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परम् पूज्य गुरुजी माधव सदाशिव गोलवलकर: जीवन एवं योगदान

माधव सदाशिव गोलवलकर, जिन्हें “परम पूज्य गुरुजी” के नाम से जाना जाता है, का जन्म 19 फ़रवरी 1906 को महाराष्ट्र के रामटेक में हुआ। उनके पिता सदाशिवराव ‘भाऊ जी’ शिक्षक थे, और माता लक्ष्मीबाई ‘ताई’ धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं की वाहक थीं। बचपन से ही असाधारण मेधा के धनी माधव जी की शिक्षा दो वर्ष की आयु से ही प्रारंभ हो गई थी। उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी, और वे पढ़ाई के साथ-साथ खेलकूद और बौद्धिक गतिविधियों में भी अग्रणी रहे।

शिक्षा एवं प्रारंभिक करियर

1922 में माधव जी ने हाई स्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और 1924 में नागपुर के ‘हिस्लॉप कॉलेज’ से इंटरमीडिएट की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। तत्पश्चात, वे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) आए, जहाँ उन्होंने 1926 में बी.एससी. और 1928 में एम.एससी. की डिग्री प्राप्त की। उनका प्रमुख विषय प्राणी विज्ञान था।

एम.एससी. के बाद वे चेन्नई के मत्स्यालय में शोध कार्य हेतु गए, लेकिन पारिवारिक आर्थिक कठिनाइयों और स्वास्थ्य समस्याओं के कारण शोध अधूरा छोड़कर नागपुर लौट आए। नागपुर में अध्यापन कार्य प्रारंभ किया और बाद में बीएचयू में प्राणीशास्त्र विभाग में निदर्शक (डिमॉन्स्ट्रेटर) नियुक्त हुए। यहाँ उन्होंने अपने विद्यार्थियों को अंग्रेज़ी, राजनीति शास्त्र और अन्य विषयों में भी मार्गदर्शन दिया।

संघ से संपर्क एवं योगदान

बनारस में रहते हुए गुरुजी का संपर्क भैय्याजी दाणी से हुआ, जो नागपुर से संघ कार्य के लिए भेजे गए थे। यहीं से माधव जी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ाव प्रारंभ हुआ। उन्होंने बनारस में संघ कार्य का विस्तार किया और 1937 में नागपुर वापस लौटकर डॉ. हेडगेवार के सान्निध्य में संघ कार्य में सक्रिय हो गए।

डॉ. हेडगेवार ने उनकी नेतृत्व क्षमता को पहचानते हुए 1939 में उन्हें संघ का सरकार्यवाह नियुक्त किया। 1940 में डॉ. हेडगेवार के देहांत के बाद, श्री गुरुजी को संघ के द्वितीय सरसंघचालक का दायित्व सौंपा गया। इसके बाद उन्होंने संपूर्ण भारत में संघ कार्य का विस्तार किया।

स्वतंत्रता संग्राम और भारत विभाजन

1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान गुरुजी ने स्वयंसेवकों को निर्देश दिया कि वे आंदोलन में सक्रिय भाग लें, परंतु संघ के बैनर का उपयोग न करें। विभाजन के समय मुस्लिम लीग की ‘सीधी कार्यवाही’ के कारण हुए दंगों में संघ स्वयंसेवकों ने हिंदुओं की रक्षा की। विभाजन के बाद, गुरुजी ने विस्थापित हिंदुओं की सहायता हेतु संघ के स्वयंसेवकों को सक्रिय किया।

कश्मीर विलय में भूमिका

1947 में कश्मीर के भारत में विलय हेतु तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल के आग्रह पर श्री गुरुजी ने महाराजा हरिसिंह से भेंट की। उनके प्रयासों से महाराजा हरिसिंह भारत में विलय के लिए सहमत हुए, जिससे कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बना।

1962 का भारत-चीन युद्ध

1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान गुरुजी के नेतृत्व में स्वयंसेवकों ने सैनिकों की सहायता और राहत कार्यों में योगदान दिया। इस सेवा कार्य को देखते हुए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में संघ के स्वयंसेवकों को आमंत्रित किया।

अंतिम वर्ष और निधन

मार्च 1973 में रांची में संघ कार्यकर्ताओं के एक शिविर में भाग लेने के बाद उनकी तबीयत बिगड़ गई। कुछ महीनों तक अस्वस्थ रहने के बाद, 5 जून 1973 को उन्होंने अपना देह त्याग दिया।

कृतियाँ एवं विचार

श्री गुरुजी ने ‘बंच ऑफ थॉट्स’ और ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ जैसी प्रमुख पुस्तकें लिखीं। उनके विचारों पर आधारित ‘गुरुजी: दृष्टि एवं लक्ष्य’ नामक पुस्तक में उनके राष्ट्रवादी दृष्टिकोण को स्पष्ट किया गया है।

परम पूज्य गुरुजी ने संघ को एक विशाल संगठन के रूप में स्थापित किया और राष्ट्र निर्माण में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज वे लाखों स्वयंसेवकों के लिए प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं।

 

न्यूज एक्सप्रेस डेस्क

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