बचपन में फाँसी चढ़ने वाले भारत के अमर क्रांतिकारी
दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है, जो कभी न कभी परतंत्रता के अंधकार में न डूबा हो। अधिकांश देशों का स्वरूप बदल चुका है, और उनकी अपनी संस्कृति लुप्त हो गई है। लेकिन दासत्व के लंबे अंधकार के बाद भी भारत की संस्कृति आज भी पुष्पित और पल्लवित हो रही है। यह संभव हुआ लाखों बलिदानियों के कारण, जिन्हें सत्ता की कोई चाहत नहीं थी। उनका संघर्ष राष्ट्र, संस्कृति, स्वत्व और स्वाभिमान की रक्षा के लिए था।
ऐसे ही अमर बलिदानी क्रांतिकारी खुदीराम बोस थे, जिन्होंने मात्र सोलह वर्ष की आयु में अपनी पढ़ाई छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और उन्नीस वर्ष पूरे करने से पहले ही फांसी पर चढ़ गए।
खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 को बंगाल के मिदनापुर जिले के बहुबैनी ग्राम में हुआ था। उनके पिता त्रैलोक्यनाथ बोस संस्कृत के विद्वान थे और माता लक्ष्मीप्रिया देवी धार्मिक एवं आध्यात्मिक जीवन में रची-बसी थीं। शिक्षा, संस्कार और स्वाभिमान उन्हें पारिवारिक विरासत में मिला। विद्यालय में अंग्रेज शासकों के प्रति नमन् की प्रार्थना उनके पिता को नागवार गुजरती थी, लेकिन विकल्प न होने के कारण उन्होंने पुत्र को वहीं पढ़ाया और साथ ही घर पर संस्कृत और संस्कारों की शिक्षा दी।
उस समय पूरे भारत में अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति अपमानजनक व्यवहार आम था। 1905 में अंग्रेजों ने बंगाल विभाजन का निर्णय लिया, जिसका उद्देश्य साम्प्रदायिक तुष्टीकरण और मिशनरियों की पकड़ मजबूत करना था। नौवीं कक्षा में पढ़ रहे सोलह वर्षीय खुदीराम ने पढ़ाई छोड़ दी और विरोध आंदोलन में शामिल हो गए। उन्होंने रिवोल्यूशनरी पार्टी की सदस्यता ली। दुबले-पतले होने के कारण उनकी उम्र कम लगती थी, जिससे उन्हें पर्चे बांटने, संदेश और हथियार पहुंचाने जैसे कार्य सौंपे गए।
उन्होंने वंदेमातरम् के पोस्टर बांटने और चिपकाने से शुरुआत की। एक बार पकड़े जाने पर पुलिस ने उनकी उम्र देखकर केवल चेतावनी देकर छोड़ दिया। लेकिन यह डराने की कोशिश नाकाम रही। उन्होंने आगे चलकर बम बनाना और फेंकना सीखा। 28 फरवरी 1906 को उन्होंने पहली बार वायसराय की ट्रेन पर बम फेंका, हालांकि निशाना चूक गया। गिरफ्तारी के बाद भी वे भाग निकले और कुछ समय अज्ञातवास में रहे।
बाद में वे क्रांतिकारी संगठन युगान्तर से जुड़ गए। इस दौरान अंग्रेज मजिस्ट्रेट किंग्ज़फोर्ड अपने कठोर दमन और यातनाओं के लिए कुख्यात था। युगान्तर पार्टी ने उसे रास्ते से हटाने का निश्चय किया। खबर मिलते ही सरकार ने उसका तबादला मिदनापुर से मुजफ्फरपुर कर दिया, लेकिन क्रांतिकारियों ने वहीं उसे निशाना बनाने का निर्णय लिया।
20 अप्रैल 1908 को योजना के अनुसार खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने किंग्ज़फोर्ड की बग्गी को निशाना बनाया। दुर्भाग्यवश उस बग्गी में दो ब्रिटिश महिलाएं — मिसेज केनेडी और उनकी बेटी — सवार थीं। बम फटने से बग्गी के परखच्चे उड़ गए और इसकी आवाज तीन मील दूर तक सुनाई दी।
दोनों क्रांतिकारी भागते हुए वैनी स्टेशन पहुंचे, लेकिन नाकेबंदी में फंस गए। प्रफुल्ल चाकी ने गिरफ्तारी से बचने के लिए स्वयं को गोली मार ली, जबकि खुदीराम बोस गिरफ्तार हो गए। जेल में उन्हें कठोर यातनाएं दी गईं, पर उन्होंने अपने साथियों के नाम नहीं बताए।
अंततः 11 अगस्त 1908 को मात्र 18 वर्ष 8 महीने की आयु में मुजफ्फरपुर जेल में उन्हें फांसी दे दी गई। वे श्रीमद्भगवद्गीता का नियमित पाठ करते थे और फांसी के समय भी गीता अपने साथ लिए हुए थे।