन्द, 21 नवम्बर 2025/ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अब तक लगभग अल्पज्ञात रहे आदिवासी शहीद लालसिंह मांझी की स्मृति में कल 22 नवम्बर को अपरान्ह साढ़े तीन बजे उनकी कर्मभूमि ग्राम तानवट (पश्चिम ओड़िशा) में कलश यात्रा के साथ विशेष कार्यक्रम आयोजित किया जाएगा। यह कार्यक्रम जनजातीय गौरव दिवस की श्रृंखला में आयोजित किया जाएगा।
लालसिंह मांझी तानवट क्षेत्र के ज़मींदार थे। अंग्रेजी राज के खिलाफ विद्रोह के कारण वर्ष 1860 में उन्हें कालापानी की सजा मिली थी। उनका गांव तानवट छत्तीसगढ़ राज्य से बहुत नज़दीक, पश्चिम ओड़िशा के जिला मुख्यालय नुआपाड़ा से लगा हुआ है। कार्यक्रम का आयोजन तानवट के सर्व आदिवासी समाज और स्थानीय ग्रामवासियों द्वारा किया जा रहा है। आयोजन में महासमुन्द (छत्तीसगढ़) के पूर्व सांसद चुन्नीलाल साहू और नुआपाड़ा के विधायक जय ढोलकिया सहित देव शबर तथा छत्तीसगढ़ और ओड़िशा के अनेक पंचायत प्रतिनिधि और आदिवासी समाज के लोग भी शामिल होंगे।
उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश हुकूमत के दौरान यह इलाका छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले का हिस्सा था। वर्ष 1936 में अंग्रेज प्रशासन द्वारा किए गए राज्यों के पुनर्गठन में यह क्षेत्र ओड़िशा में चला गया। नुआपाड़ा छत्तीसगढ़ के वर्तमान महासमुन्द जिले का सीमावर्ती जिला है। महासमुन्द लोकसभा क्षेत्र के पूर्व सांसद चुन्नीलाल साहू ने आज बताया कि ओड़िशा के तानवट क्षेत्र में लालसिंह मांझी ने वर्ष 1860 में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जमकर वीरतापूर्ण संघर्ष किया। उन्हें कालापानी की सजा हुई थी। छत्तीसगढ़ उन दिनों कोसल और दक्षिण कोसल के नाम से भी जाना जाता था, जहाँ ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम की गतिविधियाँ तेज हो गई थीं।
पूर्व सांसद श्री साहू ने हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘कोसल के क्रांतिवीर’ में आज़ादी की लड़ाई में इस क्षेत्र के महान क्रांतिकारियों के साहसिक संघर्षों का उल्लेख किया है, जिनमें तानवट के अमर शहीद लालसिंह मांझी और सोनाखान (छत्तीसगढ़) के अमर शहीद वीर नारायण सिंह की शौर्य गाथा भी शामिल है।
श्री साहू ने बताया कि अंग्रेजों ने 6 और 8 नवंबर 1860 को तानवट में लगातार दो बार लालसिंह मांझी के घर पर हमला किया, लेकिन हर बार उन्हें करारी हार मिली। अंततः उन्होंने दबाव डालकर खरियार के राजा कृष्णचंद्र देव से लालसिंह का समर्पण करवाया, और कालेपानी की सजा से लौटकर 22 नवंबर 1860 को वे अपने राजा की आज्ञा का पालन करते हुए उनके दरबार में पहुँचे, जहाँ राजा ने उन्हें अंग्रेजों के हवाले कर दिया। इसी दिन को लालसिंह मांझी के त्याग और बलिदान का दिन भी माना जाता है।
पति लालसिंह मांझी की गिरफ्तारी का समाचार मिलते ही उनकी पत्नी लोईसिंघिन दाई ने कानाभैरा देव के समक्ष उपवास शुरू कर दिया। यह विरोध का एक शांत लेकिन प्रचंड स्वर था। नारी शक्ति का यह अद्वितीय उदाहरण आज भी स्थानीय जनजातीय समाज में श्रद्धा के साथ याद किया जाता है। अंग्रेज प्रशासन के अन्याय के खिलाफ यह प्रतिरोध इतना प्रचंड हुआ कि उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। तानवट में उनकी समाधि आज भी उनके इस आत्मबलिदान की साक्षी है। हाल ही में पूर्व सांसद श्री साहू ने तानवट जाकर उनकी समाधि पर श्रद्धांजलि अर्पित की थी। एक स्थानीय ग्रामीण बुजुर्ग भी उनके साथ थे।
