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कहानी स्वतंत्रता से पूर्व 15 दिनों की

सतीश कुमार

हर वर्ष की प्रकार इस वर्ष भी 15 अगस्त को भारत एक नई उमंग और आशा के साथ स्वतंत्रता का यह पर्व मनाएगा, तो इससे जुड़ी खुशी और उत्साह के साथ – साथ यह जानना भी बहुत आवश्यक हो जाता है कि यह स्वतंत्रता की हमें क्या कीमत चुकानी पड़ी थी और क्या मायने हैं इस स्वतंत्रता के। क्योंकि स्वतंत्रता का असली आनंद और उसके प्रति श्रद्धा तभी आएगी, जब हमारे अंदर ‘स्व’ का भाव जागृत होगा, हमारी मातृभूमि के प्रति और उन हर एक वीरों के प्रति जिन्होंने इस भूमि के लिए खुद के प्राणों की आहुति दी। अगस्त 1947 के शुरुआती 15 दिनों में क्या घटनाएं घटी जो निर्णायक साबित हुई, जो हमारे अंदर इस स्वतंत्रता के प्रति एक नया भाव जगाएंगी।

1 अगस्त का दिन अचानक ही महत्वपूर्ण बन गया, जब गांधीजी श्रीनगर पहुंचे, जो कि उनका पहला कश्मीर दौरा था। स्वतंत्रता मिलने से चंद दिनों पहले महाराजा हरि सिंह को गांधीजी का दौरा बिलकुल नहीं चाहिए था, क्योंकि कश्मीर भारत और पाकिस्तान, दोनों के लिए नाक सवाल बन चुका था। स्वतंत्रता बस एक पखवाड़े की दूरी पर थी, लेकिन फिर भी अभी तक कश्मीर ने अपना निर्णय घोषित नहीं किया था। कश्मीर को भारत में शामिल होना चाहिए या नहीं, इसपर गांधीजी ने कुछ भी कहने से दूरी बनाली थी, क्योंकि गांधीजी का यह मानना था कि वह भारत और पाकिस्तान दोनों के पित्पुरुष हैं, हालांकि उन्हें यह जानकारी नहीं थी कि पाकिस्तान मांगने वाले मुसलमान उन्हें एक ‘ हिंदू नेता ’ ही मानते थे।

15 अगस्त करीब आने के साथ – साथ, घटनाएं प्रचंड और तीव्र होने के साथ हिंसक रूप ले रही थी, पंजाब पूरी तरह आग और हिंसा के हवाले हो चुका था और बंगाल अराजकता की तरफ तेजी से बढ़ रहा था। इसी बीच जवाहर  लाल नेहरू के नेतृत्व में गढ़ित नई सरकार, दिल्ली में 15 अगस्त की तैयारियों में लगी थी। उधर 4 अगस्त आते – आते भगत सिंह के पैतृक गांव, पंजाब स्थित जरनवाला पर मुस्लिम नेशनल गार्ड के कार्यकर्ताओं ने हमला कर दिया, जो कि वास्तव में एक हिंदू – सिख बहुल शहर था। इसी समय भारत और पाकिस्तान के मासूम और निर्दोष लोग अपनी जान बचाकर,  सीमा पार कर सुरक्षित स्थानों की ओर जा रहे थे। अनेकों लोगों को अपना घर और परिवार गंवाकर शरणार्थी शिविर में रहना पड़ रहा था। परंतु 5 अगस्त को गांधीजी पूर्वी पंजाब यानी आज के पाकिस्तान में स्थित ‘ वाह ‘ के शरणार्थी शिविर में गांधीजी सभी की शांति और सौहार्द संदेश दे रहे थे।

दंगों, आगजनी, लूटपाट और बलात्कार के इस अशांत वातावरण के बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक हिंदू और सिखों की रक्षा में दिन रात लगे हुए थे। इस समय कोई राजनैतिक दल या नेता इन निर्दोष लोगों के साथ नहीं था। ठीक इसी विकट परिस्थिति के मध्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री गुरु गोलवलकर जी कराची पहुंचे। नए बननेवाले पाकिस्तान के इस बेहद अशांत माहौल में दस हज़ार स्वयंसेवकों ने एकजुटता और साहस का संदेश देते हुए एक शानदार पथ संचालन निकाला और ये योजना बनाई कि कैसे हिंदू और सिखों को सुरक्षित भारत ले जाया जाए। इस विकट परिस्थिति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मातृभूमि के प्रति अपना कर्तव्य निभाया और साहस का परिचय दिया।

8 अगस्त आते-आते कलकत्ता में भी भीषण दंगे शुरू हो चुके थे, हालांकि इसे दंगा कहना भी एक गलती ही है, क्योंकि यह दंगा नहीं, बल्कि नरसंहार था। क्योंकि हमले केवल एक ही पक्ष के तरफ से हो रहे हैं। ठीक एक साल पहले, 14 अगस्त, 1946, को कलकत्ता में ‘ डायरेक्ट एक्शन डे ’ के नाम पर 5 हज़ार हिंदुओं का कत्लेआम कर दिया गया था। एक वर्ष बाद वही परिस्थिति दिखाई दे रही थी। इन दिनों में गांधीजी ने कलकत्ता में रहने का निर्णय किया, पर वह अभी भी यही बात दोहरा रहे थे कि मुसलमानों को पाकिस्तान मिल चुका है, अब वह शांत हो जायेंगे, परंतु कलकत्ता की स्थिति देखकर तो ऐसा बिल्कुल नहीं लग रहा था।

10 अगस्त को दिल्ली के मंदिर मार्ग स्थित हिंदू महासभा के भवन में चल रही ‘ अखिल भारतीय हिंदू महासभा ’ का आज दूसरा दिन था। इस बैठक में वीर सावरकर ने हिंदुओं और सिखों को संगठित रहने का संदेश दिया। इसी बीच सरदार पटेल भारत के विभिन्न रियासतों को भारत में जोड़ने के काम में लगे हुए थे। लॉर्ड माउंटबेटन ने पंडित नेहरू के सामने ये शर्त रखी कि स्वतंत्र भारत में भी, कुछ – कुछ विशेष दिनों में जैसे सैनिक दिवस और वायुसेना दिवस पर भारत की विभिन्न इमारतों पर यूनियन जैक फहराया जाए । यह कल्पना करना भी कठिन था कि इतने सालों और कुर्बानियों के बाद स्वतंत्र भारत में यूनियन जैक फहराया जाएगा। मगर इस मांग को भी पंडित नेहरू ने बिना आपत्ति के स्वीकार कर लिया।

इसी समय एक घटना गौर करने योग्य ये भी है कि अफ़ग़ानिस्तान की सीमा से लगने वाला ‘ नॉर्थ – वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस ’ ने भारत में विलीन होने की इच्छा जताई। यह राज्य मुस्लिम बहुल था जिसमें पठानों की संख्या ज्यादा थी और पठानों और पाकिस्तानियों में बैर बहुत पुराना था, इसीलिए यह राज्य भारत में शामिल होना चाहता था । परंतु इन सबके बीच नेहरू ने अड़ंगा लगा दिया, उनका कहना था कि हमें वहॉं जनमत (रेफरेंडम) से फैसला करना चाहिए, जिसका सरदार पटेल ने जमकर विरोध किया। क्योंकि उस समय कांग्रेस शासित राज्य भारत में शामिल हो रहे थे और मुस्लिम लोग वाले राज्य पाकिस्तान में । सर्वमत – रेफरेंडम की प्रक्रिया में मुस्लिम लोग ने, धार्मिक भावनाओं को भड़काया, यह देखकर कांग्रेस ने इस सर्वमत का बहिष्कार कर दिया। इसी प्रकार यह राज्य भी पाकिस्तान में शामिल हो गया।

और 15 अगस्त के वे दिन आ गया जब भारत को स्वतंत्रता मिली, मगर अधूरी। दुर्भाग्य से गांधीजी ने मुस्लिम लीग के बारे में जो मासूम सपने पाल रखे थे, वो टूटकर चूर – चूर हो गए। 17 अगस्त को विभाजन की रेखा घोषित होने के बाद अगस्त, सितंबर और अक्टूबर में जबरदस्त दंगे हुए। विभाजन की इस त्रासदी में लाखों लोगो को अपनी जान गवानी पड़ी और कितनों को बिछड़ना पड़ा। अगस्त 1947 के इन पंद्रह दिनों में भारत ने बहुत कुछ देखा। जिस आर. एस. एस. का आज विरोध किया जाता है उसने ज़मीन पर उतर कर हिंदुओं – सिखों की जान बचाई, जिस वीर सावरकर को देश विरोधी बताया जाता है, वे उस भीषण समय में हिंदुओं को एकजुट कर रहे थे। इस स्वतंत्रता दिवस पर हमें उन सभी को याद करना चाहिए जिन्होंने इस भूमि के प्रति अपने प्राण दिए और अपनी मातृभूमि के प्रति स्व का भाव जागृत करना चाहिए, ताकि हम इस स्वतंत्रता के असली मायने को समझें।

(यह लेख, श्री प्रशांत पोल की पुस्तक ‘ वे पंद्रह दिन ‘ से प्रेरणा लेकर लिखा गया है)

लेखक: सतीश कुमार, विवेकानंद केंद्र के युवा कार्यकर्ता है वे दिल्ली विश्वविद्यालय के वाणिज्य विभाग से वाणिज्य में पोस्टग्रेजुएट है

सन्दर्भ:

  1. पृष्ठ संख्या- 19, ‘ वे पंद्रह दिन ‘, लेखक: प्रशांत पोल
  2. पृष्ठ संख्या- 46-47, ‘ वे पंद्रह दिन ‘, लेखक: प्रशांत पोल
  3. पृष्ठ संख्या- 55, ‘ वे पंद्रह दिन ‘, लेखक: प्रशांत पोल
  4. पृष्ठ संख्या- 77, ‘ वे पंद्रह दिन ‘, लेखक: प्रशांत पोल
  5. पृष्ठ संख्या- 59, ‘ वे पंद्रह दिन ‘, लेखक: प्रशांत पोल
  6. पृष्ठ संख्या- 96-97, ‘ वे पंद्रह दिन ‘, लेखक: प्रशांत पोल
  7. पृष्ठ संख्या- 152, ‘ वे पंद्रह दिन ‘, लेखक: प्रशांत पोल

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