गुरु पूर्णिमा और भगवद्ध्वज: संघ की सांस्कृतिक परंपरा का दिव्य उत्सव

गीता में कहा गया है — ‘निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः, स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते। गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां, यः स गुरूर्निगद्यते।।’ अर्थात, जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निष्पाप मार्ग पर चलते हैं, हित और कल्याण की कामना रखने वाले को तत्त्वबोध कराते हैं — उन्हें ही गुरू कहा गया है। ‘गुरू पूर्णिमा’ ऐसे ही गुरू के मनःपूर्वक पूजन और गुरूदक्षिणा स्वरूप समर्पण का पर्व है। प्रत्येक वर्ष भारतीय पंचांग के अनुसार आषाढ़ माह की पूर्णिमा को, वेदों को संकलित करते हुए गुरू-शिष्य परंपरा को समाज में स्थापित करने वाले और महान ग्रंथ महाभारत के रचयिता महर्षि वेदव्यास की जयंती पर ‘गुरु पूर्णिमा उत्सव’ मनाया जाता है। इस दिन को ‘व्यास पूर्णिमा’ भी कहा जाता है।
ज्ञान, बुद्धि, कौशल अर्जित करते हुए सार्थक जीवन-लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग गुरू के माध्यम से ही मिलता है। इसीलिए शिष्य अपने गुरू के प्रति श्रद्धा, सम्मान और समर्पण भाव से यथाक्षमता दक्षिणा भेंट करने का प्रयत्न करता है। स्वामी विवेकानन्द ने श्रीरामकृष्ण परमहंस से मार्गदर्शन प्राप्त करते हुए ही विश्वभर में सनातन संस्कृति को स्थापित किया। छत्रपति शिवाजी ने समर्थ गुरू रामदास के चरणों में सम्पूर्ण मराठा साम्राज्य को आततायी मुगलों से मुक्त करवाकर अर्पित कर दिया। गुरू चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य के माध्यम से नवभारत की स्थापना का संकल्प सिद्ध किया। ऐसे अनेक उदाहरण भारतीय इतिहास में प्रत्यक्ष हैं।
विश्व का सबसे बड़ा सामाजिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस अवसर पर प्रतिवर्ष राष्ट्रीय चेतना के सर्वोच्च गुरू भगवद्ध्वज का श्रद्धापूर्वक पूजन करते हुए, यथाक्षमता अर्थार्पण करने के संकल्प का निर्वहन करता है। भारतवर्ष के सम्पूर्ण राष्ट्रजीवन का भाव, दिव्य भास्कर के उदय की प्रथम रणभेरी, भारतीय संस्कृति की पहचान और भारतीय इतिहास के वैभव, संघर्ष और उत्थान के कालखण्डों का प्रत्यक्षदर्शी रहा है। इसीलिए संघ किसी भी व्यक्ति के स्थान पर भारत के परमवैभव श्रीभगवद्ध्वज को ही अपना गुरू मानकर राष्ट्रसेवा के संकल्प के प्रति कटिबद्ध है।
संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की बायोग्राफी लिखने वाले एन. एच. पल्हीकर बताते हैं कि संघ के सभी जन तत्समय डॉ. हेडगेवार को गुरू के रूप में मान्यता देना चाहते थे। किन्तु स्वयं डॉ. साहब ने इस आग्रह को अस्वीकार करते हुए कहा कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता। इसलिए उन्होंने भारतीय संस्कृति, ज्ञान, त्याग, शौर्य, बलिदान, राष्ट्रभक्ति और अध्यात्म के प्रतीक परमपूज्य श्रीभगवद्ध्वज को ही सर्वमान्य गुरू के रूप में प्रतिष्ठित करने का निर्णय लिया। निश्चित रूप से यह विश्व के समकालीन इतिहास की एक अनूठी पहल है।
संघ के पूर्व सरकार्यवाह, प्रख्यात विचारक एच. वी. शेषाद्रि ने अपनी पुस्तक में लिखा है — भगवा ध्वज सदियों से भारतीय संस्कृति और परंपरा का श्रद्धेय प्रतीक रहा है। जब डॉ. हेडगेवार ने संघ का शुभारंभ किया, तभी से उन्होंने भगवद्ध्वज को स्वयंसेवकों के समक्ष समस्त राष्ट्रीय आदर्शों के सर्वोच्च प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया और बाद में व्यास पूर्णिमा के दिन गुरू के रूप में भगवा ध्वज के पूजन की परंपरा आरंभ की।
महाराष्ट्र प्रांत के पूर्व कार्यवाह एन. एच. पालकर के अनुसार — ‘वैदिक साहित्य में ‘अरुणकेतु’ के रूप में वर्णित इस भगवा ध्वज की हिंदू जीवन-शैली में सदैव प्रतिष्ठा रही है। यह ध्वज राष्ट्ररक्षा के लिए संघर्ष का भाव जाग्रत करता है।’ यह भी तथ्य है कि अंग्रेजी राज के विरुद्ध 1857 में भारत के पहले स्वाधीनता संग्राम के दौरान केसरिया ध्वज के तले ही सारे क्रांतिकारी एकजुट हुए थे। श्रीराम, श्रीकृष्ण से लेकर अवतार पुरुषों, जगद्गुरू शंकराचार्य, समर्थ गुरू रामदास, महर्षि पतंजलि, महर्षि वाल्मीकि, गोस्वामी तुलसीदास, महर्षि अरविन्द, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द सरस्वती, गुरू नानकदेव, स्वामी रामतीर्थ जैसे अनेक ऋषि-मुनियों और संत-महात्माओं ने भगवद्ध्वज की ओजस्वी दीप्ति में ज्ञान की सरिता प्रवाहित की है। इसीलिए भगवद्ध्वज को ही परमगुरू माना गया।
संघ विचारक दिलीप देवधर बताते हैं कि संघ में प्रथमतः मन, फिर तन और अन्ततः धन को समर्पित करने की परंपरा स्थापित है। यही संघ के स्वयंसेवक का परिचय भी है। सार्थक जीवनलक्ष्य की ओर अग्रसर रहते हुए, संघ स्वयंसेवक की प्राथमिकता मनपूर्वक, पूर्ण शरीरिक क्षमता से भारत की सेवा में समर्पित होकर कार्य करना ही है। इस प्रकार अन्ततः जब श्रीगुरु भगवद्ध्वज के समक्ष सर्वस्व समर्पण का भाव रहता है, तो अर्थार्पण भी स्वेच्छा से ही होता है।
1925 में स्थापित संघ में 1928 से गुरूपूजन का शुभारंभ हुआ। तब से प्रत्येक वर्ष गुरू पूर्णिमा से लेकर रक्षाबंधन तक राष्ट्रगुरू श्रीभगवद्ध्वज के समक्ष मन और तन के साथ यथाक्षम अर्थार्पण किया जाता है। सभी स्वयंसेवक स्वेच्छा से गुप्तदान की भाँति अपनी क्षमता के अनुरूप राशि ‘मंगल कलश’ में अर्पित करते हैं। यही वह सुदृढ़ आर्थिक आधार है जिससे संघ विगत 99 वर्षों से बिना किसी बाहरी सहायता के, स्वयं के संसाधनों से कार्य करता चला आ रहा है।
गुरू पूजन के माध्यम से एकत्रित समस्त राशि का सदुपयोग — अपना घर-परिवार छोड़कर देशसेवा का संकल्प लेकर कार्यरत प्रचारकों की कुशलक्षेम, विविध क्षेत्रों के अनाथ बच्चों के लालन–पालन, आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा के प्रसार, निर्धन बच्चों को पाठ्य सामग्री उपलब्ध करवाने और विद्यालयों की स्थापना, किसी भी भाग में कोई भी आपदा आने पर शासकीय सहायता से पूर्व पहुँचकर जान-माल की रक्षा व औषधि-भोजन आदि व्यवस्थाओं जैसे जनकल्याण के कार्यों में किया जाता है।
✍️ उमेश कुमार चौरसिया
साहित्यसाधक एवं संस्कृतिकर्मी
प्रदेश मंत्री, अखिल भारतीय साहित्य परिषद, राजस्थान