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लक्ष्मीबाई केलकर : राष्ट्र निर्माण में नारीशक्ति जागरण की अग्रदूत

भारतीय स्वाधीनता संघर्ष की सफलता में उस भावना की भूमिका महत्वपूर्ण है, जिसने समाज में स्वत्व का बोध कराया। यदि हम केवल आधुनिक संघर्ष का ही स्मरण करें, तो पाएंगे कि आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार तक असंख्य ऐसी हुतात्माएं हुई हैं, जिन्होंने दोहरा संघर्ष किया — एक ओर भारत की स्वाधीनता के लिए सेनानी तैयार किए और दूसरी ओर समाज में स्वत्व और सांस्कृतिक जागरण का अभियान चलाया।

लक्ष्मीबाई केलकर ऐसी ही एक महाविभूति थीं, जिनका पूरा जीवन भारत राष्ट्र, समाज और सांस्कृतिक जागरण के लिए समर्पित रहा। उनका जन्म 6 जुलाई 1905 को नागपुर में हुआ था। उनके पिता दातेजी, लोकमान्य तिलक के अनुयायी थे। इस नाते परिवार में राष्ट्र और सांस्कृतिक जागरण का वातावरण था। लक्ष्मीबाई इसी के बीच बड़ी हुईं। उनके बचपन का नाम कमल दाते था, लेकिन विवाह के बाद वे लक्ष्मीबाई केलकर बनीं और वर्धा आ गईं।

उनका विवाह मात्र 14 वर्ष की आयु में विदर्भ के सुप्रसिद्ध अधिवक्ता पुरुषोत्तम राव केलकर से हुआ था। पुरुषोत्तमजी विधुर थे, यह उनका दूसरा विवाह था। दोनों की आयु में अंतर था, किंतु लक्ष्मीबाई मानसिक और बौद्धिक रूप से परिपक्व हो रही थीं। विवाह के बाद उन्होंने अपनी शिक्षा भी जारी रखी और पति के साथ समाजसेवा के कार्यों में भी सहभागी बनीं।

यह वह कालखंड था, जब स्वाधीनता के लिए अहिंसक आंदोलन पूरे देश में प्रभावी हो रहा था। यह संयोग ही था कि लक्ष्मीबाई के मायके (दाते परिवार) और ससुराल (केलकर परिवार) दोनों ही स्वतंत्रता गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर भाग ले रहे थे। पूरा विदर्भ मानो इन अभियानों का हिस्सा बन गया था। यही कारण था कि 1923 के झंडा सत्याग्रह का सर्वाधिक प्रभाव पुणे से लेकर विदर्भ तक रहा। आंदोलन की इसी व्यापकता के कारण आगे चलकर गांधीजी ने नागपुर के समीप वर्धा को अपना एक प्रमुख केंद्र बनाया।

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अधिवक्ता पुरुषोत्तम राव केलकर अपनी पत्नी लक्ष्मीबाई के साथ इन सभी गतिविधियों में हिस्सा लेते। गांधीजी और आंदोलनों का कितना प्रभाव इस परिवार पर था, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि लक्ष्मीबाई ने अपने घर में एक चरखा केंद्र स्थापित कर लिया था।

वे सामाजिक जागरण के लिए तीन कार्य प्रमुखता से करती थीं—

  1. महिलाओं में चरखे के माध्यम से स्वदेशी और आत्मनिर्भरता की प्रेरणा देना।

  2. भारतीय वाङ्मय के उदाहरणों से सामाजिक समरसता का वातावरण बनाना।

  3. रामचरितमानस के प्रवचनों द्वारा सांस्कृतिक एवं सामाजिक मूल्यों की स्थापना के संस्कार देना।

इसके लिए उन्होंने महिला कार्यकर्ताओं की एक टोली बनाई थी, जिसमें विशेष रूप से अनुसूचित समाज के बंधुओं को भी सहयोगी के रूप में जोड़ा गया था। वे मानती थीं कि राष्ट्र की स्वायत्तता ही सर्वोपरि है। यदि राष्ट्र पराधीन है, तो समाज कैसे स्वाधीन बनेगा?

वे अक्सर गांधीजी के वर्धा आश्रम भी जाती थीं। एक बार गांधीजी ने सभा में दान की अपील की, तो लक्ष्मीबाई ने तुरंत अपने गले की सोने की चेन उतारकर गांधीजी को समर्पित कर दी।

उनका वैवाहिक जीवन अधिक लंबा नहीं रहा। 1932 में पति का देहांत हो गया। उस समय वे मात्र 27 वर्ष की थीं। अब उनके ऊपर दोहरा दायित्व आ गया— परिवार और समाज दोनों का। उनकी विधवा ननद भी उनके साथ रहती थीं। लक्ष्मीबाई ने अपनी आवश्यकताएं सीमित कर दीं, परंतु बच्चों की शिक्षा नहीं रोकी, और न ही सामाजिक गतिविधियों में कमी आने दी।

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सामाजिक सक्रियता के चलते वे डॉ. केशव हेडगेवार के संपर्क में आईं। उन्होंने नमक सत्याग्रह में भाग भी लिया, किंतु डॉ. हेडगेवार की सलाह पर जेल नहीं गईं, और बाहर रहकर जागरण एवं स्वतंत्रता आंदोलन के लिए टोली तैयार करने का कार्य करती रहीं। यह कार्य वे पूर्व से ही कर रही थीं, जिसे अब और तीव्र कर दिया। उनके द्वारा तैयार की गई टोलियों ने विदर्भ में चलने वाले हर आंदोलन में भाग लिया।

महिलाएं प्रभात फेरी में कीर्तन करते हुए चरखा और खादी का संदेश देती थीं। डॉ. हेडगेवार की प्रेरणा से 1936 में वर्धा में स्त्रियों के लिए ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की नींव रखी। इसके लिए उन्होंने भारत भर की यात्रा की और संगठन का विस्तार किया। 1945 में राष्ट्र सेविका समिति का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ।

यह वह समय था जब देश में विभाजनवादी शक्तियाँ प्रबल हो रही थीं। विशेषकर बंगाल, पंजाब और सिंध में हिंदू समाज की महिलाओं में भय का वातावरण था। लक्ष्मीबाई ने महिलाओं में आत्मविश्वास जगाने और संगठित रहने का अभियान चलाया। स्वतंत्रता और विभाजन के समय वे सिंध में थीं, जहाँ उन्होंने हिंदू परिवारों को सुरक्षित भारतीय सीमा में पहुँचाने की व्यवस्था की।

महिलाओं में जागरूकता के लिए उन्होंने बाल मंदिर, भजन मंडली, योगाभ्यास केंद्र, छात्रावास आदि प्रकल्प शुरू किए। वे रामचरितमानस पर बहुत सुंदर प्रवचन देती थीं, जिनमें परिवार निर्माण, संतान निर्माण, समाज के उत्थान और सामाजिक एकत्व का संदेश होता था।

वे आजीवन राष्ट्र और समाज की सेवा में लगी रहीं। 27 नवम्बर 1978 को उन्होंने अपना नश्वर शरीर त्यागा, परंतु उनकी आभा आज भी समाज में प्रतिबिंबित हो रही है।

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उनके द्वारा स्थापित राष्ट्र सेविका समिति आज राष्ट्र निर्माण में नारी शक्ति जागरण का प्रतीक बन चुकी है। समिति समाज में संस्कार और पारिवारिक विमर्श का वातावरण बना रही है। आज उनका संकल्प वैश्विक रूप ले रहा है और राष्ट्र निर्माण में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी योगदान दे रहा है।

यह भारत के इतिहास में स्त्रीशक्ति जागरण और सशक्तिकरण की महान घटना है। उन्होंने महिलाओं को अनुशासित सेविका बनाने के लिए प्रशिक्षण अभियान आरंभ किया। यह शाखाएं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सिद्धांतों, विचारों और उद्देश्यों पर आधारित हैं। वर्तमान में समिति की लगभग 5,000 से अधिक शाखाएं भारत में संचालित हो रही हैं।

जैसे संघ का गणवेश है, वैसे ही समिति का भी है। संघ में प्रचारक होते हैं, समिति में प्रचारिकाएं। वर्तमान में 48 प्रचारिकाएं भारतवर्ष में सेवा दे रही हैं। समिति में “विस्तारिका” नामक लघु अवधि की पूर्णकालिक कार्यकर्ता भी होती हैं, जो दो वर्षों तक समिति को समर्पित करती हैं।

लक्ष्मीबाई केलकर बार-बार कहती थीं—
“महिला, परिवार और राष्ट्र के लिए प्रेरक शक्ति है। जब तक शक्ति जागृत नहीं होती, तब तक समाज और राष्ट्र जागृत नहीं होंगे।”

उनका यह मार्गदर्शन और कार्य आज भी अनुकरणीय है। समिति के अनेक सेवा प्रकल्प जैसे छात्रावास, चिकित्सालय, उद्योग, भजन मंडल इत्यादि संचालित हैं। समिति का कार्य केवल भारत में नहीं, बल्कि ब्रिटेन, अमेरिका, मलयेशिया, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में भी सक्रिय है।

लक्ष्मीबाई केलकर का व्यक्तित्व और कृतित्व भारत के प्रत्येक परिवार और विशेषकर नारी शक्ति की क्षमता, मेधा और प्रज्ञा का अद्वितीय उदाहरण है। वे सदैव स्मरणीय और वंदनीय रहेंगी।