शिव के शिखरों में जीवन और मृत्यु का संगम: उत्तराखंड त्रासदी की स्मृति में
16 जून 2013 — एक ऐसा कालखंड जिसे स्मरण करते ही हिमालय की शांत घाटियाँ सिसकियाँ भरती प्रतीत होती हैं, और पवित्र नदियाँ अपने प्रवाह में एक गहरी वेदना लेकर बहती हैं। उत्तराखंड की उस त्रासदी ने हजारों श्रद्धालुओं, यात्रियों, ग्रामीणों और जीवन से भरे घाटियों को चिर शांति में लीन कर दिया। यह केवल एक प्राकृतिक आपदा नहीं थी, यह उस चेतावनी का रूप थी जिसे प्रकृति ने हमें चेतने के लिए भेजा था।
मैं स्वयं उस समय कैलाश मानसरोवर यात्रा पर था। यह यात्रा उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल से होकर निकलती है—अल्मोड़ा, धारचूला, नारायण स्वामी आश्रम से होते हुए भारत-नेपाल की सीमा रेखा काली नदी के किनारे-किनारे चलते हुए यात्री लिपुलेख दर्रे को पार कर तिब्बत (अब चीन-शासित क्षेत्र) की ओर बढ़ते हैं, जहाँ श्रद्धालु बाबा भोलेनाथ के पावन धाम कैलाश पर्वत के दिव्य दर्शन के साथ परिक्रमा लगाते हैं फिर ब्रह्मा जी के मानस से निर्मित पवित्र मानसरोवर झील में स्नान कर हवन-पूजन कर अपने आप को धन्य अनुभव करते है।
किंतु उसी समय 15 जून की रात्रि से ही गढ़वाल मंडल की केदार घाटी में भीषण त्रासदी प्रकट हो रही थी। मूसलधार बारिश, बादल फटने और भूस्खलनों ने वहाँ का पूरा जीवन अस्त-व्यस्त कर दिया था। हजारों श्रद्धालु असमय काल के ग्रास बने। असंख्य परिवार उजड़ गए। और उस तीर्थभूमि ने रक्त और आँसू का ऐसा संगम देखा, जिसे कोई शब्द पूर्णतः व्यक्त नहीं कर सकता। हमारा जत्था हिमालय की ऊँचाइयों में था। मौसम की मार से रास्ते बंद हो गए थे। संपर्क कट चुका था, और आवश्यक संसाधनों की आपूर्ति भी बाधित हो चुकी थी। बाद में वायुसेना के वीरों ने हमें हेलीकॉप्टरों से सुरक्षित निकाला। लेकिन उस संकट की घड़ी में, पूज्य गुरुजी की एक सीख गूंजती रही — “पहाड़ पर पहाड़ जैसे रहना, जैसा वह रखे वैसा रहना।” इसने हमें संयम, श्रद्धा और संकल्प के साथ परिस्थिति को स्वीकारने और आनंद के साथ जीने की शक्ति दी। कैलाश यात्रा अपने आप में केवल एक तीर्थयात्रा नहीं है — यह आत्मा की यात्रा है। यह रोमांच से अधिक आत्मसमर्पण की यात्रा है। जहाँ सांसें थम जाती हैं, वहीं ध्यान जागता है। हिमालय की गोद में शिव स्वयं उपस्थित हैं — वटवृक्ष नहीं, ऊँचे पर्वत ही उनके आसन हैं। यहाँ मनुष्य को अपने सबसे सूक्ष्म रूप में अपने आप से साक्षात्कार होता है।
उत्तराखंड की संस्कृति हिमालय जितनी ही ऊँची और नदियों जितनी ही गहराई लिए होती है। यहाँ के गाँवों में लोकगीतों में शिव बसते हैं, और यहाँ की स्त्रियाँ दुर्गा की तरह श्रमशील और शक्तिशाली होती हैं। यहाँ के बच्चे भी गाय-भेड़ें चराते हुए नंदा देवी की कहानी सुनाते हैं। यह केवल भौगोलिक भूमि नहीं, यह ‘देवभूमि’ है — जहाँ प्रकृति और परमात्मा दोनों का साक्षात्कार होता है। 2013 की आपदा ने हमें यह सिखाया कि प्रकृति के साथ संतुलन ही उत्तर है। यदि हमने अपने पहाड़ों को, नदियों को, और पर्वतीय जीवनशैली को नहीं समझा, तो यह सौंदर्य विनाश का कारण बन सकता है।
आज हम उन सभी श्रद्धालुओं को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं जो केदार घाटी की त्रासदी में कालवश हो गए। वे तीर्थ यात्री नहीं, हमारे सनातन विश्वास के वीर सैनिक थे, जिन्होंने परम पथ की ओर यात्रा करते हुए देह का त्याग किया। और साथ ही, यह भी प्रण लें कि हिमालय की गोद में बसे इस प्राकृतिक धरोहर को सुरक्षित रखें। ‘विकास’ के नाम पर विनाश की राह न चुनें। यात्राओं को श्रद्धा और संयम से करें। पर्यावरण के नियमों और स्थानीय संस्कृति के साथ समन्वय बनाकर आगे बढ़ें। कैलाश और केदार दोनों एक ही चेतना के दो रूप हैं।एक मौन तपस्या है, दूसरा प्रकट करुणा। और दोनों हमें यही सिखाते हैं — जो गया है, वह भी शिव में लीन हुआ है। और जो बचा है, वह भी शिव की इच्छा से ही बचा है।
ॐ नमः शिवाय।
ॐ शांति! शांति!! शांति!!!
— स्मृति लेख: कैलाशी पीयूष शर्मा