\

फसल उत्सव करमा नृत्य और जैव विविधता का महत्व

करमा नृत्य और गीत छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश के आदिवासी समाज में विशेष रूप से प्रचलित हैं। करमा नृत्य को न केवल मनोरंजन का एक साधन माना जाता है, बल्कि यह सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताओं से गहरे रूप में जुड़ा हुआ है। करमा नृत्य में सामूहिकता, प्रकृति और सामाजिक जीवन का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। यह नृत्य वर्षा ऋतु के अंत में, फसलों की कटाई के बाद, नई फसल के आगमन की खुशी में किया जाता है। इस नृत्य के माध्यम से जीवन के विविध रंगों को प्रस्तुत किया जाता है, जिसमें स्त्री-पुरुष सभी बराबर भाग लेते हैं।

करमा नृत्य की पौराणिक और सांस्कृतिक मान्यता
करमा नृत्य के बारे में कई पौराणिक कहानियाँ और धार्मिक धारणाएँ प्रचलित हैं। इसका संबंध ‘करम’ देवता से जोड़ा जाता है, जिन्हें कर्म का प्रतीक माना जाता है। करम देवता की पूजा फसलों की अच्छी पैदावार और परिवार की खुशहाली के लिए की जाती है। करम वृक्ष की टहनी को पूजने के बाद करमा नृत्य की शुरुआत होती है, जिसमें लोग सामूहिक रूप से गीत गाते और नृत्य करते हैं।

करमा नृत्य की उत्पत्ति
करमा नृत्य के बारे में यह भी माना जाता है कि इसका नाम एक राजा ‘करमसेन’ के नाम पर रखा गया है। करमसेन नामक राजा ने जीवन में आई विपत्तियों के दौरान भगवान से प्रार्थना की और नृत्य एवं गीतों के माध्यम से अपनी समस्याओं का समाधान पाया। इस घटना के बाद से करमा नृत्य प्रचलित हुआ और इसे राजा करमसेन के नाम से जोड़ा गया।

करमा नृत्य का आयोजन और इसकी विशेषताएँ
करमा नृत्य खासतौर पर भादों मास की एकादशी को किया जाता है। इस दिन उपवास के बाद करम वृक्ष की शाखा को घर के आंगन में रोपित किया जाता है और पूजा की जाती है। इसके बाद अगले दिन से ही नवान्न (नई फसल) का उपयोग शुरू होता है। करमा नृत्य की विशेषता यह है कि इसमें अलग-अलग शैलियों में नृत्य किया जाता है, जिसमें झूमर, लंगड़ा, ठाढ़ा, लहकी और खेमटा प्रमुख हैं। हर शैली का अपना अनूठा अंदाज और महत्व होता है।

झूमर: इसमें नर्तक-नर्तकियाँ झूमते हुए नाचते हैं। यह बहुत ही लयबद्ध और स्वाभाविक होता है।

लंगड़ा: इस नृत्य में एक पैर पर झुककर नृत्य किया जाता है।

ठाढ़ा: यह नृत्य खड़े होकर किया जाता है।

लहकी: इसमें नर्तक लहराते हुए, नाजुक अंदाज में नाचते हैं।

खेमटा: इस नृत्य में नर्तक आगे-पीछे चलते हुए और कमर को लचकाते हुए नृत्य करते हैं।

करमा नृत्य का संगीत और गीत
करमा नृत्य के दौरान गाए जाने वाले गीत भी बेहद खास होते हैं। इन गीतों में समुदाय की भावनाओं, परंपराओं और सांस्कृतिक धरोहरों को व्यक्त किया जाता है। करमा गीतों में अक्सर प्यार, सम्मान, और सादगी झलकती है। गीतों में ईश्वर की स्तुति से लेकर लोकजीवन की रोजमर्रा की बातों तक के विषय शामिल होते हैं। इन गीतों के बोल सरल होते हैं, लेकिन उनमें गहरे भाव छिपे होते हैं। मादर और झांझ जैसे पारंपरिक वाद्य यंत्रों का उपयोग करके इन गीतों के साथ नृत्य किया जाता है।

करमा गीतों में विशेष संबोधन का प्रयोग होता है, जैसे “गोलेंदा जोड़ा,” “जवांरा,” “भोजली,” आदि। ये संबोधन गीतों में भावनात्मक गहराई और सामूहिकता का प्रतीक होते हैं। जब गाँव में मादर की आवाज गूंजती है, तो सभी लोग एकत्र होकर करमा नृत्य और गीतों में सम्मिलित हो जाते हैं। यह नृत्य ग्रामीण समाज में समर्पण, श्रम और उत्सवधर्मिता का प्रतीक है।
चलो नाचे जाबा रे गोलेंदा जोड़ा
करमा तिहार आये है, नाचे जाबो रे।
पहली मैं सुमिरौं सरस्वती माई रे
पाछू गौरी गणेश-रे गोलेंदा जोड़ा …
गांव के देवी देवता के पइंया लगारे
गोड़ लागौ गूरुदेव के रे गोलेंदा जोड़ा …
इस गीत में ‘गोलेंदा जोड़ा’ शब्द का प्रयोग बड़े प्रेमपूर्ण संबोधन के रूप में किया गया है। इसमें देवी-देवताओं की स्तुति की जाती है और करमा तिहार के आगमन का स्वागत किया जाता है।
करमा नृत्य के अवसर और इसके सामाजिक महत्व

करमा नृत्य का आयोजन वर्षा ऋतु के बाद फसलों की कटाई के समय होता है, जो नई फसल की खुशी में किया जाता है। इसके अलावा, यह नृत्य भाई-बहन के प्रेम, संतान प्राप्ति की कामना, और नवाखाई पर्व के दौरान भी किया जाता है। करमा नृत्य से समाज में एकजुटता और सामूहिकता का भाव प्रकट होता है, जिसमें लोग एक साथ मिलकर जीवन के विभिन्न उत्सवों को मनाते हैं।

करमा तिहार का जैव विविधता संरक्षण में योगदान
करमा नृत्य जैव विविधता संरक्षण में अप्रत्यक्ष रूप से कई महत्वपूर्ण योगदान करता है। इसका सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण के साथ गहरे रूप से जुड़ा हुआ है। प्रकृति का सम्मान और पूजा: करमा नृत्य की शुरुआत करम वृक्ष की पूजा से होती है।

करम वृक्ष का पर्यावरण में विशेष महत्व है, क्योंकि यह मिट्टी को समृद्ध करता है और जलवायु संतुलन में योगदान देता है। इस वृक्ष की पूजा के माध्यम से आदिवासी समुदायों में वृक्षों का संरक्षण और उन्हें महत्व देने की परंपरा सिखाई जाती है। यह वृक्ष संरक्षण और जैव विविधता बनाए रखने में मदद करता है।

करमा नृत्य और त्योहारों के दौरान उपयोग किए जाने वाले पौधों और फूलों के माध्यम से स्थानीय जैव विविधता को संरक्षित किया जाता है। यह नृत्य नई फसल आने की खुशी में किया जाता है, जिससे प्राकृतिक कृषि पद्धतियों और स्थानीय फसलों के संरक्षण की परंपरा को बल मिलता है।

करमा नृत्य में सामूहिक भागीदारी होती है, जिससे सामुदायिक जुड़ाव और पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी की भावना बढ़ती है। जब लोग सामूहिक रूप से नृत्य करते हैं और प्रकृति की पूजा करते हैं, तो यह उन्हें पर्यावरण की देखभाल और संरक्षण के प्रति संवेदनशील बनाता है।

करमा गीतों में अक्सर प्रकृति, जलवायु, और पर्यावरण से जुड़ी धारणाएँ होती हैं। इन गीतों के माध्यम से पारंपरिक ज्ञान और जैव विविधता के महत्व को पीढ़ी दर पीढ़ी प्रसारित किया जाता है। इसके अलावा, प्राकृतिक आपदाओं, सूखे, और वर्षा के संतुलन के लिए करम देवता की पूजा से यह संदेश मिलता है कि जैव विविधता और पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखना जरूरी है।

करमा नृत्य का सीधा संबंध फसलों और कृषि से है। यह नई फसल की कटाई के समय किया जाता है, जिससे पारंपरिक कृषि पद्धतियों का सम्मान और संरक्षण होता है। यह जैव विविधता के तहत स्थानीय फसलें, बीज, और पौधों के संरक्षण में योगदान देता है।

पर्यावरण आधारित लोक कथाएँ और मिथक: करमा नृत्य से जुड़ी पौराणिक कहानियाँ और मिथक प्रकृति और पर्यावरण से जुड़ी हुई हैं। यह लोक कथाएँ स्थानीय समुदायों में प्रकृति और जैव विविधता के प्रति आस्था और संरक्षण के विचारों को मजबूत करती हैं।

करमा नृत्य छत्तीसगढ़ और अन्य आदिवासी क्षेत्रों की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर है। यह नृत्य न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि जीवन की खुशियों, परंपराओं, और सामाजिक एकजुटता का प्रतीक है। करमा गीत और नृत्य के माध्यम से आदिवासी समाज अपनी सांस्कृतिक जड़ों को सहेजता है और पीढ़ी दर पीढ़ी इस धरोहर को आगे बढ़ाता है।

लेखक लोक संस्कृति के जानकार हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *