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संघ जनसंघ और भाजपा के अद्भुत सृजक और शिल्पी : कुशाभाऊ ठाकरे

संपन्नता अर्जित करना उतना कठिन नहीं जितना गुरुत्व प्राप्त करना है। गुरुत्व के लिये साधना लगती है, तपस्चर्या लगती है। लक्ष्य पूर्ति की सतत साधनारत  तपस्पवियों को ही ऋषि कहा गया। ऋषियों की साधना और तप से भारत विश्व में सम्मानित रहा है। ऋषि जीवन भारतीय भूमि की भीनी सुगन्ध रही है। आज भी भारत के आधुनिक विकास आयाम का आधार यही ऋषि साधना ही है।

कुशाभाऊ ठाकरे भारत की ऐसी ही ऋषि परंपरा के वाहक रहे हैं। जिन्होंने अपनी साधना, तपस्चर्या और सेवा संकल्प से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी को कीर्तिमान स्वरूप प्रदान करने के लिये पूरा जीवन समर्पित कर दिया। आज यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी दोनों अपने जन समर्थन और संगठनात्मक स्वरूप में पूरे विश्व में अग्रणीं हैं तो इसके पीछे कुशाभाऊ ठाकरे जैसे तपोनिष्ठ ऋषि तुल्य विभूतियों की साधना ही रही है ।

कुशाभाऊ ठाकरे जी का जन्म 15 अगस्त 1922 को मध्यप्रदेश के धार नगर में हुआ था। आज उनकी शताब्दी वर्ष की पूर्णता के तिथि हैं। विक्रम संवत की दृष्टि से यह तिथि संवत् 1979 भाद्रपद माह कृष्ण पक्ष की अष्टमी थी। यह अष्टमी भगवान श्रीकृष्ण के अवतार की तिथि है,  इसे जन्माष्टमी कहते है। तपस्या और त्यागमयी जीवन के साथ संस्कृति, समाज और राष्ट्रसेवा का व्रत उन्हें अपने परिवार के संस्कार में मिला था।

उनके पिता डाक्टर सुन्दरराव जी ठाकरे अपने समय के सुप्रसिद्ध चिकित्सक थे जिन्होंने अहमदाबाद मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी की डिग्री ली थी। प्लेग और अन्य महामारी के समय अपने प्राणों बिना परवाह किये पीड़ितों की सेवा करने के लिये सुविख्यात रहे हैं। ठाकरे जी का परिवार कोंकण के पाली गाँव का मूल निवासी था। किन्तु समय के साथ उनके प्रपितामह गुजरात के मेहसाणा में आ बसे थे। जहाँ उनकी गणना एक संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार के रूप में होने लगी थी।

पिता सुन्दरराव जी का जन्म मेहसाणा में हुआ। सुन्दरराव जी अपने छात्र जीवन से ही स्वदेशी आंदोलन से जुड़ गये थे। स्वदेशी अभियान के साथ ही उन्होने अपनी पढ़ाई की थी। वे मेडिकल की पढ़ाई करने अहमदाबाद मेडिकल कॉलेज गये। मेडिकल की पढ़ाई के बीच ही उनका विवाह धार के प्रतिष्ठित दिघे परिवार की बेटी शांता बाई के साथ हो गया था। पढ़ाई पूरी करने लौटे तो परिवार में संपत्ति बँटवारे पर कुछ खींचतान आरंभ हुई। तब पत्नि के परामर्श से अपने हिस्से की संपत्ति भी अपने भाई विनायकराव को देकर खाली हाथ एक जोड़ी कपड़े से धार आकर गये थे।

धार में आधुनिक मेडिकल चिकित्सा पद्धति का कोई डाक्टर भी नहीं था। इसीलिए उन्हें अपना प्रतिष्ठित स्थान बनाने में अधिक कठिनाई  नहीं हुई। महाराजा धार ने भी उनका स्वागत किया। कुशाभाऊ जी का जन्म यहीं धार में हुआ। उनकी आभा बहुत सौम्य और आकर्षक थी। उनका जन्म जन्माष्टमी को हुआ था। इसलिये उनके नाना ने इस नन्हे बालक को कृषा कहकर पुकारा। समय बीता। नामकरण संस्कार का समय आया। तब उनका नाम शशिकांत रखा गया। नाम भले शशिकांत रखा गया हो पर वे प्रचलन में “कृषा” और “कुशा” और कुशाभाऊ के नाम से ही जाने गये। समय के साथ बड़े हुये।

धार के विद्यालय में शिक्षा आरंभ हुई।  तब उनका पूरा नाम “शशिकांत सुन्दरराव ठाकरे” अंकित किया गया। उनका छात्र जीवन इसी नाम का रहा।  औपचारिक रूप में भले उनका नाम शशिकांत ठाकरे रहा। पर घर बाहर और विद्यालय के मित्रों के बीच उनकी पहचान कुशाभाऊ नाम से प्रतिष्ठित होती रही ।

स्वदेशी आंदोलन के प्रबल समर्थक और गाँधी जी के खादी आंदोलन में सहभागी रहे पिता डाक्टर सुन्दर राव का जुड़ाव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हो गया था। इस नाते परिवार में संघ विचार का वातावरण था। कुशाभाऊ जी किशोर वय में संघ और संघ विचार से परिचित हो गये थे। और उनका शाखा जाना आरंभ हो गया। 1939 में कुशाभाऊ जी ने धार से मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। पिता अपने पुत्र को अपनी ही भांति डाक्टर बनाना चाहते थे। इसीलिए आगे की पढ़ाई के लिये ग्वालियर भेज दिया। कुशाभाऊ जी कुशाग्र बुद्धि थे। मैट्रिक परीक्षा उन्होंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी।

इसलिये ग्वालियर में सरलता से प्रवेश भी मिल गया। उन्होने 1941 में इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की और मेडिकल में दाखिला भी ले लिया। किन्तु नियति ने उनके लिये कुछ कार्य निर्धारित किया था। वे संघ विचार में ढल गये थे, शाखा के नियमित स्वयं सेवक थे। उन्होंने 1942 में संघ के शिक्षा वर्ग में प्रशिक्षण लिया और अपना पूरा जीवन राष्ट्र, संस्कृति और संघ को समर्पित कर दिया। उन दिनों संघ के शिक्षा वर्ग को “ओ टी सी” नाम से जाना जाता था। ओटीसी के बाद  ठाकरे जी अपनी पढ़ाई छोड़कर संघ के प्रचारक निकल गये। पढ़ाई छोड़ने  संघ का प्रचारक बनने की अनुमति परिवार से मांगी, जो सहज ही मिल गई। और 1942 से उनका संघ जीवन पूर्ण कालिक प्रचारक के रूप हो गया ।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने उन्हें मालवा और मालवा से लगे राजस्थान के क्षेत्र में संघ के विस्तार का कार्य सौंपा। उन्होंने नीमच को अपना केन्द्र बनाया और इसके चारों ओर धार, झाबुआ, रतलाम मंदसौर राजगढ़  शाजापुर से लेकर चित्तौड़ तक निरंतर प्रवास किये। उज्जैन, धार,  झाबुआ, शाजापुर, रतलाम मंदसौर आदि जिलों का तो संभवतः कोई गाँव ऐसा शेष हो जहाँ ठाकरे जी ने संपर्क न किया हो, उन्होंने निरंतर प्रवास किये।  जहाँ जो साधन मिला साइकल बस बैलगाड़ी जो मिला उसी से यात्रा निरंतर रही।

हनुमान जी ने कभी कहा था “रामकाज कीजै बिना मोहि कहाँ विश्राम” संभवतः यही मंत्र ठाकरे जी का था अंतर केवल एक ठाकरे जी संकल्प था ” संघ कार्य कीजै बिना मोहि कहाँ विश्राम”। सुन्दर लाल पटवा, वीरेन्द्र कुमार सकलेचा और कैलाश जोशी जैसे सुपरिचित व्यक्तित्वों को उनकी युवा आयु में ठाकरे जी ने ही संघ से जोड़ा था। 1947 में सुन्दर लाल पटवा को संघ कार्य के लिये प्रचारक के रूप में ठाकरे जी ने ही तैयार किया था। और जब 1951 में राजनैतिक दल के रूप जनसंघ अस्तित्व में आया तब ठाकरे जी ने ही पटवा जी को मालवा में जनसंघ कार्य विस्तार का दायित्व दिया ।

समय अपनी गति से साथ दौड़ता रहा। समय के साथ संघ और जनसंघ का कार्य भी गति लेता रहा। समय के साथ परिवार की एक शाखा इंदौर आ गयी। इस नाते कुशाभाऊ जी को यहाँ परिवार से संघ कार्य में सहायता मिली। हो सकता है किसी को यह बात सुनने में सच न लगे किन्तु यह सत्य है कि ठाकरे जी ने संघ और जनसंघ के कार्य विस्तार में परिवारजनों का तो सहयोग लिया किंतु स्वयं परिवार की कभी सहायता न की। वे पाँच भाई एक बहन थे। स्वाभाविक है समय के साथ परिवार का और विस्तार हुआ। परिवार की शाखाएँ विभिन्न नगरों मे हैं।  एक शाखा धार में भी। पर सभी सामान्य जीवन ही जी रहे हैं। ठाकरे जी का संगठन के प्रति, अपने कार्य के प्रति कितना समर्पण था इसका अनुमान इस घटना से भी लगाया जा सकता है कि 1953 में जब उनकी माता जी  शाँताबाई मरणासन्न हुईं तब संदेश मिलने के बाद भी वे धार न जा सके। और अंतिम संस्कार में ही गये।

यह ठाकरे जी की साधना का ही प्रभाव था कि मालवा क्षेत्र में संघ और जनसंघ की जड़ें तो गहरी हुईं ही, संघ कार्य विस्तार के लिये प्रचारक भी बड़ी संख्या में इस क्षेत्र से निकले। ठाकरे जी ने अपने कार्य विस्तार  में परिवार का ही सहयोग नहीं लिया अपितु अपने मित्रों को भी संघ और जनसंघ के कार्य विस्तार में जोड़ा।  इसका सबसे बड़ा उदाहरण ग्वालियर के नारायण कृष्ण शेजवलकर हैं। वे ग्वालियर में इंटर की पढ़ाई के साथ ठाकरे जी के मित्र बने और पहले संघ से और फिर जनसंघ से जुड़े ।

मध्यप्रदेश में जनसंघ की स्थापना के साथ उन्होंने पूरे मध्यप्रदेश की यात्राएं कीं।  उन दिनों छत्तीसगढ भी मध्यप्रदेश का एक अंग था। मुरैना से बस्तर तक और झाबुआ से रीवा तक मध्यप्रदेश का ऐसा कोई नगर कस्बा नहीं जहाँ ठाकरे जी ने यात्रा न हो और कार्यकर्ता न खड़े किये हों। वे संघ प्रचारक के रूप में सर्वाधिक समय मालवा में रहे। जनसंघ को और बाद में भारतीय जनता पार्टी को सबसे अधिक सफलता इसी क्षेत्र से मिलती थी ।

वे जनसंघ और बाद में भाजपा के लगभग सभी महत्वपूर्ण पदों पर रहे। संगठन मंत्री, महामंत्री और भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे। लेकिन पद उनके लिये महत्व पूर्ण न था। वे किसी भी पद पर रहे हों उनकी जीवन शैली सदैव एक सी रही। उन्होंने जीवन भर धोती कुर्ता पहना। खादी का कुर्ता उन्हें सदैव प्रिय रहा। वे बिना प्रेस के धोती कुर्ता पहनते थे और अपने हाथ से स्वयं धोते थे। और जब पार्टी के काम विस्तार हुआ तब उनके सहायक की वृद्धि हुई। बड़ी मुश्किल से उन्हे समझाया जा सका और वे तैयार हुये। वे चने मुरमुरे से शाम का अल्पाहार करते थे और मिठाई में इमरती उन्हे पसंद थी। वे बोलते कम थे।

भोपाल में जनसंघ का प्रांतीय कार्यालय पहले चौक बाजार के पास लखेरापुरा में था फिर सोमवारा आया। वे भोपाल में जब भी रहते तो कार्यकर्ताओं से मिलने केलिये अधिक समय देते थे। प्रदेश चारों कौनों पर उन्होंने जिन कार्यकर्ताओं को जोड़ा वे सब प्रभावशाली और संगठन के लिये उपयोगी रहे। उस समय हिन्दु महासभा के अत्यंत प्रभावशाली नेता विदिशा के निरंजन वर्मा जी और भोपाल के भाई उद्धवदास जी मेहता को जनसंघ में लाने वाले ठाकरे जी थे। राजमाता जी के लिये जनसंघ में आने का मार्ग बनाने वाले ठाकरे जी थे। ठाकरे जी सुनते अधिक थे और बोलते कम थे। पता नहीं उनमें वह क्या विशेषता थी कि बातचीत के बाद कार्यकर्त्ता उनसे सदैव प्रसन्नचित्त और संतुष्ट भाव से ही लौटता था।

दूरदराज से कोई कार्यकर्त्ता उनके पास कैसी भी शिकायत लेकर आता पर उनके सामने उसका सारा असंतोष निकल जाता और वह उत्साह के साथ संगठन के काम में जुट जाता। सारी बात सुनकर कार्यकर्ता का एक हाथ मोड़ कर पीठ पर घूँसा मारना मानों उनके आत्मीय स्नेह की वर्षा होती और कार्यकर्त्ता प्रसन्न और सन्तुष्ट होकर लौटकर जाया करते थे। जनसंघ के संगठन मंत्री के रूप में उन्होंने उड़ीसा, राजस्थान, गुजरात महाराष्ट्र आदि अनेक प्रातों में कार्य को विस्तार दिया।

उन्होंने खंडवा लोकसभा क्षेत्र से लोकसभा के लिये दो चुनाव लड़े। पहले उपचुनाव में तो सफलता मिली पर दूसरी बार आमचुनाव में सफलता न मिल सकी। सबने आग्रह किया तो चुनाव लड़ लिया। न जीत की खुशी न हार का गम। वे जैसे पहले थे वैसे ही जीत के बाद भी और हार के बाद भी रहे। उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के पूर्व बीच में कुछ समय ऐसा भी बीता जब लगा ठाकरे जी एकाकी हो रहे हैं।

वे भारतीय जनता पार्टी के दिल्ली कार्यालय के अंग के समीप के परिसर में ही रहा करते थे। पर तब भी उनके व्यवहार में विचार में कोई अंतर न आया था। जो भी मिलने जाता उससे उसके परिवार ही नहीं उसके मित्रों का भी हालचाल पूछते थे। उनकी स्मरण शक्ति भी अद्भुत थी।  वे एक बार नाम पूछते तो सदैव स्मरण रखते थे। मध्यप्रदेश और देश के कितने कार्यकर्ता थे जिन्हे ठाकरे जी नाम लेकर ही पुकारते थे। वे विलक्षण विद्वान थे, कौनसा ऐसा विषय था जिसका वे समुचित समाधान न सुझा देते थे। वे मनोविज्ञान के तो मानों विशेषज्ञ थे। मन के भाव जानकर कार्यकर्त्ता को मार्गदर्शन देते थे।

आपातकाल में मीसा में निरुद्ध रहे। जेल के भीतर सभी कार्यकर्ताओं को ढांढस बँधा कर गीत भजन में लगाना उनकी विशेषता थी। जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के बीच कुल कालखंड जनता पार्टी के रूप में भी बीता। उस काल खंड कुछ अन्य घटक समूहों ने अनावश्यक जनसंघ घटक के लोगों पर दबाना आरंभ किया। तब ठाकरे जी उनकी भी पूरी बातें सुनते और अपने कार्यकर्ताओं को संयम बनाये रखने की सलाह देते। अंततः वह स्थिति अधिक दिन न सकी। इसका आभास ठाकरे जी को था।

आपातकाल के बाद 1977 में जनता पार्टी सत्ता में आई। किंतु 1979 से ही ठाकरे जी ने बिना कुछ कहे जनता पार्टी के भीतर जनसंघ घटक के कार्यकर्ताओं को सामाजिक और जनहित के मुद्दों पर सक्रिय कर दिया था। और अंततः 1980 में भारतीय जनता पार्टी अस्तित्व में आई।  कौन कौन कार्यकर्त्ता मध्यप्रदेश से मुम्बई अधिवेशन में जायेगा इसका समन्वय स्वयं ठाकरे जी किया और मुम्बई में पाँडालों में ठहरे कार्यकर्ताओं की व्यवस्था को स्वयं जाकर देखा था। 1984 के लोकसभा और 1985 के विधानसभा चुनाव में आशातीत सफलता न मिलने के बाद जनहित के मुद्दों पर आंदोलन की रणनीति ठाकरे जी ने तैयार की। विशेषकर किसानों की समस्या पर आंदोलन का निर्णय ठाकरे जी ने लिया था। और 1990 में भारतीय जनता पार्टी ने पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई।

राजनैतिक उतार चढ़ाव कैसे भी रहे हों पर ठाकरे जी जीवन शैली विचार बीथि में कभी अंतर नहीं आया। वे संघ के प्रचारक रहे हों या भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे हों।  सदैव एक सी शैली में जिये। सेवा और संगठन का विस्तार उनका प्रमुख धेय था। उन्होंने कभी प्रशंसा आलोचना अथवा पद पाने, या न पाने की चिंता नहीं की। वे समान गति और समान चिंतन से ही जिये। आज देश में और विशेषकर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी का जो भी स्वरूप है उसके आधार स्तंभ हैं ठाकरे जी। वे मानों प्राण शक्ति हैं संगठन की।  28 दिसंबर 2003 को उनका शरीर पंचतत्व में विलीन हुआ। पर वे आज भी संगठन में जीवन्त हैं सबकी स्मृतियों में हैं। संगठन की प्राण शक्ति में संवाहित हैं और सदैव रहेंगे।

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