खमरछठ के माध्यम से जैव विविधता संरक्षण का संदेश
हमारी संस्कृति में पर्वों का विशेष महत्व है। ये पर्व न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक अर्थ रखते हैं, बल्कि प्रकृति के संरक्षण और जैविक विविधता के संवर्धन से भी जुड़े हुए हैं। हरछठ इन्हीं पर्वों में से एक है, जिसमें इन महत्वपूर्ण पहलुओं को समेटा गया है। छत्तीसगढ़ में हरछठ भाद्रपद कृष्ण पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता है। इस पर्व का मूल उद्देश्य प्रकृति और जीवों का संरक्षण करना रहा है। सदियों से चली आ रही इस परंपरा में घर-घर भू-जल संवर्धन और जैविक विविधता के संरक्षण का संदेश निहित है।
छत्तीसगढ़ के पर्व न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक अर्थ रखते हैं, बल्कि पारिस्थितिक संरक्षण और जैविक विविधता के संवर्धन से भी जुड़े हुए हैं। हरछठ इन्हीं पर्वों में से एक है, जिसमें इन महत्वपूर्ण पहलुओं को समेटा गया है। हरछठ, कमरछठ, खमरछठ नाम से मनाए जाने वाले इस पर्व में जल संरक्षण और जैविक विविधता संरक्षण का महत्वपूर्ण संदेश निहित है। इस अनमोल जैविक विविधता को संरक्षित करने के लिए, दुनिया के कई देशों ने बायोस्फियर रिजर्व बनाए हैं, जहां वनस्पतियों और जीवों का संरक्षण किया जा रहा है।
जैव विविधता संरक्षण मुख्य ध्येय
जैविक विविधता की इस अनमोल धरोहर का संरक्षण और संवर्धन मानव जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमारी प्राचीन परम्परा में पर्वों के धार्मिक आयोजनों में वनस्पतियों और जीवों का संरक्षण किया जाता है। यह हमारी परम्परा से लोक संस्कृति में बसा हुआ है सांसों की तरह। जबकि विश्व तो जैव विविधता के होते विनाश को लेकर अब चिंतित हुआ है, हमारे पुरखे इसका महत्व पहले से ही जानते थे। भले ही वे जैव विविधता जैसे नामों से परिचित नहीं थे, परन्तु जीवों के संरक्षण की वैज्ञानिकता एवं उनके लाभों से अवश्य परिचित थे।
इस त्योहार की पूजा सामग्री में वनस्पतियों और जीवों को शामिल किया जाता है, जिससे इन अनमोल संसाधनों का संरक्षण होता है। इस दिन श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम का जन्मदिन भी मनाया जाता है, जिनका प्रमुख शस्त्र हल था। भारतीय कृषि का आधार हल है, इसलिए हरछठ में हल चलाए बिना उत्पन्न होने वाले अनाज, जैसे पसहर चावल, का उपयोग किया जाता है। हरछठ पर्व में जैव विविधता संरक्षण का विशेष महत्व है। इस पर्व में उपयोग होने वाली वनस्पतियों और जीवों को संरक्षित करने की परंपरा है।
कमरछट का त्योहार
पूजा सामग्री में प्रकृति से काशी फूल, कुश, झरबेरी, गूलर, महुआ और पलाश की टहनियां ली जाती हैं। ये सभी वनस्पतियां स्वयं उत्पन्न होती हैं और गांव के आस-पास की जैव विविधता का प्रतीक हैं। इनका संरक्षण और संवर्धन पर्व के माध्यम से किया जाता है। इसके अलावा, पूजा में मिट्टी से बनी चुकिया में सतनजा अनाज भरे जाते हैं, जिनमें गेहूं, चना, लाई, मक्का, जौ, बाजरा और मूंग शामिल होते हैं। ये सभी अनाज बिना हल चलाए उत्पन्न होते हैं और गांव की जैव विविधता का हिस्सा हैं।
भारत की गोधन संस्कृति है जिसमें भैंस के दूध को गाय के दूध से उत्तम नहीं माना गया है। भैंस का वंश भी चलता रहे इसलिए हरछठ में उसे सर्वोपरि महत्ता दी गई है । हरछठ में भैंस का दूध, दही, घी का उपयोग होता है। यह उसी भैंस का होता है जिसका पड़वा ( नर संतान) जीवित हो। भैंस के गोबर से कमरछठ माता का अंकन किया जाता है और रंगों के लिए छुही मिट्टी, गेरू और काजल का इस्तेमाल होता है।
इस दिन माताएँ सूबह से ही महुआ पेड़ की डाली का दातून कर, स्नान कर व्रत धारण करती है। भैस के दुध की चाय पीती है तथा दोपहर के बाद घर के आँगन मे, मंदिर-देवालय या गाँव के चौपाल आदि मे बनावटी तालाब (सगरी) बनाकर, उसमें जल भरते है। सगरी का जल, जीवन का प्रतीक है। तालाब के पार मे बेर, पलाश, गूलर आदि पेड़ों की टहनियो तथा काशी के फूल को लगाकर सजाते है। सामने एक चौकी या पाटे पर गौरी-गणेश, कलश रखकर हलषष्ठी देवी की मुर्ति (भैस के घी मे सिन्दुर से मुर्ति बनाकर) उनकी पूजा करते है।
साड़ी आदि सुहाग की सामग्री भी चढ़ाते है तथा हलषष्ठी माता की छः कहानी को कथा के रूप मे श्रवण करते है। इस पूजन की सामग्री मे पसहर चावल (बिना हल जोते हुए जमीन से उगा हुआ धान का चावल), महुआ के पत्ते, धान की लाई, भैस के दुध – दही व घी आदि रखते है। बच्चों के खिलौनों जैसे-भौरा, बाटी आदि भी रखा जाता है। बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों मे गेडी (हरियाली त्योहार के दिन बच्चों के चढ़ने के लिए बनाया जाता है) को भी सगरी मे रखकर पूजा करते है क्योंकि गेडी का स्वरूप पूर्णतः हल से मिलता जुलता है तथा बच्चों के ही उपयोग का है।
व्रत के संबंध में पौराणिक कथा
इस व्रत के बारे मे पौराणिक कथा यह है कि वसुदेव – देवकी के 6 बेटों को एक एक कर कंस ने कारागार मे मार डाला। जब सातवें बच्चे के जन्म का समय नजदीक आया तो देवर्षि नारद जी ने देवकी को हलषष्ठी देवी के व्रत रखने की सलाह दिया। देवकी ने इस व्रत को सबसे पहले किया जिसके प्रभाव से उनके आने वाले संतान की रक्षा हुई। सातवें संतान का जन्म समय जानकर भगवान कृष्ण ने योगमाया को आदेश दिया कि माता देवकी के इस गर्भस्थ शिशु को खींच कर वसुदेव की बड़ी रानी रोहिणी के गर्भ मे पहुँचा देना जो इस समय गोकूल मे नंद-यशोदा के यहाँ रह रही है तथा तुम स्वयं माता यशोदा के गर्भ से जन्म लेना।
योगमाया ने भगवान के आदेश का पालन किया जिससे, देवकी के गर्भ से संकर्षण होकर रोहणी के गर्भ द्वारा जन्म लेने वाला संतान ही बलराम के रूप मे जन्म लिया। उसके बाद देवकी की आठवीं संतान के रूप मे साक्षात भगवान कृष्ण प्रकट हुए। इस तरह हलषष्ठी देवी के व्रत-पूजन से देवकी के दोनों संतानो की रक्षा हुई। हलषष्ठी का पर्व भगवान कृष्ण व भैया बलराम से संबंधित है। हल से कृषि कार्य किया जाता है तथा बलराम जी का प्रमुख हथियार भी है।
बलदाऊ भैया कृषि कर्म को महत्व देते थे, वहीं भगवान कृष्ण गौ पालन को। इसलिए इस व्रत मे हल से जोते हुए जगहों का कोई भी अन्न आदि व गौ माता के दुध दही घी आदि का उपयोग वर्जित है तथा हलषष्ठी व जन्माष्टमी एक दिन के अंतराल मे बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन उपवास रखने वाली माताएँ हल चले वाले जगहों (खेत) पर भी नही जाती है। इस व्रत मे पूजन के बाद माताएँ अपने संतान के पीठ वाले भाग मे कमर के पास पोता (नये कपड़ों का टुकड़ा – जिसे हल्दी पानी से भिगाया जात) मारकर अपने आँचल से पोछती है जो कि माता के द्वारा दिया गया रक्षा कवच का प्रतीक है।
कमर छठ में 6 के अंक का महत्व
पूजन के बाद व्रत करने वाली माताएँ जब प्रसाद-भोजन के लिए बैठती है। तो उनके भोज्य पदार्थ मे पसहर चावल का भात, छः प्रकार के भाजी की सब्जी (मुनगा, कद्दु ,सेमी, तोरई, करेला,मिर्च) भैस के दुध, दही व घी, सेन्धा नमक, महुआ पेड़ के पत्ते का दोना – पत्तल व लकड़ी को चम्मच के रूप मे उपयोग किया जाता है। बच्चों को प्रसाद के रूप मे धान की लाई, भुना हुआ महुआ तथा चना, गेहूँ, अरहर आदि छः प्रकार के अन्नो को मिलाकर बाँटा जाता है।इस व्रत-पूजन मे छः की संख्या का अधिक महत्व है। भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष का छठवाँ दिन, छः प्रकार का भाजी, छः प्रकार के खिलौना, छः प्रकार के अन्न वाला प्रसाद तथा छः खमरछठ की कथायें प्रयोग में लाई जाती हैं। कमरछठ पर्व में काम आने वाली सारी चीजें गांव में ही उपलब्ध होती है।
कमरछठ पर्व में उपयोग होने वाली सभी वनस्पतियों, जीवों और प्राकृतिक सामग्रियों का संरक्षण और संवर्धन किया जाता है। यह पर्व भारतीय संस्कृति की जैव विविधता संरक्षण की अद्वितीय परंपरा को प्रदर्शित करता है, जिसमें वैज्ञानिकता और धार्मिकता का समन्वय है। महिलाएं इस दिन उपवास रखकर पुत्र कामना करती हैं। हरछठ पर्व में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और संवर्धन का संदेश निहित है। यह पर्व भारतीय संस्कृति की अद्वितीय परंपरा को प्रदर्शित करता है, जिसमें वैज्ञानिकता और धार्मिकता का समन्वय है। आज, जब वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद इन परंपराओं को कमजोर कर रहे हैं, तब इस पर्व का महत्व और भी बढ़ जाता है और हमारी लोक परम्परा जैव विविधता संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
लेखक भारतीय लोक संस्कृति, पुरातत्व एवं इतिहास के जानकार हैं।