स्वास्थ्य और समृद्धि का संगम धनतेरस

धनतेरस का पर्व भारतीय संस्कृति में विशिष्ट त्योहार है जिसमें धन की चमक-दमक के साथ स्वास्थ्य की शांतिपूर्ण रोशनी भी जगमगाती है। यह वह दिन है जब हम न केवल सोने-चांदी के बर्तनों की खरीदारी करते हैं, बल्कि अपने तन-मन को भी समृद्ध करने का संकल्प लेते हैं। धनतेरस हमें यह याद दिलाता है कि जीवन की भागदौड़ में हम अक्सर स्वास्थ्य को भूल जाते हैं, जबकि यही हमारी सबसे बड़ी पूंजी है। यह पर्व हमें रुककर सोचने को मजबूर करता है कि क्या बिना स्वस्थ शरीर के कोई धन वास्तव में सार्थक है। भारतीय संस्कृति ने सदैव जीवन को समग्र दृष्टि से देखा है जहां भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक संतुलन ही सच्ची समृद्धि का प्रतीक है। धनतेरस इसी संतुलन का उत्सव है, जो हमें सोने-चांदी की चमक से आगे बढ़कर स्वास्थ्य की स्वर्णिम चमक का स्मरण कराता है।
भगवान धन्वंतरि का स्मरण इस दिन विशेष रूप से किया जाता है, जिन्हें आयुर्वेद का आदि प्रवर्तक माना गया है। उनका स्वरूप चार भुजाओं वाला बताया गया है, दो हाथों में शंख और चक्र, तीसरे में अमृत कलश और चौथे में आयुर्वेद का ग्रंथ। यह प्रतीकात्मक रूप हमें बताता है कि वे केवल रोगों के नाशक नहीं, बल्कि जीवन की रक्षा और ज्ञान के दाता हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, धन्वंतरि का अवतरण समुद्र मंथन के दौरान हुआ था। देवता और असुर, दोनों अमरत्व की कामना से समुद्र का मंथन कर रहे थे। उसी समय जब मंथन से अमृत कलश निकला, तब भगवान धन्वंतरि उस कलश को हाथों में लिए प्रकट हुए। यह दृश्य केवल पौराणिक कथा नहीं, बल्कि यह बताता है कि जब जीवन का संघर्ष चरम पर होता है, तभी उसके भीतर से स्वास्थ्य और संतुलन का अमृत निकलता है।
धन्वंतरि का यह अवतार हमें यह सिखाता है कि स्वास्थ्य कोई संयोग नहीं, बल्कि ईश्वरीय अनुकंपा और प्रयास का परिणाम है। बाद के काल में वे काशी में जन्मे और वहां से उन्होंने आयुर्वेद को आठ अंगों में विभाजित कर संहिताबद्ध किया। ये आठ अंग आज भी चिकित्सा विज्ञान की नींव माने जाते हैं, आंतरिक चिकित्सा, शल्यचिकित्सा, बाल चिकित्सा, नेत्र-नाक-कान रोग, विष चिकित्सा, मानसिक रोग, रसायन और वाजीकरण। उन्होंने सुश्रुत जैसे महान शल्य चिकित्सक को शिक्षा दी, जिन्होंने चिकित्सा को प्रयोग और अनुभव का रूप दिया। यह पूरा ज्ञान-संस्कार बताता है कि भारत में स्वास्थ्य की अवधारणा केवल दवा तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह जीवन जीने की कला का हिस्सा रही है।
धनतेरस इसी चिकित्सा दर्शन का प्रतीक है। यह दिन दीपावली की श्रृंखला की शुरुआत का संकेत देता है, अंधकार से प्रकाश की ओर, रोग से आरोग्य की ओर, और अव्यवस्था से संतुलन की ओर। पारंपरिक रूप से इस दिन लक्ष्मी, कुबेर और धन्वंतरि की पूजा की जाती है। लक्ष्मी भौतिक समृद्धि की अधिष्ठात्री हैं, कुबेर धन के संरक्षक, और धन्वंतरि स्वास्थ्य के प्रतीक। तीनों मिलकर हमें बताते हैं कि सच्ची समृद्धि तभी संभव है जब धन और स्वास्थ्य दोनों का संतुलन बना रहे।
धनतेरस के दिन पूजा की विधि सरल है, पर उसका भाव अत्यंत गूढ़ है। जब हम दीप जलाते हैं और तांबे के कलश में जल भरकर धन्वंतरि की आराधना करते हैं, तब हम केवल पूजा नहीं करते, बल्कि अपने भीतर के विषाद को भी शुद्ध करने का संकल्प लेते हैं। यह दिन हमें आत्मसंयम, शुद्ध आहार, और सकारात्मक विचारों की ओर प्रेरित करता है। आयुर्वेद भी यही कहता है कि शरीर, मन और आत्मा के बीच सामंजस्य ही आरोग्य का आधार है।
धनतेरस पर बर्तन खरीदने की परंपरा भी आयुर्वेद से जुड़ी है। तांबा और पीतल जैसे धातु न केवल शुभ माने जाते हैं, बल्कि स्वास्थ्यवर्धक भी हैं। तांबे के बर्तन में रखा जल शरीर को शुद्ध करता है, प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत करता है और हृदय रोगों से बचाव में सहायक होता है। चांदी पित्त दोष को शांत करती है और शरीर में ठंडक लाती है। पीतल पाचन तंत्र को सुदृढ़ बनाता है। इस प्रकार सोना-चांदी की खरीदारी केवल शुभता के लिए नहीं, बल्कि स्वास्थ्य निवेश का प्रतीक रही है।
भारत के विभिन्न राज्यों में धनतेरस को अपने-अपने ढंग से मनाया जाता है, पर सबमें एक समान भाव है, आरोग्य और समृद्धि की प्रार्थना। दक्षिण भारत में इस दिन ‘मरुंधु’ नामक औषधीय मिश्रण तैयार किया जाता है, जिसमें विभिन्न जड़ी-बूटियाँ मिलाई जाती हैं। यह मिश्रण परिवार में बाँटा जाता है ताकि वर्षभर स्वास्थ्य बना रहे। यह परंपरा इस बात की जीवंत मिसाल है कि हमारे त्यौहार केवल अनुष्ठान नहीं, बल्कि स्वास्थ्य और समुदाय की एकजुटता का माध्यम रहे हैं।
वर्तमान समय में जब जीवनशैली की बीमारियाँ बढ़ रही हैं, जब तनाव, प्रदूषण और असंतुलित आहार हमारे शरीर और मन को कमजोर कर रहे हैं, तब धनतेरस का यह संदेश पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गया है। 2016 से भारत सरकार ने इस दिन को राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस के रूप में मनाना शुरू किया है। इसका उद्देश्य आयुर्वेद के महत्व को पुनः जगाना और आधुनिक चिकित्सा प्रणाली में उसके योगदान को स्वीकार करना है। हाल के वर्षों में इसकी थीम रही है—“वैश्विक स्वास्थ्य के लिए आयुर्वेद नवाचार।” यह बताता है कि भारत की प्राचीन चिकित्सा पद्धति अब वैश्विक स्तर पर मान्यता पा रही है और आधुनिक विज्ञान के साथ मिलकर नई राहें बना रही है।
आयुर्वेद केवल रोगों का उपचार नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला है। इसमें कहा गया है “स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणं, आतुरस्य विकार प्रशमनं च।” अर्थात् स्वस्थ व्यक्ति का स्वास्थ्य बनाए रखना और रोगी के विकारों को दूर करना ही चिकित्सा का उद्देश्य है। धनतेरस इसी सिद्धांत का स्मरण कराता है। जब हम दीप जलाते हैं, तो वह केवल घर को नहीं, बल्कि हमारे अंतर्मन को भी आलोकित करता है। यह पर्व कहता है कि स्वास्थ्य कोई वस्तु नहीं जिसे खरीदा जाए, बल्कि एक आदत है जिसे अपनाया जाए।
आज के युग में जब धन का अर्थ केवल बैंक बैलेंस तक सीमित हो गया है, धनतेरस हमें सिखाता है कि सच्चा धन वह है जो हमें दीर्घायु, संतोष और मानसिक शांति दे। सोना और चांदी चमकते जरूर हैं, लेकिन उनका मूल्य तभी है जब शरीर स्वस्थ और मन प्रसन्न हो। जीवन की दौड़ में यह पर्व हमें ठहरने और खुद की ओर देखने का अवसर देता है। यह पूछता है-क्या हम अपने भीतर के संतुलन को बनाए हुए हैं? क्या हम अपने शरीर और मन को उतना ही महत्व दे रहे हैं जितना अपने धन को?
धनतेरस का यह मानवीय संदेश हमें आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित करता है। यह कहता है कि सच्ची समृद्धि केवल संग्रह में नहीं, बल्कि संयम में है; केवल भौतिक सफलता में नहीं, बल्कि मानसिक संतुलन में है। भगवान धन्वंतरि की पूजा हमें यह स्मरण कराती है कि जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि धन नहीं, स्वास्थ्य है, क्योंकि जब शरीर और मन संतुलित हों, तभी लक्ष्मी का स्थायी निवास संभव है।
आज के समय में जब तनाव और प्रदूषण हमारे अस्तित्व पर हावी हैं, धनतेरस हमें प्राचीन जीवनशैली की ओर लौटने का निमंत्रण देता है। यह हमें याद दिलाता है कि आयुर्वेद के सिद्धांत, संतुलित आहार, समय पर विश्राम, ध्यान, और संयमित विचार, आज भी उतने ही प्रभावी हैं जितने सहस्राब्दियों पहले थे। इसलिए, इस धनतेरस पर केवल सोना-चांदी न खरीदें, बल्कि स्वास्थ्य और संतुलन का अमृत भी अपने जीवन में उतारें। यही भगवान धन्वंतरि की सच्ची आराधना है।
धनतेरस का सार यही है कि यह केवल उत्सव नहीं, बल्कि आत्मचिंतन का अवसर है। यह हमें भौतिक जगत की अस्थायी चमक से निकालकर उस स्थायी प्रकाश की ओर ले जाता है, जो शरीर और आत्मा दोनों को प्रकाशित करता है। जब हम इसे इस दृष्टि से देखते हैं, तो धनतेरस केवल व्यापारिक पर्व नहीं रह जाता, बल्कि यह जीवन का उत्सव बन जाता है, यह एक ऐसा पर्व, जो हमें हर बार याद दिलाता है कि धन की असली परिभाषा सोना-चांदी में नहीं, बल्कि स्वास्थ्य, संतुलन और आंतरिक शांति में निहित है।

