1855 का संथाल हूल: जब तीर-कमान ने ब्रिटिश शासन को दी चुनौती

भारत के झारखंड, बिहार, बंगाल एवं ओड़िसा में 1855 के संथाल विद्रोह की स्मृति में 30 जून को हूल दिवस मनाया जाता है। हूल ऐतिहासिक आंदोलन है, जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद और स्थानीय शोषणकर्ताओं के खिलाफ जनजातीय जागरुकता का प्रतीक है। ‘हूल’ का अर्थ होता है, विद्रोह। यह केवल एक क्रांति नहीं थी, बल्कि अपने अस्तित्व, जमीन, सम्मान और अधिकारों की रक्षा के लिए संथालों द्वारा लड़ी गई साहसी लड़ाई थी, जो 1857 की क्रांति से दो वर्ष पूर्व शुरू हुई और इस लड़ाई द्वारा ब्रिटिश शासन को पहली बार गंभीर रूप से स्थानीय लोगों द्वारा चुनौती दी गई।
तत्कालीन समय में झारखंड, बिहार, बंगाल और ओडिशा के वनांचल में रहने वाले और कृषि कार्य करने वाले थे तथा प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण जीवन जीते थे। अपने पारंपरिक संस्कारों को मानते हुए आत्मनिर्भर जीवन जीते थे। किंतु 18वीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा बंगाल, बिहार और ओडिशा पर नियंत्रण स्थापित करने के साथ ही उनके जीवन में एक अनचाहा संकट आ गया। लॉर्ड कॉर्नवालिस की स्थायी बंदोबस्त प्रणाली ने भूमि के अधिकार जमींदारों को सौंप दिए, और संथालों जैसे कृषकों को साहूकारों, दारोगाओं और अधिकारियों के निर्मम शोषण का शिकार बना दिया।
ब्रिटिश सरकार ने 1832 में दामिन-इ-कोह क्षेत्र को संथालों के लिए आरक्षित कर खेती के लिए बुलाया, लेकिन जल्दी ही उनका बुलाना धोखे और लूट में बदल गया। ज्यादा टैक्स, बेगारी, कर्ज में फँसाकर भूमि हड़पने और जातीय अपमान ने इस आत्मगौरवशाली समुदाय को विद्रोह के लिए प्रेरित किया।
30 जून 1855 को, भोगनाडीह (वर्तमान झारखंड) में लगभग 50,000 संथालों की सभा में सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव मुर्मू ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लड़ाई की घोषणा की। संथालों ने न केवल शासन के विरुद्ध, बल्कि सभी बाहरी ‘दीकुओं’ के विरुद्ध संघर्ष छेड़ दिया। इन दीकुओं में जमींदार, साहूकार, दारोगा और लालची व्यापारी शामिल थे।
सिद्धू-कान्हू और उनकी बहनों फूलो और झानो के नेतृत्व में संथालों ने परंपरागत हथियारों से सुसज्जित होकर एक संगठित विद्रोह प्रारंभ किया। प्रारंभ में यह आंदोलन स्थानीय रूप में फैलता गया, किंतु जल्दी ही ब्रिटिश शासन ने इसकी गंभीरता को समझते हुए कठोर दमनकारी कदम उठाए। अत्याधुनिक हथियारों से लैस ब्रिटिश सेना ने निहत्थे संथालों पर आक्रमण किया। गाँवों को जला दिया गया, स्त्री-पुरुषों की सामूहिक हत्याएँ हुईं और हजारों संथाल मारे गए। अनुमान है कि 15,000 से 20,000 संथाल इस विद्रोह में बलिदान हुए।
संथाल नेताओं को फाँसी दी गई। सिद्धू और कान्हू को 26 जुलाई 1855 को मार डाला गया। उनके भाइयों और बहनों को भी मार डाला गया। 10 नवंबर 1855 से 3 जनवरी 1856 तक मार्शल लॉ लागू किया गया। न्याय के नाम पर संथालों को खुलेआम फाँसी देने लगे। उनकी जमीनें नीलाम कर दी गईं और वे फिर से विस्थापन के शिकार हुए।
इस विद्रोह को अंग्रेजों ने अंततः कुचल दिया, पर यह आग बुझी नहीं। संथालों के साहस और बलिदान ने भारतीय जनमानस को प्रेरित किया। इसके परिणामस्वरूप 1876 में ‘संथाल परगना टेनेंसी एक्ट’ और 1908 में ‘छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट’ लागू किए गए, जो जनजातीय जमीनों की सुरक्षा के लिए मील का पत्थर बने।
वर्तमान समय में, हूल दिवस झारखंड, बिहार, बंगाल और ओडिशा में बड़े आयोजन के साथ मनाया जाता है। यह दिन केवल एक श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय, जनजातीय अस्मिता और अधिकारों के लिए जागरूकता का प्रतीक बन चुका है। 30 जून 2024 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में वीर सिद्धू-कान्हू को श्रद्धांजलि देते हुए इस दिन के महत्व को राष्ट्रीय स्तर पर रेखांकित किया।
हूल दिवस हमें यह याद दिलाता है कि जनजातीय समाज केवल जंगलों में रहने वाले लोग नहीं हैं, बल्कि वे स्वतंत्रता, आत्मसम्मान और बलिदान की महान परंपरा के वाहक हैं। यह दिवस भारतीय इतिहास में उस अध्याय का प्रतिनिधित्व करता है जहाँ तीर-कमान लिए साधारण लोगों ने साम्राज्यवादी शक्ति को चुनौती दी। हूल दिवस हमें सिखाता है कि अन्याय के विरुद्ध संगठित प्रतिकार ही परिवर्तन की चाबी है।