अद्भुत साहस, त्याग और राष्ट्र समर्पण की प्रतीक : क्रांतिकारी दुर्गा भाभी
स्वतंत्रता के जिस शुभ्र प्रकाश का आज समस्त भारतवासी आनंद ले रहे हैं, उसके लिए असंख्य बलिदान हुए। यह बलिदान दो प्रकार के थे—एक ओर क्रांतिकारियों के सीधे संघर्ष में उनके प्राणों का, और दूसरी ओर उनके सहयोगियों के जीवन की हर श्वास भी न्यौछावर हुई, तब जाकर भारत को विदेशी सत्ता से मुक्ति मिली।
सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी आंदोलन की वीरांगना दुर्गा भाभी ऐसी ही बलिदानी थीं। उन्होंने प्रत्यक्ष संघर्ष भी किया और क्रांतिकारियों की जीवन रक्षा में भी अद्वितीय भूमिका निभाई। स्वतंत्रता के बाद वे लगभग गुमनामी में रहीं, किंतु उनका संकल्प कभी नहीं डिगा। उन्होंने पीढ़ी निर्माण के लिए विद्यालय आरंभ किया।
जन्म और प्रारंभिक जीवन
दुर्गा भाभी का जन्म 7 अक्टूबर 1907 को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज क्षेत्र के ग्राम शहजादपुर में हुआ था। यह परिवार आर्य समाज से जुड़ा हुआ और अत्यंत समृद्ध था। उनके पिता पंडित बांके बिहारी इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे तथा उनके दादा पंडित शिवशंकर शहजादपुर के जमींदार थे।
उनका जन्म शारदीय नवरात्र के प्रथम दिन हुआ था, इसलिए परिवार ने उनका नाम दुर्गा देवी रखा। बचपन से ही वे ऊर्जावान, कुशाग्र बुद्धि और परिवार की लाड़ली थीं। उनकी हर इच्छा पूरी की जाती थी।
विवाह और पारिवारिक पृष्ठभूमि
उन दिनों बाल विवाह प्रथा प्रचलित थी। वर्ष 1917 में उनका विवाह लाहौर के भगवतीचरण वोहरा के साथ हुआ, तब उनकी आयु मात्र दस वर्ष थी। छोटी आयु के कारण विवाह के दो वर्ष तक वे मायके में ही रहीं।
1918 में गौना हुआ और वे ससुराल लाहौर आ गईं। मायके की लाड़ली बेटी ससुराल में भी सबकी चहेती बहू बनीं। उन पर किसी प्रकार का कोई प्रतिबंध नहीं था।
भगवतीचरण वोहरा का परिवार भी अत्यंत संपन्न और आर्य समाज से जुड़ा हुआ था। उनके पिता शिवचरण वोहरा रेलवे में ऊँचे पद पर कार्यरत थे और अंग्रेज सरकार ने उन्हें “राय साहब” की उपाधि प्रदान की थी।
यद्यपि यह परिवार बाहर से अंग्रेजों का विश्वस्त माना जाता था, परंतु भीतर से भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों और स्वाभिमान से ओत-प्रोत था। समाज सेवियों को यह परिवार आर्थिक सहयोग प्रदान करता था। ऐसे ही वातावरण में पले थे भगवतीचरण वोहरा, जिनकी इच्छा स्वतंत्रता आंदोलन से सीधे जुड़ने की थी।
क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत
भगवतीचरण वोहरा ने क्रांतिकारी संगठन “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन” (HSRA) से जुड़कर कार्य प्रारंभ किया। 1920 में पिता की मृत्यु के पश्चात उन्होंने पूर्ण रूप से क्रांतिकारी गतिविधियों में स्वयं को समर्पित कर दिया।
उन्हें संगठन का प्रचार सचिव बनाया गया। उनकी पत्नी दुर्गा देवी भी सक्रिय रूप से आंदोलन में शामिल हो गईं। उस समय उनकी आयु मुश्किल से पंद्रह वर्ष थी। उन्हें संपर्क और सूचना के आदान-प्रदान का कार्य सौंपा गया। अब वे “दुर्गा भाभी” के नाम से प्रसिद्ध हो गईं।
छोटी आयु के कारण उन पर किसी को संदेह नहीं होता था, जिससे वे अपना कार्य सफलतापूर्वक कर लेती थीं। 1923 में भगवतीचरण वोहरा ने स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की और उसी वर्ष दुर्गा भाभी ने प्रभाकर की डिग्री प्राप्त की।
विवाह के समय दुर्गा भाभी को ससुराल पक्ष से 40,000 रुपये और मायके से 5,000 रुपये प्राप्त हुए थे। इस समस्त धनराशि को उन्होंने और उनके पति ने क्रांतिकारी आंदोलन में लगा दिया। 1917 के समय का यह 45,000 रुपये आज करोड़ों के बराबर मूल्य का होता।
सांडर्स वध और भगत सिंह की सुरक्षा
सांडर्स वध के बाद ब्रिटिश सरकार ने क्रांतिकारियों पर सख्त निगरानी रखी। यह वध लाला लाजपत राय के बलिदान का प्रतिशोध था, जिनकी मृत्यु लाठीचार्ज में हुई थी।
सांडर्स की हत्या के बाद भगत सिंह और राजगुरु को सुरक्षित कलकत्ता पहुँचाने की जिम्मेदारी दुर्गा भाभी ने उठाई। उन्होंने अपना वेष बदला और भगत सिंह की पत्नी के रूप में तथा राजगुरु को नौकर के रूप में दिखाते हुए तीन टिकट कराए।
वे अपने नन्हे बेटे को गोद में लेकर लाहौर से भटिंडा होते हुए कानपुर पहुँचीं और वहाँ से कलकत्ता रवाना हुईं। बार-बार चेकिंग हुई, परंतु किसी को संदेह नहीं हुआ। इस प्रकार उन्होंने दोनों क्रांतिकारियों को सुरक्षित पहुँचा दिया।
यद्यपि ब्रिटिश सरकार को कोई ठोस प्रमाण नहीं मिला, फिर भी उन पर निगरानी रखी जाने लगी।
जतिन दास की शहादत और दुर्गा भाभी
क्रांतिकारी जतिन दास की लाहौर जेल में प्रताड़ना और अनशन से मृत्यु के बाद उनके शव को कलकत्ता पहुँचाने की जिम्मेदारी दुर्गा भाभी को दी गई।
वे शव के साथ रेल यात्रा कर लाहौर से कलकत्ता पहुँचीं। मार्ग में प्रत्येक स्टेशन पर भारी भीड़ ने श्रृद्धांजलि दी। इस घटना के बाद वे ब्रिटिश सरकार की नजरों में आ गईं और उन्हें गिरफ्तार कर तीन वर्ष का कारावास मिला।
भगत सिंह के मुकदमे का व्यय
असेम्बली बम कांड के बाद जब भगत सिंह ने स्वेच्छा से आत्मसमर्पण किया, तो उनके मुकदमे का समस्त व्यय दुर्गा भाभी ने वहन किया।
वकील की फीस और मुकदमे से संबंधित खर्चों के लिए उन्होंने अपने सभी आभूषण बेच दिए। यह उनके त्याग और समर्पण का अनुपम उदाहरण है।
स्वतंत्रता के बाद का जीवन
स्वतंत्रता के बाद जब आंदोलन इतिहास का हिस्सा बन गया, तो दुर्गा भाभी अहिंसक आंदोलन से जुड़ गईं और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया। इस दौरान उन्हें पुनः गिरफ्तार किया गया।
स्वतंत्रता मिलने पर लाहौर भारत से अलग हो गया। दुर्गा भाभी का परिवार गाजियाबाद आ गया। प्रारंभिक वर्षों में न तो सरकार ने और न ही समाज ने उनकी कोई सुध ली।
वे एक सामान्य नागरिक के रूप में जीवनयापन करती रहीं। बाद में वे लखनऊ आईं, जहाँ उन्होंने गरीब बच्चों के लिए एक विद्यालय की स्थापना की। यही विद्यालय आज भी संचालित है।
92 वर्ष की आयु में 15 अक्टूबर 1999 को इस महान क्रांतिकारी ने संसार से विदा ली। वे अपने पीछे त्याग, साहस और राष्ट्रनिष्ठा की ऐसी प्रेरणादायी गाथा छोड़ गईं जो सदियों तक अमर रहेगी।
शत-शत नमन क्रांतिकारी दुर्गा भाभी को।