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छत्तीसगढ़ में आठे कन्हैया और जन्माष्टमी उत्सव

प्रो अश्विनी केशरवानी

एक समय था जब नाट्य साहित्य मुख्यतः अभिनय के लिए लिखा जाता था। कालिदास, भवभूति और शुद्रक आदि अनेक नाटककारों की सारी रचनाएं अभिनय सुलभ है। नाटक की सार्थकता उसकी अभिनेयता में है अन्यथा वह साहित्य की एक विशिष्ट लेखन शैली बनकर रह जाती। नाटक वास्तव में लेखक, अभिनेता और दर्शकों की सम्मिलित सृष्टि है। यही कारण है कि नाटक लेखकों के कंधों पर विशेष उत्तरदायित्व होता है। रंगमंच के तंत्र का ज्ञान पात्रों की सजीवता, घटनाओं का औत्सुक्य और आकर्षण तथा स्वाभाविक कथोपकथन नाटक के प्राण हैं। इन सबको ध्यान में रखकर नाटक यदि नहीं लिखा गया है तो वह केवल साहित्यिक पाठ्य सामग्री रह जाती है।

भारतीय हिन्दी भाषी समाज में रामलीला और नौटंकी का प्रसार था। कभी कभी रास मंडली भी आया करती थी जो अष्ठछाप के काव्य साहित्य के आधार पर राधा कृष्ण के नृत्यों से परिपूर्ण संगीत प्रधान कथानक प्रस्तुत करती थी। रामलीला और रासलीला को लोग धार्मिक भावनाओं से देखते थे। गांवों में जो नौटंकी हुआ करती थी उसका प्रधान विषय वीरगाथा अथवा उस प्रदेशिक भाग में प्रचलित कोई प्रेम गाथा हुआ करती थी। ग्रामीणजन का मनोरंजन करने में इनका बहुत बड़ा हाथ होता था। पंडित हीराराम त्रिपाठी के पद्य रासलीला में अधिकतर गाए जाते थे। देखिए उनके गीत की एक बानगी:-

चल वृन्दावन घनस्याम दृष्टि तबै आवै।
होगा पूरन काम जन्म फल पावै।।
द्रुम लता गुल्म तरू वृक्ष पत्र दल दल में।
जित देखे तित श्याम दिखत पल-पल में।।
घर नेह सदा सुख गेह देखु जल थल में।
पावेगा प्रगट प्रभाव हिये निरमल में।।
तब पड़े सलोने श्याम मधुर रस गावै।।1।।
तट जमुना तरू वट मूल लसै घनस्यामैं।
तिरछी चितवन है चारू नैन अभिरामैं।।
कटि कसै कांछनी चीर हीर मनि तामैं।
मकराकृत कुण्डल लोल अमोल ललामैं।।
मन स्वच्छ होय दृग कोर ओर दरसावै।।2।।
सुख पुंज कुंज करताल बजत सहनाई।
अरू चंग उपंग मृदंग रंग सुखढाई।।
मन भरे रसिक श्याम सज्जन मन भाई।
जेहि ढूँढ़त ज्ञानी निकट कबहुं नहिं पाई।।
युग अंखियों में भरि नीर निरखि हुलसावै।।3।।
श्रीकृष्ण प्रीति के रीति हिये जब परसै।
अष्टांग योग के रीति आपु से बरसै।
द्विज हीरा करू विस्वास आस मन हरसै।।
अज्ञान तिमिर मिटि जाय नाम रवि कर से।।
तब तेरे में निज रूप प्रगट परसावै।।4।।
चल वृन्दावन घनश्याम दृष्टि तब आवै।।

मुगलों के आक्रमण के पूर्व भारत के सभी भागों में खासकर राज प्रसादों और मंदिरों में संस्कृत और पाली प्राकृत नाटकों के लेखन और मंथन की परंपरा रही है लेकिन उनका संबंध अभिजात्य वर्ग तक ही सीमित था। ग्रामीणजन के बीच परंपरागत लोकनाट्य ही प्रचलित थे। मुगलो के आक्रमण से भारतीय परंपराएं छिन्न भिन्न हो गयी और यहां के प्रेक्षागृह भग्न हो गये। तब नाटकों ने दरबारों में भाण और प्रहसन का रूप ले लिया। लेकिन लोकनाट्य की परंपरा आज भी जीवित है, चाहे ढोलामारू, चंदापन या लोरिकियन रूप में हो, आज भी प्रचलित है।

आज हमारे बीच जो लोकनाट्य प्रचलित है उसका समुचित विकास मध्य युग के धार्मिक आंदोलन की छत्रछाया में हुआ। यही युग की सांस्कृतिक चेतना का वाहक बना। आचार्य रामचंद्र ने राम कथा को और आचार्य बल्लभाचार्य ने कृष्ण लीला को प्रोत्साहित किया। इनके शिष्यों में सूर और तुलसी ने क्रमशः रासलीला और रामलीला को विकसित किया। इसी समय बंगाल में महाप्रभु चैतन्य ने जात्रा के माध्यम से कृष्ण भक्ति का प्रचार किया। पं. हीराराम के गीत गाये प्रचलित थे:-

कृष्ण कृपा नहिं जापर होई दुई लोक सुख ताहिं न होई।
देव नदी तट प्यास मरै सो अमृत असन विष सम पलटोई।।
धनद होहि पै न पावै कौड़ी कल्पद्रुम तर छुधित सो होई।
ताको चन्द्र किरन अगनी सम रवि-कर ताको ठंढ करोई।।
द्विज हीरा हरि चरण शरण रहु तोकू त्रास देइ नहिं कोई।।

डॉ. बल्देव से मिली जानकारी के अनुसार रायगढ़ के राजा भूपदेवसिंह के शासनकाल में नगर दरोगा ठाकुर रामचरण सिंह जात्रा से प्रभावित रास के निष्णात कलाकार थे। उन्होंने इस क्षेत्र में रामलीला और रासलीला के विकास के लिए अविस्मरणीय प्रयास किया। गौद, मल्दा, नरियरा और अकलतरा रासलीला के लिए और शिवरीनारायण, किकिरदा, रतनपुर, सारंगढ़ और कवर्धा रामलीला के लिए प्रसिद्ध थे। नरियरा के रासलीला को इतनी प्रसिद्धि मिली कि उसे ‘छत्तीसगढ़ का वृंदावन‘ कहा जाने लगा। ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर, उनके बहनोई कोसिरसिंह और भांजा विश्वेश्वर सिंह ने नरियरा और अकलतरा के रासलीला और रामलीला के लिए अथक प्रयास किया। उस काल में जांजगीर क्षेत्रान्तर्गत अनेक गम्मतहार सुरमिनदास, धरमलाल, लक्ष्मणदास चिकरहा को नाचा पार्टी में रास का यथेष्ट प्रभाव देखने को मिलता था। उस समय दादूसिंह गौद और ननका रहस मंडली, रानीगांव रासलीला के लिए प्रसिद्ध था। वे पं. हीराराम त्रिपाठी के श्री कृष्णचंद्र का पचरंग श्रृंगार गीत गाते थे:-

पंच रंग पर मान कसें घनश्याम लाल यसुदा के।
वाके वह सींगार बीच सब रंग भरा बसुधा के।।
है लाल रंग सिर पेंच पाव सोहै,
अँखियों में लाल ज्यौं कंज निरखि द्रिग मोहै।
है लाल हृदै उर माल कसे जरदा के।।1।।
पीले रंग तन पीत पिछौरा पीले।
पीले केचन कड़ा कसीले पीले।।
पीले बाजूबन्द कनक बसुदा के ।। पांच रंग ।।2।।
है हरे रंग द्रुम बेलि हरे मणि छज्जे।
हरि येरे वेणु मणि जड़ित अधर पर बज्जे।।
है हरित हृदय के हार भार प्रभुता के।। पांच रंग।। 3।।
है नील निरज सम कोर श्याम मनहर के।
नीरज नील विसाल छटा जलधर के।।
है नील झलक मणि ललक वपुष वरता के।। पांच रंग।।4।।
यह श्वेत स्वच्छ वर विसद वेद जस गावे।
कन स्वेत सर्वदा लहत हृदय तब आवे।।
द्विज हीरा पचरंग साज स्याम सुखदा के।। पांच रंग।।5।।

बहुत कम लोगों को मालूम है कि शिवरीनारायण का अभिनय संसार केवल छत्तीसगढ़ में ही नहीं वरन् देश के कोने में प्रसिद्ध था। हालांकि हर गांव में नाचा, गम्मत, रामलीला और रासलीला पार्टी होती थी लेकिन यहां की रामलीला और नाटक मंडली की बात ही कुछ और थी। ‘‘छत्तीसगढ़ गौरव‘‘ में पंडित शुकलाल पांडेय ने लिखा है:-

ब्रज की सी यदि रास देखना हो तो प्यारों
ले नरियर नरियरा ग्राम को शीघ्र सिधारों
यदि लखना हो सुहृद ! आपको राघव लीला
अकलतरा को चलो, करो मत मन को ढीला
शिवरीनारायण को जाइये लखना हो नाटक सुघ्घर
बस यहीं कहीं मिल जायेंगे जग नाटक के सूत्रधार।

प्राचीन साहित्य में उल्लेख मिलता है कि पंडित मालिकराम भोगहा ने एक नाटक मंडली यहां बनायी थी। इस नाटक मंडली द्वारा अनेक धार्मिक और सामाजिक नाटकों का सफलता पूर्वक मंचन किया जाता था। भोगहा जी भी छत्तीसगढ़ के एक उत्कृष्ट नाटककार थे। उन्होंने अनेक नाटक लिखे जिसमें राम राज्य वियोग, प्रबोध चंद्रोदय और सती सुलोचना प्रमुख है। इन नाटकों का यहां सफलता पूर्वक मंचन भी किया गया था। भोगहा जी की एक मात्र प्रकाशित नाटक ‘‘राम राज्य वियोग‘‘ में उन्होंने लिखा है:- ‘‘यहां भी कई वर्ष नित्य हरि कीर्तन, नाटक और रासलीला देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। एक समय मेरे छोटे भाई श्रीनिवास ने ‘‘कंस वध उपाख्यान‘‘ का अभिनय दिखाकर सर्व सज्जनों को प्रसन्न किया। इस मंडली में हमारे मुकुटमणि श्रीमान् महंत गौतमदास जी भी सुशोभित थे। श्रीकृष्ण भगवान का अंतध्र्यान और गोपियों का प्रलापना, उनके हृदय में चित्र की भांति अंकित हो गया जिससे आपकी आनंद सरिता उमड़ी और प्रत्यंग को आप सोते में निमग्न कर अचल हो गये। अतएव नाटक कर्ता का उत्साह अकथनीय था और एक मुख्य कारण इसके निर्माण का हुआ।‘‘ पंडित शुकलाल पांडेय लिखते हैं:-
हैं शिवलाल समान यहीं पर उत्तम गायक।

क्षिति गंधर्व सुरेश तुल्य रहते हैं वादक।
विविध नृत्य में कुशल यहीं हैं माधव नर्तक।
राममनोहर तुल्य यहीं हैं निपुण विदूषक।
हैं गयाराम पांडेय से अभिनेता विश्रुत यहीं।
भारत में तू छत्तीसगढ़ ! किसी प्रान्त से कम नहीं।।
छत्तीसगढ़ में श्रीकृष्ण के लोक स्वरूप:-

छत्तीसगढ़ में जन्माष्टमी में श्रीकृष्ण के लोक स्वरूप की कल्पना करके इसे ‘‘आठे कन्हैया‘‘ कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि श्रीकृष्ण के स्वरूप की कल्पना उसके लोक रक्षक के रूप में की गयी है। सभी जानते हैं कि उनका जन्म न केवल कंस की आततायी से मथुरा, गोकुल और वृंदावन वासियों को मुक्ति दिलाने के लिए हुआ था बल्कि पूरी सृष्टि को आसुरी वृत्ति से मुक्ति दिलाने के लिए हुआ था। साथ ही माता देवकी के गर्भ से जन्म लेने, माता यशोदा को बाललीला दिखाने, हस्तिनापुर के कौरव-पांडवों के युद्ध में लोकलीला उनका मुख्य उद्देश्य था। डाॅ. पीसीलाल यादव का मानना है कि जब लागों की आवाज कंस के सामंती व्यवस्था में कुचली जा रही थी तब लोक भावनाओं की रक्षा करने के लिए श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। आठे कन्हैया लोक संस्थापक श्रीकृष्ण के जनमोत्सव का केवल प्रतीक मात्र नहीं है, अपितु लोक समूह की शक्ति को प्रतिस्थापित करने का पर्व भी है। उन्होंने हठी इंद्र के मान मर्दन और लोकरक्षा के लिए गोवर्धन पर्वत उठाया था। शायद इसी कारणलोक संगइक के रूप में श्रीकृष्ण जन जन में पूजनीय हैं। छत्तीसगढ़ के लोकजीवन में आठे कन्हैया के प्रतिअगाध श्रद्धा है। इस दिन अधिकांश बड़े-बूढ़े और स्त्री-पुरूष उपवास करते हैं। इस दिन मालपुआ, खीर पूड़ी बनाकर भोग लगाया जाता है।

मटकी फोड़ और दहिकांदो:-
‘गोविंदा आला ले..‘ गीतों के साथ जन्माष्टमी के दिन मटकी फोड़ और दही लूट प्रतियोगिता प्रायः सभी जगहों में होता है। पहले छत्तीसगढ़ में श्रीकृष्ण जन्म के साथ दही लूटकर नाचने की परंपरा थी जिसे दहिकांदो कहा जाता है।

रायगढ़ में जन्माष्टमी उत्सव:-
रायगढ़ जिला मुख्यालय में सेठ किरोड़ीमल के द्वारा स्थापित गौरीशंकर मंदिर स्थित है। यहां गौरी शंकर के अलावा राधा कृष्ण की मूर्ति भी है। यहां प्रतिवर्ष जन्माष्टमी बड़े धूमधाम से मानाया जाता है। मंदिर परिसर में अनेक प्रकार की झंकियां लगाई जिसे देखने के लिए छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के लोग आते हैं। इस अवसर पर अनेक प्रकार के मनोरंजन के साधन, मीना बाजार, झूला और खरीदी के लिए दुकानें लगती है। मेला जैसा दृश्य होता है। पूरे प्रदेश में जन्माष्टमी का अनूठा आयोजन होता है।

छत्तीसगढ़ का वृंदावन नरियरा का राधाकृष्ण मंदिर:-
जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत अकलतरा रेल्वे स्टेशन से मात्र 10 कि. मी. दूरी पर स्थित ग्राम नरियरा में लगभग 100 साल पुराना राधाकृष्ण मंदिर है। यहां सन 1925 में श्री प्यारेलाल सनाड्य ने रासलीला शुरू किया था जिसे नियमित, संगठित और व्यवस्थित किया ठाकुर कौशलसिंह ने। यहां प्रतिवर्ष माघ सुदि एकादशी से 15 दिन रासलीला होता था। जिसे देखने के लिए दूर दूर से लोग यहां आते थे। वृंदावन के रासलीला की अनुभूति लोगों को होती थी। कदाचित् इसी कारण नरियरा को छत्तीसगढ़ का वृंदावन कहा जाता है। कृष्ण भक्ति का अनूठा उदाहरण यहां देखने को मिलता है। इसीलिए पंडित शुकलाल पांडेय ‘छत्तीसगढ़ गौरव‘ में गाते हैं:-

ब्रज की सी यदि रास देखना हो तो प्यारों
ले नरियर नरियरा ग्राम को शीघ्र सिधारों

लेखक लोक संस्कृति के जानकार एवं साहित्यकार हैं।

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