शीतला दाई और जुड़वास पर्व: छत्तीसगढ़ की समृद्ध संस्कृति
छत्तीसगढ़ की ग्रामीण संस्कृति में देवी-देवताओं का महत्वपूर्ण स्थान है, और इनमें से एक प्रमुख देवी हैं शीतला दाई। यह माना जाता है कि शीतला दाई गाँव के तीर्थ के रूप में पूजनीय हैं, जो गाँव को दुख, दर्द, पीड़ा, और रोग-राई से बचाती हैं। शीतला दाई का स्थान अक्सर तालाब (तरिया), पोखर (डबरी), नहर (सगरी), या नदी के किनारे, नीम के पेड़ के नीचे साधारण कुटिया में होता है, जिसे माता देवाला कहा जाता है।
शीतला दाई की पूजा-अर्चना विशेष महत्व रखती है। देवी प्रतिमा का गंगाजल और दूध से अभिषेक करके श्रृंगार किया जाता है। इसके बाद शांति पाठ, पूजन, हवन के पश्चात प्रसाद वितरित करके प्रकृति की रक्षा और बीमारी से मुक्त रखने की कामना की जाती है। इस अवसर पर जसगीत मंडलियों द्वारा जसगीतों से माता की महिमा का गान किया जाता है।
आसाढ़ महीने में विशेष रूप से बारह दिनों तक जुड़वास पर्व मनाया जाता है। इस पर्व में शीतला दाई की शांति परब के रूप में पूरे गाँव के परिवार मिलकर माता देवाला में पूजा-अर्चना करते हैं। यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है और यह त्योहार गाँव के समर्पण और श्रद्धा का प्रतीक है। इस पर्व में देश, प्रदेश की प्रगति, महामारी का प्रकोप न होने, अच्छी वर्षा होने, और फसल बेहतर होने की प्रार्थना की जाती है।
शीतला दाई की दंतकथाएँ
शीतला माता के ऊपर कई दंतकथाएँ और कहानियाँ प्रचलित हैं। एक समय की बात है जब शीतला दाई बुजुर्ग महिला का रूप धारण कर गाँव में घूम रही थीं। एक घर के सामने थोड़ी देर बैठने के लिए वह रुक गईं। उसी समय घर की महिला ने गर्म पसिया (चावल का पानी) बाहर फेंका, जो अनजाने में शीतला माता पर गिर गया। इससे माता के शरीर पर बड़े-बड़े फोड़े हो गए। क्रोधित होकर माता ने श्राप दिया कि उनकी यह पीड़ा समय-समय पर गाँव के खेत-खार, पेड़-पौधे, गाय-बैल, लोक-लड़कियों और जन-धन में किसी न किसी रूप में फैलती रहेगी।
गाँव के प्रमुख, बुजुर्ग, और पुजारियों ने माता शीतला की आराधना की और उन्हें प्रसन्न करने के उपाय पूछे। माता के दरबार में आसाढ़ महीने में नए पानी से हरदी, दूब, नीम की डाली, ठंडई, बासी जुड़ भोग, चना दाल, दही-खीर, मीठा भात, कढ़ी, बिना नमक के सोहारी, साग, और विभिन्न प्रकार के ठंडे सीतलता भोजन बनाकर, पूजा-अर्चना, जस गीत, पचरा, और शांति गीतों के माध्यम से शीतला दाई की आराधना की जाती है। जिससे हारी बिमारी का प्रकोप नहीं होता और परिवार में शांति रहती है।
प्रकृति और शीतला दाई का संबंध
शीतला दाई ग्रामीण जीवन के विभिन्न पहलुओं में दिव्य शक्ति का प्रतीक मानी जाती हैं। वह समय-समय पर रोगों के रूप में चेतावनी देती हैं, जिससे गाँववासियों को सतर्क रहने की आवश्यकता होती है। खेत-खार, पेड़-पौधों, गाय-बैलों और मनुष्यों में दैविक शक्ति से किस्म-किस्म के रोग उत्पन्न होते हैं, जैसे गंगई माता, गलवा माता, बेमची, लायचा, अगिया, खुरहा-चपका, आलस माता, छोटकी-बड़की, बुढ़ी माई की सेंदरी, इत्यादि। इन रोगों की शांति के लिए आसाढ़ महीने में जुड़ सीत के प्रतीकात्मक भोग-प्रसाद, फल-फूल और शांति भाव से समर्पित करते हैं।
आज भी शीतला जुड़वास पर्व ग्रामीण स्तर पर मनाया जाता है, जिसमें पारंपरिक रीति-रिवाजों का पालन किया जाता है। इस पर्व के दौरान गाँव में कोई भी काम चालू नहीं रखा जाता है। पूरा गाँव सेवा भाव से घर में ही रहता है। दोपहर में गाँव के मुखिया और बुजुर्ग लोग गाँव के चौराहे पर इकट्ठा होकर पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ शीतला दाई की सेवा में लोकगीत गाते हुए पूरे गाँव में घूमते हैं और लोगों को आमंत्रित करते हैं कि चलिए अब हमें देवगुड़ी की ओर शीतला जुड़वास के लिए जाना है।
शीतला दाई की ग्राम बैदराज की भूमिका
आधुनिक युग में, शीतला दाई की भूमिका किसी वैज्ञानिक या डॉक्टर से कम नहीं थी। लोक मान्यता है कि गाँव में किसी को भी कोई समस्या हो, चाहे घर में किसी का स्वास्थ्य बिगड़ना हो या फिर फसलों में लगने वाली बीमारियाँ हों, शीतला दाई अपने गाँव के जंगल से जड़ी-बूटियाँ लाती थीं और उन्हें देती थीं। इन जड़ी-बूटियों से फसलों की बीमारियाँ दूर हो जाती थीं और लोग भी स्वस्थ हो जाते थे। इस कारण से गाँव की बैदराज की उपाधि आज भी शीतला दाई को दी जाती है। घर में किसी को बीमारी होने पर शीतला दाई को पानी चढाया जाता है और उनसे बीमार के ठीक होने की कामना की जाती है।
शीतला जुड़वास पर्व छत्तीसगढ़ की ग्रामीण संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह पर्व न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि समाज में एकता, प्रेम और सहयोग की भावना को भी प्रकट करता है। इस प्रकार के पर्व हमारी जड़ों से जोड़े रखते हैं और हमें हमारी संस्कृति और परंपराओं की याद दिलाते हैं। छत्तीसगढ़ अपनी समृद्ध संस्कृति के लिए पूरे भारत देश में पहचाना जाता है। यहाँ की जनजातियाँ अपनी अनूठी कला, संस्कृति, सभ्यता और परंपराओं के लिए प्रसिद्ध हैं। शीतला जुड़वास पर्व इसी समृद्ध संस्कृति का हिस्सा है, जिसे आज भी ग्रामीण स्तर पर पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।