समाज को सशक्त एवं संस्कारित करने का केन्द्र हैं मंदिर
मंदिर केवल पूजा, उपासना, प्रार्थना या आराधना के स्थल भर नहीं है॔। ये अंतरिक्ष की अनंत ऊर्जा से प्रकृति और प्राणियों से समन्वय बिठाकर मानव जीवन के विकास का आधार, शिक्षा संस्कार, स्वत्व एवं साँस्कृतिक चेतना का केन्द्र होते हैं। भारत यदि विश्व गुरु और सोने की चिड़िया रहा है, तो इसमें मंदिरों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है।
भारत में मंदिर निर्माण की परंपरा असाधारण है। यह सभ्यता के विकास के साथ आरंभ हुई। अतीत में जहाँ तक दृष्टि जाती है वहाँ आत्म चेतना जागृति स्थल के रूप में मंदिरों का संदर्भ मिलता है। लेकिन इसे समझने के लिये हमें सभ्यता विकास क्रम पर पश्चिमी अवधारणा से परे होकर सोचना होगा। पश्चिमी दर्शन में मानव विकास क्रम केवल पांच हजार वर्ष के भीतर मानी जाती है। जबकि भारत में मंदिर और मूर्तियों के प्रमाण इस कालावधि से बहुत पहले आठ और दस हजार वर्ष पूर्व भी मिलते हैं। उस काल-खंड में मंदिरों की वास्तु उत्कृष्ट रही है।
यह दो प्रकार की थी। एक ऋषि परंपरा में दूसरी नगर एवं ग्राम्य परंपरा के समाज जीवन में। ऋषि आश्रम वनों में हुआ करते थे। जो शिक्षा, चिकित्सा और अनुसंधान और आध्यात्मिक साधना स्थल थे। वहाँ यज्ञ, तप, और साधना समाधि परम् ब्रह्म की उपासना होती थी। कुछ ऋषि आश्रमों में ध्यान और एकाग्रता के लिये प्रतीक की स्थापना भी होती थी। जैसी पार्वती जी ने वन में जाकर पार्थिव शिवलिंग स्थापित किया और अपनी आत्म चेतनासे शिवजी का आव्हान किया।जबकि नगर और ग्राम का जीवन सांसारिक होता है। भौतिक आवश्यकता का आधिक्य होता है। इसलिये सीधे साधना कठिन होती है। इसे दो आयामों में बाँटा गया। साधना के पहले चार आयाम “यम” “नियम” “संयम” “आहार” और “प्रणायाम” घर में भी हो सकते हैं लेकिन “धारणा” “ध्यान” और “समाधि” केलिये मंदिर होते हैं।
रामायण काल में दोनों उदाहरण मिलते हैं। रावण ने एकांत वन में जाकर शिवजी के प्रतीक की स्थापना करके आव्हान किया जबकि सीताजी ने मंदिर में जाकर पूजन करके आव्हान किया। महाभारत काल में अर्जुन और सुभद्रा का मिलन भी मंदिर में होता है। ये मंदिर साधारण भवन निर्माण भर नहीं होता। इनकी निर्माण कला अंतरिक्ष की अनंत ऊर्जा के केन्द्रीकरण का अद्भुत विज्ञान है। महाभारत काल ईसा से तीन हजार दो वर्ष पूर्व माना जाता है। यह निर्धारण कुरुक्षेत्र की खुदाई और द्वारिका के समुद्रतल से मिले चिन्हों के आधार पर किया गया है। इसका अर्थ है कि पश्चिमी जगत में जब सभ्यता का अंकुरण हो रहा था, तब भारत की सभ्यता इतने उन्नत स्वरूप में थी कि उसे आत्मशक्ति एकाग्र करके और अंतरिक्ष की अनंत ऊर्जा से साक्षात्कार करने की क्षमता अर्जित कर ली थी।
मंदिरों की निर्माण कला में यह ज्ञान स्पष्ट झलकता है। जिसे भूखंड विशेष के चयन, दिशाओं की गणना करके ऊर्जा केन्द्र केन्द्र का निर्धारण, आकाश की ऊर्जा का संवाहन करने की तकनीक होती है। इस उन्नत स्वरूप की झलक “मंदिर” नाम और इनके निर्माण की वास्तु में मिलती है।
“मंदिर” शब्द से संबोधन और निर्माण का विज्ञान
“मंदिर” शब्द साधारण नहीं है और न इसका आशय केवल पूजा, उपासना या आराधना केलिये बनाई गई किसी भवन आकृति के संबोधन तक सीमित है। “मंदिर” शब्द रचना में ही अंतरिक्ष की अनंत ऊर्जा का आव्हान करके व्यक्ति परिवार, समाज के संवर्धन और प्रकृति के संरक्षण का संदेश स्पष्ट हो जाता है। “मंदिर” शब्द संस्कृत की दो धातुओं से बनता है। एक धातु “मन् ” और दूसरी “दर्”। जब मन् धातु में दर् धातु की “इकार” अर्थात (छोटी इ की मात्रा) के साथ प्रत्यय के रूप में संधि की जाती है तब शब्द बनता है “मंदिर”।
मन, मनन, मन्नत, मान और मनुष्य जैसे शब्द मन् धातु से बनते हैं। जबकि दृश्य, दृष्टि, द्रव्य, दर्शन जैसे शब्द दर् धातु से बनते हैं। दोनों धातुओं की संधि में इकार का प्रयोग “शक्ति” रूप में होता है। तब मंदिर शब्द का अर्थ हुआ “मन और मनन को शक्तिमय दृष्टि देने वाला”। मन की सकारात्मक दृष्टि, मनन की सृजनात्मक दिशा से ही जीवन उत्कृष्ट बनता है। मन बहुत शक्तिशाली होता है और सदैव गतिमान रहता है। मन की गतिशीलता यदि संकल्पशील और सृजनात्मक न हो तो मन की समस्त ऊर्जा नकारात्मक परिणाम देती है। मन को एकाग्र करके विशिष्ट दिशा में गमन करने की प्रेरणा देने का स्थल मंदिर होते हैं।
भाषा विज्ञान के अनुसार “मंदिर” शब्द रचना हुई और उस विशिष्टता के अनुरूप ऊर्जा संपन्न बनाने केलिये मंदिर निर्माण की वास्तु कला का विकास हुआ। जिस प्रकार आरंभिक “यम” से “समाधि” तक भक्ति के नौ आयाम होते हैं उसी प्रकार मंदिर निर्माण कला के भी कुल नौ आयाम होते हैं। मंदिर वास्तु के इन नौ आयामों सबसे प्रथम है “अधिष्ठान” इसे हम नींव भी कह सकते हैं। यह सम्पूर्ण भवन का आधार होता है। दूसरा आयाम है मसूरक। यह नींव और दीवार का मध्यभाग होता है। तीसरा जगती, यह वह धरातल होता है जिसपर गर्भ गृह का निर्माण होता है। चौथा दीवार। पाँचवा कपोत, यह दीवारों में द्वार, वातायन अथवा अन्य उपलंबों का भाग कहलाता है। छटवां आयाम शिखर है, यह मंदिर का वह शीर्ष है जो गर्भगृह के मध्य में ठीक ऊपर होता है। सातवाँ भाग आमलक है, शिखर के आरंभ और कलश के मध्य का वर्तुलाकार भाग होता है। आठवाँ कलश है, जो शिखर का शीर्ष होता है। और नौवां उत्तुंग जो कलश के ऊपर एक बारीक सूत्र नुमा होता है।
इन सभी भागों में परस्पर लम्बाई चौड़ाई और ऊँचाई का एक निश्चित अनुपात होता है। अंतरिक्ष से केवल बिजली ही क्ड़क कर धरती पर नहीं आती। सदैव अदृश्य अनंत ऊर्जा बरसती है जो धरती, जल, अग्नि, आकाश और वायु को चैतन्य रखती है ताकि प्रकृति जीवन्त रहे और प्राणी सक्रिय रहें। मंदिर का यह उत्तुंग विशिष्ट धातु का बनता है और मंदिर शिखर के शीर्ष पर स्थापित किया जाता है। यह उत्तुंग जहाँ विद्युत प्रवाह को खींचकर सीधा भूमि में पहुँचा देता है वहीं सकारात्मक ऊर्जा का संचार पूरे परिसर में व्याप्त करता है जिससे उस परिसर में पहुँचने वालों का मन शांत होता है और चित्त में एकाग्रता आती है। जो उसकी दिनचर्या के कार्यों में गति आती है। मध्यकाल के पूर्व ऐसे स्थान खोजकर मंदिर निर्माण हुये जो ऊर्जा के केन्द्र रहे।
प्रतिमा के समक्ष प्रज्वलित किये जाने दीपक में बाती रखने का हर मंदिर का अपना विधान होता है। जिसका निर्धारण उस स्थान की ऊर्जा की दिशा के अनुरूप होता है जो शंख-घंटियों की ध्वनि एवं वाले मंत्रोच्चार से एक ब्रह्मांडीय नाद बनता है जिससे मन एकाग्र होता है और मस्तिष्क शाँत। जो ध्यान केलिये आवश्यक है। इसके अलावा मंदिरों में तांबे के एक पात्र में तुलसी और कपूर-मिश्रित जल भरा होता है जिसका सेवन करने से जहां रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है वहीं इससे ब्रह्म-रन्ध्र में शांति मिलती है। इस प्रकार मंदिर में जाने वाले कई अवचेतन शक्ति जागरुक करती है जिससे वहाँ की गई प्रार्थना के पूर्ण होती है।
समाज के सशक्तीकरण और संस्कारों केलिये मंदिर के विविध आयाम
जिस प्रकार समाज जीवन की सामान्य दिनचर्या में अपने कर्म कर्त्तव्य का पालन करते हुये आध्यात्मिक चेतना जागृत करने के समापन आयाम तक भक्ति के नौ आयाम होते हैं, मंदिर निर्माण कला में अधिष्ठान से लेकर शीर्षतुंग तक नौ आयाम होते हैं उसी प्रकार मंदिर में संचालित विधाओं के भी कुल नौ आयाम होते हैं। जो व्यक्ति के जीवन में व्यक्ति, परिवार, समाज, संस्कृति, स्वत्व के साथ संपूर्ण प्रकृति और प्राणियों से समन्वय की चेतना जागृत करते हैं।
मंदिर के विभिन्न प्रकल्पों का उद्देश्य समाज में शिक्षा, चिकित्सा, अनुसंधान, साधना, भक्ति, सत्संग, समन्वय का संचार होता है। इसके लिये मंदिर के साथ विद्यालय, आरोग्य केन्द्र, प्रवचन कक्ष, साधना कक्ष, यज्ञ शाला, अन्नक्षेत्र, संत निवास, गौशाला और यात्री निवास, कुल नौ आयाम होते हैं। इन सभी प्रकल्पों के लिये मंदिरों मेंस्थाई निर्माण होते हैं। यह नवरूप निर्माण ऋषि आश्रम में भी होते थे । वैदिक काल में महर्षि भृगु और महर्षि वशिष्ठ सहित सभी ऋषि आश्रमों में ऐसे प्रकल्पों का विवरण मिलता है।
ठीक इसी प्रकार का विवरण सोमनाथ मंदिर पर गजनवी के आक्रमण के समय और अलाउद्दीन खिलजी के अयोध्या काशी मथुरा आदि के विध्वंस के समय भी मिलता है। लेकिन मध्यकाल में आक्रमण और विध्वंस के दौर में बहुत सी परंपराएँ टूटी लेकिन उनके मूल स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं आया। यह ठीक है कि समाज जीवन में चेतना जगाने के लिये चौराहों पर या किसी पेड़ के नीचे प्रतिमा स्थापित कर पूजन अर्चन आरंभ हुआ। संभवतः यह समय की गति थी। मध्यकाल के समय समाज को अपनी जड़ों से जोड़े रखने केलिये यह आवश्यक भी था। लेकिन जहाँ संत और समाज दोनों के समन्वय से मंदिर निर्माण हो रहे हैं उनमें यह नौ आयाम देखने को मिलते हैं।
इन स्थायी आयामों के अतिरिक्त प्रतिदिन प्रभु विग्रह के सम्मुख सुबह शाम आरती में समाज का एकत्रीकरण, आरती के बाद संकीर्तन आदि में समाज की सहभागिता होती है। जो पूरे क्षेत्र को सामूहिकता में जोड़ने का एक सूत्र है। विवाह का आरंभ मंदिर में माता पूजन से ही आरंभ होता है। यह परंपरा भी समाज और परिवार को सामूहिक सूत्र में बाँधने के लिये आवश्यक है।
जन कल्याण का संदेश मंदिरों से
मंदिर जहाँ विविध सामाजिक आयाम का केन्द्र होते हैं। वही यह मानसिक वातावरण भी था कि मंदिर के पुजारी से लेकर सभी सेवादार मंदिर से केवल अपनी न्यूनतम आवश्यकतानुसार ही साधन सामग्री लेंगे और स्वयं कोई व्यक्तिगत संपत्ति सृजित नहीं करेंगे। दान या दक्षिणा के रूप में जो भी धन आयेगा उसे संचित करके सुरक्षित रखा जायेगा जो जन कल्याणकारी कार्यों में ही व्यय होगा। मंदिर तीन श्रेणियों के रहे हैं। एक वे मुख्य मंदिर जो ऊर्जा और अंतरिक्ष की अलौकिक शक्ति का केन्द्र होते हैं। इस श्रेणी में हम सभी ज्योतिर्लिंग, शक्तिपीठ और सोमनाथ, बालाजी, मथुरा, काशी, अयोध्या, पुष्कर, नेमिषारण्य आदि मान सकते हैं। दूसरे स्थानीय मंदिर जो स्थानीय देवताओं के होते हैं और तीसरे कुल देवी या देवता के मंदिर। आपात समय आने पर सभी मंदिर अपने अंतर्गत आने वाले समाज क्षेत्र की सहायता केलिये अपना निधि कोष खोल दिया करते थे। ऐसे उदाहरण भी हैं जब समय आने पर मंदिरों के कोष से राज कोष को भी सहायता की गई।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं।