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1857 का क्रूर प्रतिशोध: जब अंग्रेजों ने सिपाही विद्रोह के जवाब में जलाया कानपुर

जलियाँवाला बाग में हुए सामूहिक नरसंहार को सब जानते हैं, पर अंग्रेजों ने इससे पहले और इससे भीषण नरसंहार भी किए हैं। इनमें एक भीषण नरसंहार जुलाई 1857 में कानपुर में हुआ। इसमें लगभग बीस हजार से अधिक निर्दोष नागरिकों को मौत के घाट उतारा गया था। छह हजार का आंकड़ा तो अकेले कानपुर नगर का है।

इस नरसंहार के नायक जनरल नील और जनरल हैवलॉक नामक दो सैन्य अधिकारी थे। 1857 की क्रांति में कानपुर और बिठूर में केवल पांच दिनों तक चला यह भीषण नरसंहार अकेला नहीं था। इस क्रांति के दमन के लिए लगभग हर स्थान पर नरसंहार हुए। इनमें अधिकांश का वर्णन जिला गजेटियरों में है।

लेकिन कानपुर का यह नरसंहार कितना भीषण था, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अंग्रेजों ने हर स्थान पर एक-एक जनरल तैनात किए, जबकि कानपुर और बिठूर के लिए दो जनरल भेजे गए — वे भी ऐसे, जो अपनी क्रूरता के लिए कुख्यात थे।

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1857 में क्रांति का उद्घोष भले मंगल पांडे ने बंगाल इन्फैंट्री से किया हो, पर इसका मुख्य केंद्र कानपुर और मेरठ थे। कानपुर में नाना साहब पेशवा और तात्या टोपे के नेतृत्व में सेना ने विद्रोह किया और नाना साहब ने कानपुर की सत्ता संभाली। उन्होंने अंग्रेज परिवारों की सुरक्षा का प्रबंध किया और गंगा पार भेजने के लिए सत्ती चौरा घाट भेजा गया।

कुछ परिवार नावों में रवाना हो गए थे, लेकिन सत्ती चौरा में सैनिकों ने गुस्से में हमला कर दिया। इसमें कुछ अंग्रेज स्त्री-पुरुष मारे गए। यह घटना 26 जून 1857 की है और इतिहास में “सत्ती चौरा कांड” के नाम से जानी जाती है।

16 जुलाई 1857 को हैवलॉक और नील कानपुर पहुँचे। उन्होंने नगर को चारों ओर से घेर लिया। जब उन्हें अंग्रेज परिवारों की मृत्यु की सूचना मिली, तो भारतीयों का नरसंहार शुरू कर दिया गया।

जनरल नील ने आदेश दिया कि पकड़े गए सभी सिपाही विद्रोही माने जाएं। उन्हें बीबीघर परिसर ले जाया गया, जहाँ सत्ती चौरा में अंग्रेजों की हत्या हुई थी। इन बंदियों को उस फर्श को चाटने पर मजबूर किया गया, जहाँ अंग्रेजों का रक्त गिरा था, फिर उन्हें गोली मार कर पेड़ों पर लटका दिया गया, या तोप से उड़ा दिया गया

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हैवलॉक ने 134 सैनिकों को गोली मारने का आदेश दिया, जो पुनः अंग्रेजों की सेवा में लौटना चाहते थे। उनका तर्क था कि इन्होने ब्रिटिश परिवारों की रक्षा क्यों नहीं की

इसके बाद, गाँव-गाँव सेना भेजी गई, आग लगाई गई, और कस्बों में नरसंहार हुआ। सेना पहले गाँव को चारों ओर से घेरती, फिर आग लगाकर स्त्री-पुरुष-बच्चों को जला देती। एक गाँव में 2000 तक की मृत्यु की रिपोर्ट है। यह नरसंहार 16 जुलाई से आरंभ होकर एक सप्ताह तक चला।

जीटी रोड के किनारे के सभी गाँव जलाए गएराहगीरों को मारकर पेड़ों पर लटकाया गयामेघदूत चौराहे पर फांसी का मंच बनाया गया, जहाँ तीन दिनों में 6000 स्त्री-बच्चों की निर्मम हत्या हुई।

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बिठूर में पेशवा नाना साहब का महल जला दिया गया, और वहाँ भी कानपुर जैसा नरसंहार हुआ। सेना में मद्रास फ्यूसिलियर्स और पंजाब बलूच सैनिक थे।

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हैवलॉक की क्रूरता पर अंग्रेज सरकार ने उसकी प्रशंसा की, और उसके नाम पर अंडमान निकोबार के एक द्वीप का नाम ‘हैवलॉक द्वीप’ रखा। यह नाम 75 वर्षों तक कायम रहा, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘स्वराज द्वीप’ में बदला।

हैवलॉक के अत्याचार का विवरण अंग्रेज कमांडर शेरर की पुस्तक “Havelock’s March on Cawnpore” में भी मिलता है।

इतिहास की पुस्तकों और जिला गजेटियरों में दर्ज यह भयावह नरसंहार, आज नई पीढ़ी की स्मृति से लगभग मिट चुका है। हम हैवलॉक के नाम पर द्वीप पर पिकनिक मनाते थे, और उसी के अत्याचारों को भूल चुके थे