\

लाहौर षडयंत्र और बलवंत सिंह का अमर बलिदान

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कितने बलिदान हुये, बलिदानियों को कितनी यातनाएँ दीं गईं, इसका विवरण आज बहुत कठिनाई से मिलता है। ऐसे ही क्राँतिकारी थे बलवंत सिंह जो अंग्रेजी सेना की नौकरी छोड़कर क्राँतिकारी बने । जेल में यातनाएँ सहीं और बलिदान हुये।

भारत और भारत के बाहर विदेशों में क्राँति की ज्योति जलाने वाले क्राँतिकारी बलवंत सिंह का जन्म पंजाब प्रांत के जालंधर जिला अंतर्गत ग्राम खुर्दपुर में 15 सितंबर 1882 को हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा अपने गाँव में ही हुई और जालंधर आकर अंग्रेजी सीखी। पिता जीवा सिंह अंग्रेजी फौज में थे। उन्नीस साल के हुये तो अंग्रेजी फौज में भर्ती हो गये। उन्हें सेना की 36 वीं बटालियन में जमादार पद मिला। इस बटालियन का काम शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने वालों का दमन करना था। उनका परिवार गुरुद्वारे से जुड़ा था।

जालंधर और उसके आसपास आर्यसमाज भी अपने प्रवचनों से स्वत्व एवं सांस्कृतिक भाव जगा रही थी। ऐसे वातावरण में बलवंत सिंह का बचपन बीता था। इसलिए अंग्रेज द्वारा भारतीयों का दमन करने में सहभागी होना उन्हें स्वीकार नहीं था। उनके एक भाई रंगा सिंह क्राँतिकारी गतिविधियों से जुड़ गये थे। अब यह भाई की प्रेरणा हो उनकी या उनकी अपनी अंतरात्मा की आवाज। बलवंत सिंह ने केवल साढ़े चार साल की नौकरी के बाद 1905 में सेना त्यागपत्र दे दिया।

बलवंत सिंह और पंजाब के अन्य क्राँतिकारी 1857 की भाँति सशस्त्र क्रांति करना चाहते थे। इसके लिये धन की आवश्यकता थी। विदेशों में रहने वाले भारतीयों से धन जुटाने के प्रयास में बलवंत सिंह 1906 में कनाडा चले गये और एक लकड़ी मिल में काम करने लगे। पारिवारिक वातावरण के कारण उनकी दिनचर्या अपेक्षाकृत अधिक धार्मिक थी। इससे जल्दी ही विदेश में रह रहे सिक्ख समुदाय में लोकप्रिय हो गये। और उन्हें उत्तरी अमेरिका में पहले गुरुद्वारे में ज्ञानी नियुक्त हुये। बलवंत सिंह ने इस गुरुद्वारे ने सिखों के बीच मजबूत सामाजिक संबंध बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका रही।

इसी बीच कनाडा सरकार ने एक कानून पारित किया। इस कानून के माध्यम से भारतीय प्रवासियों को वोट देने के अधिकार और कुछ नागरिक अधिकारों से वंचित कर दिया। सरकार ने चीनी और जापानी अप्रवासी परिवारों को तो नागरिकता की अनुमति दी लेकिन भारतीय परिवारों को प्रतिबंधित कर दिया। इस कानून के विरुद्ध आँदोलन की योजना बनी। बलवंत सिंह और भाग सिंह के नेतृत्व में सिक्ख परिवारों ने आँदोलन आरंभ किया। हालाँकि कनाडा सरकार ने किसी भारतीय या सिक्ख परिवार को बेदखल नहीं किया लेकिन नये परिवारों की नागरिकता पर रोक लगा दी थी।

सिक्ख समुदाय ने कानूनी लड़ाई के लिए एक समिति का गठन किया और अदालत में याचिका लगाई लेकिन सफलता नहीं मिली। इसी बीच एक ब्रिटिश खुफिया अधिकारी विलियम हॉपकिंसन की हत्या हो गई। जिस इलाके में हत्या हुई वह गुरुद्वारा का प्रभाव क्षेत्र था। आसपास अधिकार सिक्ख परिवार ही रहते थे। बलवंत सिंह गिरफ्तार हुये। लेकिन सुबूतों के अभाव में रिहा कर दिये गये। रिहाई के बाद वे जनवरी 1915 शंघाई पहुँचे। उन्होंने वहाँ रह रहे भारतीयों के बीच क्रांति का प्रचार किया। वहाँ से बैंकाक चले गये। वहाँ भी क्राँति का प्रचार किया अगस्त 1915 को उन्हें गिरफ़्तार करके ब्रिटिश अधिकारियों को सौंप दिया गया। उन्हें बंदी बनाकर सिंगापुर लाया गया।

यहाँ अमानवीय प्रताड़नाएँ दीं गई। क्रूरतापूर्वक प्रताड़ित किया। बाद में कलकत्ता की अलीपुर जेल लाया गया। जुलाई 1916 में उन्हें लाहौर लाया गया और नये सिरे से पूछताछ आरंभ हुई। दरअसल पंजाब में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष की योजना थी जिसकी सूचना किसी विश्वासघाती ने अंग्रेजों को दे दी। गिरफ्तारियाँ हुई। इन गिरफ्तारियों में बलवंत सिंह के भाई रंगा सिंह भी थे। अंग्रेज सरकार को सूचना थी कि इस क्राँति के लिये धन का प्रबंध विदेशों में हुआ और बलवंत सिंह के माध्यम से यह धन भारत आया।

इतिहास के पन्नों में यह असफल क्राँति पहला “लाहौर षडयंत्र” के नाम से जाना जाता है। लाहौर में उनपर सरकार के विरुद्ध षडयंत्र करने के नये सिरे से आरोप लगे जिसमें प्रमुख “लाहौर षडयंत्र” की योजना बनाना था। 5 जनवरी 1917 को उन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 121 और 121 ए के तहत मौत की सज़ा सुनाई गई और 29 मार्च 1917 को लाहौर जेल में फाँसी दे दी गई।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *