सावन की मिठास, लोकगीतों की सुरभि और प्रेम का उत्सव कजरी तीज

सावन और भादों का महीना भारतीय ग्रामीण जीवन के लिए किसी उत्सव से कम नहीं होता। इस मौसम में खेत-खलिहान हरियाली से लहलहा उठते हैं, आकाश में बादलों की कतारें सजती हैं और मन में एक अद्भुत ताजगी भर जाती है। इन्हीं दिनों में एक विशेष पर्व आता है—कजरी तीज। यह व्रत और उत्सव मुख्यतः उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और झारखंड के कुछ हिस्सों में बड़ी श्रद्धा और उल्लास से मनाया जाता है। इसे सातुड़ी तीज, कजरी तीज या बड़ी तीज भी कहा जाता है, और यह भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाता है। यह त्योहार मुख्य रूप से विवाहित महिलाओं द्वारा अपने पति की लंबी उम्र और सुखमय वैवाहिक जीवन के लिए मनाया जाता है। इस दिन महिलाएं व्रत रखती हैं, नीमड़ी माता और भगवान शिव-पार्वती की पूजा करती हैं, और चंद्रमा को अर्घ्य देने के बाद सत्तू खाकर अपना व्रत खोलती हैं।
कजरी तीज का लोक संस्कृति में महत्व
कजरी तीज केवल धार्मिक व्रत भर नहीं है, बल्कि यह लोकजीवन, पौराणिक कथाओं और ऐतिहासिक परंपराओं से गहरे जुड़ा हुआ एक सांस्कृतिक आयोजन है। गांवों में कजरी तीज का माहौल कुछ अलग ही होता है। खेतों में धान की लहलहाती बालियां, आम और नीम की डालियों पर झूले, और उनमें झूलती रंग-बिरंगी साड़ियों में सजी महिलाओं के दृश्य अपने आप में एक पेंटिंग जैसे सुंदर दिखाई देते हैं। राजस्थान में इसे सातुड़ी तीज कहते हैं। इस दिन महिलाएं और युवतियां सज-धजकर, हाथों में मेंहदी और पैरों में महावर लगाकर सखियों के संग पींग झूलती हैं। इस दौरान गाए जाने वाले कजरी गीत पूरे वातावरण में मिठास घोल देते हैं।
कजरी तीज का श्रृंगार गीत
कजरी तीज के दिन सारी महिलाएं एक साथ मिलकर पूजा करती हैं और लोकगीत गाती हैं। कजरी गीतों में प्रेम, विरह, बरखा की खुशबू और कभी-कभी व्यंग्य भी झलकता है। इस दिन लोकगीत गाने की खास परंपरा है। कजरी तीज के गीत प्रकृति से जुड़े होते हैं। इनके माध्यम से स्त्रियों के हर भाव का सुंदर चित्रण होता है।
आई सावन की बहार
छाई घटा घनघोर बन में, बोलन लागे मोर।
पनियां बरसै जोर मोरे प्यारे बलमू।।
चद्दर सिंआव, सारी सबज रंगाव।
वामें गोटवा टकाव, मोरे बारे बलमू।।
यह गीत संदेश देता है कि सावन का आनंद केवल बाहर नहीं, बल्कि भीतर के मन-मंदिर में भी उतरता है। और जब मन प्रेम, आशा और सुंदरता से भर जाता है, तो वह स्वयं जीवन को उत्सव में बदल देता है।
तरसत जियरा हमार नैहर में
बाबा हठ कीनॊ, गवनवा न दीनो। बीत गइली बरखा बहार नैहर में।
फट गई चुन्दरी, मसक गई अंगिया। टूट गइल मोतिया के हार नैहर में।
कहत छ्बीले पिया, घर नाही नाही भावत। जिया सिंगार नैहर में।
यह गीत बताता है कि जीवन में अवसर, प्रेम और स्वतंत्रता का सही समय पर मिलना आवश्यक है। अन्यथा जैसे सावन का मौसम बीत जाने पर हरियाली और नृत्य की चाह अधूरी रह जाती है, वैसे ही समय बीत जाने पर जीवन के कुछ रंग लौटकर नहीं आते। यह हमें सिखाता है कि बंधन और हठ से ऊपर प्रेम, अपनापन और समय की कीमत समझनी चाहिए।
छैला छाय रहे मधुबन में
छाय रहे मधुबन में सावन, सुरत बिसारे मोर।
मोर शोर बरजोर मचावै, देखि घटा घनघोर।।
कोकिल, शुक, सारिका, पपीहा; दादुर धुनि चहुंओर।
झूलत ललिता लता तरु पर, पवन चलत झकझोर।।
यह गीत अनुभव कराता है कि प्रकृति और मनुष्य का तालमेल ही असली सुख का स्रोत है। जब भीतर और बाहर की ऋतु एक जैसी हो—बाहर हरियाली और भीतर उमंग—तब जीवन का संगीत सबसे मधुर हो जाता है। लेकिन यह भी क्षणभंगुर है, जैसे सावन थोड़े समय बाद बीत जाता है, वैसे ही ये आनंद के पल भी। इसलिए इन्हें जी भरकर जी लेना ही जीवन की सच्ची साधना है।
हरी रामा सावन बीता जाय
सजन नहीं आये रे हारी, सजन नहीं आये रे।
हरी रामा, सासु हमारी अति समुझाबयं रामा।
मोर बहुआ राखा धीरज मन माही, ललन घर अइहइं रे हारी।
यह गीत बताता है कि जीवन में हर प्रतीक्षा निश्चित नहीं होती, पर उम्मीद ही हमें थामे रखती है। सावन का बीतना यह भी स्मरण कराता है कि सुख और मिलन के अवसर समय-सीमित होते हैं। अगर हम उन्हें पा लें तो वे अमूल्य हैं, और अगर चूक जाएं तो बस स्मृति और आह रह जाती है।
पौराणिक महत्व
कजरी तीज का धार्मिक महत्व भगवान शिव और माता पार्वती की कथा से जुड़ा है। मान्यता है कि माता पार्वती ने शिव को पति रूप में पाने के लिए वर्षों कठोर तप किया। भादों कृष्ण पक्ष की तृतीया को उनका यह तप सफल हुआ और शिव ने उन्हें वरदान स्वरूप स्वीकार किया।
इसीलिए इस दिन विवाहित महिलाएं अपने पति की दीर्घायु और अविवाहित कन्याएं अच्छे वर की प्राप्ति के लिए व्रत रखती हैं।
ब्रज क्षेत्र में कजरी तीज को कृष्ण-राधा की रासलीला से भी जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि बरसात में राधा संग कृष्ण ने वृंदावन में झूला झूलते हुए प्रेमगीत गाए, जिनसे कजरी गीतों की परंपरा विकसित हुई।
ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व
कजरी तीज केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है, इसका इतिहास भी उतना ही समृद्ध है। मिर्जापुर और बनारस की कजरी मंडलियां आज भी प्राचीन शैली में कजरी गाती हैं। पहले गांव-गांव में कजरी प्रतियोगिताएं होती थीं, जिनमें मंडलियां पूरी तैयारी से भाग लेती थीं। इन गीतों में शास्त्रीय संगीत की राग कजरी का आधार लिया जाता था, जिससे लोक और शास्त्र का अद्भुत मेल होता था।
मुगल काल में भी कजरी की लोकप्रियता बनी रही। उस दौर में उर्दू-कजरी का विकास हुआ, जिसमें प्रेम और श्रृंगार के भाव अधिक प्रबल थे। इस तरह कजरी तीज सांस्कृतिक समन्वय का उदाहरण बन गई, जिसमें विभिन्न समुदायों ने इसे अपनाया और सजाया-संवारा।
व्रत और अनुष्ठान
कजरी तीज के दिन महिलाएं प्रातः स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करती हैं और निर्जल या फलाहार व्रत रखती हैं। पूजा में नीम की डाली, मिट्टी का पात्र, फल-फूल और श्रृंगार सामग्री का विशेष महत्व होता है।
पूजा के बाद महिलाएं झूला झूलती हैं और कजरी गीत गाती हैं। व्रत का समापन चंद्रमा के दर्शन के बाद किया जाता है।
आज शहरीकरण और भागदौड़ भरी जिंदगी के बावजूद कजरी तीज की परंपरा जीवित है। गांवों के साथ-साथ शहरों में भी सांस्कृतिक संगठनों द्वारा कजरी महोत्सव आयोजित किए जाते हैं। टीवी और सोशल मीडिया पर कजरी गायन प्रतियोगिताएं भी इस संस्कृति को नई पीढ़ी तक पहुंचा रही हैं। पर्यटन विभाग भी इसे स्थानीय पहचान के रूप में बढ़ावा देने में जुटा है।
वर्षा, हरियाली, संगीत, प्रेम और आस्था का सम्मिलित उत्सव कजरी तीज हमें बताता है कि भारतीय संस्कृति केवल धार्मिक अनुष्ठानों का संग्रह नहीं, बल्कि प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने और समाज को एकसूत्र में पिरोने का माध्यम भी है। नई पीढ़ी के लिए जरूरी है कि वे कजरी तीज जैसे पर्वों को केवल दर्शक बनकर न देखें, बल्कि उनमें भाग लेकर इस विरासत को जीवित रखें।
कब मनाई जाएगी कजरी तीज, क्या है मुहूर्त
पंचांग के अनुसार, भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि की शुरुआत 11 अगस्त 2025 को सुबह 10:33 बजे से होगी, और इसका समापन 12 अगस्त की सुबह 8:40 बजे होगा। इसी के आधार पर कजरी तीज का पावन पर्व उदया तिथि में 12 अगस्त 2025 को पूरे देश में श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जाएगा।
अम्बिकापुर निवासी लेखिका साहित्यकार एवं व्याख्याता हैं।