जातीय जनगणना: ब्रिटिश नीति की छाया और भारतीय समाज का विखंडन
भारत में सामाजिक संरचना की जटिलता और विविधता को समझने का प्रयास जितना प्राचीन है, उतना ही उसे राजनीतिक लाभ के लिए प्रयोग करना एक आधुनिक औपनिवेशिक विरासत है। इस प्रक्रिया का आरंभ औपचारिक रूप से वर्ष 1871 में हुआ, जब ब्रिटिश राज ने भारत की पहली जातीय जनगणना कराई। इसके पीछे का उद्देश्य भारतीय समाज को समझना नहीं, बल्कि उसे बाँटना था — ताकि ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को सुदृढ़ किया जा सके।
जातीय जनगणना की यह परंपरा ब्रिटिश शासन के अंतिम वर्षों तक चली। विशेषतः एच.एच. रीस्ले जैसे अधिकारियों ने जाति को एक जैविक-नस्लीय पहचान बना दिया। उनके अनुसार, जातियाँ जन्म से निर्धारित होती हैं और शारीरिक विशेषताओं के आधार पर उनकी श्रेष्ठता या हीनता तय की जा सकती है। यह दृष्टिकोण न केवल वैज्ञानिक रूप से त्रुटिपूर्ण था, बल्कि भारतीय समाज की आत्मा के भी विपरीत था।

भारतीय समाज की पारंपरिक वर्ण व्यवस्था, जो कर्म और गुण पर आधारित थी (जैसा कि भगवद्गीता में वर्णित है — चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः), उसे ब्रिटिशों ने कठोर, अपरिवर्तनीय जातियों में बदल दिया। यह प्रक्रिया न केवल सामाजिक गतिशीलता को बाधित करने वाली थी, बल्कि लोगों की आत्म-छवि, सामाजिक संबंधों और सांस्कृतिक सामंजस्य को भी क्षीण करने वाली सिद्ध हुई।
जातीय जनगणना से उत्पन्न वर्गीकरण ने समाज में कृत्रिम दीवारें खड़ी कीं। ‘उच्च’ और ‘निम्न’, ‘लड़ाकू’ और ‘अलड़ाकू’, ‘शुद्ध’ और ‘अशुद्ध’ जैसी श्रेणियाँ गढ़ी गईं, जिससे सामाजिक असमानता को राज्य द्वारा मान्यता मिल गई। इससे उपजी हीनता-बोध और जातिगत प्रतिस्पर्धा ने स्वतंत्र भारत की राजनीति को भी जाति के दलदल में धकेल दिया। यह विडंबना ही है कि आज भी हम इस औपनिवेशिक ढांचे के आंकड़ों और उसकी मानसिकता से मुक्त नहीं हो सके हैं।
स्वतंत्र भारत ने 1951 से जनगणनाओं की परंपरा जारी रखी, लेकिन 1931 के बाद किसी भी जनगणना में जातिगत आंकड़े प्रकाशित नहीं किए गए। हालांकि, 2011 में सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (SECC) अवश्य कराई गई, पर उसके आंकड़े अब तक सार्वजनिक नहीं हुए हैं। इसका कारण शायद यही है कि इन आंकड़ों का उपयोग समाज को जोड़ने के बजाय राजनीतिक ध्रुवीकरण के लिए अधिक किया जाता रहा है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि हम जातीय पहचान को सामाजिक सशक्तिकरण का माध्यम बनाएं, न कि सामाजिक विभाजन का औजार। यह तभी संभव है जब हम इतिहास की गलतियों से सीखें और एक समतामूलक, विवेकशील समाज की दिशा में बढ़ें।
अंत में यही कहना है कि जातीय जनगणना का इतिहास एक चेतावनी है कि आंकड़े यदि संवेदनशील सामाजिक प्रश्नों को संतुलन से न नापें, तो वे समाज के लिए विघटनकारी औजार बन सकते हैं। ब्रिटिशों ने इस नीति के माध्यम से भारत को विभाजित किया, लेकिन क्या हम आज भी उसी खांचे में सोचते रहेंगे?
(लेखक संस्कृत भाषा, साहित्य भारतीय संस्कृति के विद्वान एवं सामाजिक विषयों पर शोधकर्ता हैं।)